काश! भ्रष्टाचार चुनावी मुद्दा बन जाता…

पांच राज्यों में होने वाले चुनावों में कौन जीतता है, यह निश्चित रुप से महत्वपूर्ण है, लेकिन इससे कहीं अधिक महत्वपूर्ण सवाल यह है कि वे कौन से मुद्दे हैं जो इन चुनावों के परिणामों को प्रभावित करेंगे। गोवा से लेकर मणिपुर तक और पंजाब से लेकर उत्तराखण्ड तक फैले ये चुनाव एक तरह से दो साल बाद होने वाले लोकसभा के चुनावों की पूर्व-पीठिका माने जा रहे हैं। माना जा रहा है कि इनके परिणाम इस बात का संकेत भी दे देंगे कि आगे आने वाले राष्ट्रीय चुनावों में हवा कैसी बनेगी। ऊपरी तौर से देखा जाये तो यह बात गलत लगती भी नहीं है, लेकिन यहीं इस तथ्य को भी रेखांकित किया जाना जरूरी है कि राज्यों में होने वाले चुनाव अक्सर केंद्र सरकार की इति-नीति पर जन-मत संग्रह नहीं होते। पांचों राज्यों की स्थितियां काफी अलग हैं और इनमें से तीन राज्यों में तो कांग्रेस की सरकार ही नहीं है। ऐसे में यह आकलन कि मतदाता केंद्र सरकार के किये, न किये को ध्यान में रखकर वोट देंगे, पूरी तरह सही नहीं लगता। मतदाता के निर्णय का मुख्य आधार तो राज्यों की वर्तमान सरकारों के काम ही होंगे। तथ्य यह भी है कि दुर्भाग्य से हमारे चुनावों में विकास के बजाये जाति और समुदाय की हमेशा से एक महत्वपूर्ण मुद्दा रहा है। इसे अब भी खारिज नहीं किया जा सकता। स्थानीय मुद्दे, जाति और समुदाय के समीकरण, धन-बल और बाहुबल आदि की भूमिका इन चुनावों में भी काफी महत्वपूर्ण होने वाली है।

इसमें कोई संदेह नहीं कि पिछले लगभग एक डेड़-साल से भ्रष्टाचार एक बहुत बड़ा मुद्दा बनकर उभरा है। पहले राष्ट्रमंडलीय खेलों में भ्रष्टाचार और फिर 2 जी स्पेक्ट्रम घोटाले ने देश के मध्यवर्ग को बुरी तरह फकफोर दिया था। ऐसा नहीं है कि इससे पहले भ्रष्टाचार के उदाहरण सामने नही आये थे, पर अब बर्दाश्त की सीमा पार होती लगने लगी थी। अण्णा हजारे के नेतृत्व में जैसे सारा देश ती भ्रष्टाचार के खिलाफ जाग उठा था। राजनीति और राजनेता इस भ्रष्टाचार-विदेशी तूफान की अनदेखी नहीं कर सकते। इसीलिए यह भी लगते लगा कि भ्रष्टाचार पांच राज्यों मे होने वाले चुनावों मे सबसे बड़ा मुद्दा बन सकता है।

राजनीतिक विश्लेषकों ने भी कहना शुरु कर दिया था कि इन पांचो राज्यों में प्रमुख मुद्दा भ्रष्टाचार है। लेकिन अकेला भ्रष्टाचार नहीं। उत्तर प्रदेश में भ्रष्टाचार के साथ कानून-व्यवस्था महत्वपूर्ण मुद्दा बनकर खडी है। पंजाब में भी यही कहा जाता है। उत्तराखण्ड में भ्रष्टाचार के साथ स्थानीय स्तर पर हुए घोटालों को जोड़ा गया है। गोवा में भ्रष्टाचार और भू-घोटालों की बात प्रमुखता से हो रही है। अकेला मणिपुर ऐसा है जहा भ्रष्टाचार और घोटालों से अधिक महत्वपूर्ण मुद्दा नगालैण्ड से सीमा-विवाद का है।

लेकिन, क्या सचमुच इन राज्यों में राजनीतिक भ्रष्टाचार निर्णायक मुद्दा होगा? काश, ऐसा होता। स्थिति तो यह है कि अण्णा हजारे जेसे नेतृत्व के बावजूद, और भ्रष्टाचारी इन चुनावों का केंद्रीय मुद्दा नहीं है। भ्रष्टाचार इन चुनावों का केंद्रीय मुद्दा नहीं है। भ्रष्टाचार के खिलाफ लडने वालों की यह खुशफहभी ही है कि वे भ्रष्ट उम्मीदवारों के खिलाफ वातावरण बनाते में सफल होंगे। लेकिन इस देश की राजनिती के चलाने वाले इस बात को अच्छी तरह समजते हैं कि वे मुद्दे और भी हैं जो वोटों को प्रभावित करते है।

भाजपा अकेली पार्टी नहीं है जो वोटों के गणित के खेल में उलझी है। डी. पी. यादव को लेकर समाजवादी पार्टी भी यही खेल खेल रही है और कांग्रेस को भी वोटों को जातिवादी गणित का लाभ उठाने से परहेज नही है। मतलब यह कि उत्तर प्रदेश में भ्रष्टाचार वैसा मुद्दा नहीं है, जैसा होना चाहिए था। यह दुर्भाग्यपूर्ण सचाई है। टीम अण्णा भले ही कुछ भी कहे, हकीकत यह हे कि हमारे यहां के चुनाव जितने जटिल हैं, उतने ही बहु आयामी भीं। कोई एक मुद्दा, भले ही वह भ्रष्टाचार ही क्यों न हो, हमारे चुनावों को परिभाषित नहीं करता। चुनाव होने वाले पांचों राज्यों में जो स्थितियां और समीकरण बन रहे हों, वे इस बात का स्पष्ट संकेत हैं कि हमारे राजनेताओं और राजनीतिक दलों को भ्रष्टाचार का मुद्दा खतरनाक नहीं लगता। जाति, वर्गीय हित, पैसा, बाहुबल, रोटी, सडक, पानी, विकास-कार्य आदि कई कारक है जो चुनाव परिणामों को प्रभावित करते हैं।

बना था एकबार भ्रष्टाचार चुनावी मुद्दा। एक चर्चे में विश्वनाथप्रताप सिंह ने लोफोर्स के खिलाफ अलख जगायी थी। फिर कभी वैसा मौका नहीं बना। बनना चाहिए। पर जो होना चाहिए, वह होता कब है। फिर, यह बात थी अपने आप मे कम महत्वपूर्ण नहीं है कि अक्सर मतदाता के पास मायावती के सामने मुलायमसिंह ही तो हैं। दाम दोनों के दामन पर हैं। पंजाब में अकाली दल परिवारवाद की गिरफ्त में है, पर कांग्रेस उससे कहां बची है? गोवा में भी उमीदवारों की एक बडी संख्या आरोपों के घेरे में है।

जटिल चुनावी समीकरणों को चलते चुनाव परिणामों के बारे में कोई अनुमान लगाना आसान नहीं है। भ्रष्टाचार अकेला महत्वपूर्ण मुद्दा बच भी जाता तब भी समीकरण उलझे हुए थे। मायावती ने अपने सत्रह मंत्रियों को दागी बताकर मंत्रिमंडल से निकाल दिया हे। पर इससे उनकी पार्टी, और वे स्वयं, बेदाग तो नहीं हो जातीं। इसके साथ ही इन आरोपी राजनेताओं का स्वागत करने वाले राजनीतिक दलों के व्यवहार पर भी गौर करना होगा। इन चुनावों में परिणाम कुछ भी हों, यह सवाल अपनी जगह बरकरार है कि शुचिता हमारी राजनीति का एक आधार क्यों नहीं बन सकती? राजनीतिक स्वार्थ राष्ट्रीय हिंतों पर कबतक हावी रहेंगे? जातिवादी राजनीति से कब मुक्त होंगे हम? घन-बल और बाहुबल तक हमारी राजनीति को प्रभावित करते रहेंगे? इन सवालों का जवाब देने की आवश्यकता कोई अनुभव नहीं कर रहा। यह हमारी राजनीति की एक त्रासदी है। आसान नहीं है इससे उबरना, लेकिन जरुरी है कि उनसे भी कोशिश लगातार होती रहे। और यह कोशिश सिर्फ जागरुक मतदाता ही कर सकता है।

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