उत्तर प्रदेश में जातिगत समीकरण ही अहम


आजादी के बाद देश का सबसे बड़ा प्रदेश होने के नाते, लोकसभा में 80 और राज्यसभा में 39 सांसद उत्तर प्रदेश से जाते रहे हैं, और हमेशा उसकी खनक केन्द्र की सत्ता में दिखी है। देश को सबसे ज्यादा प्रधानमंत्री इसी राज्य ने दिये हैं।

पिछले बीस साल में जब देश में आर्थिक सुधार की गंगा बही, दुनिया के नक्शे पर भारत को एक नए सुपर पावर के रूप में देखा जा रहा है। मंदी के दौर में भारत के आर्थिक प्रयोगों को पूरी दुनिया सराह रही है। देश में विकास अपनी रफ्तार पर है। दक्षिण के राज्य विकास में काफी आगे निकल गये हैं। गुजरात और महाराष्ट्र तो हमेशा से आगे रहे हैं। पंजाब, हरियाणा और हिमाचल से यूपी की कभी कोई तुलना रही ही नहीं। पिछले दिनों मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ भी विकास के नाते चर्चा में रहे हैं। बिहार तरक्की की नई लकीरें खींच रहा है। वहीं उत्तर प्रदेश विकास के मुद्दे पर कहीं नहीं है।

जाति और धर्म की राजनीति ने पूरे उत्तर प्रदेश को इस कदर मथ दिया कि विकास पीछे रह गया। इस प्रदेश में एक कहावत है कि लोग अपना वोट नेता को नहीं जाति को देते हैं। जाति के इसी समीकरण को अपने-अपने पक्ष में करने के लिए तमाम राजनीतिक दल तरह-तरह के खेल करने में लगे हैं। जिस पार्टी को 30 फीसदी वोट मिलेगा जीत उसी की होगी। सूबे में अगड़ी जाति के 16 फीसदी वोट बैंक हैं। इनमें 8 फीसदी ब्राह्मण, 5 फीसदी ठाकुर और 3 फीसदी बनिया हैं। पिछड़ी जातियों का वोट बैंक 35 फीसदी है। इसमें यादव 13 फीसदी, कुर्मी 12 फीसदी और अन्य 10 फीसदी हैं। इसके अलावा दलित 25 फीसदी, मुस्लिम 19 फीसदी, जाट 5 फीसदी और अन्य 1 फीसदी हैं।

बसपा को पूर्व की भांति ही ‘सर्वजन हिताय’ के फार्मूले पर पूरा भरोसा है। किंतु उसे अपनी गोंठ के वोट सहेजे रखने की चिंता अधिक है। मायावती ने चुनाव से पहले गुंडों की छाति पर चढ़ने की बात कही थी, लेकिन बसपा सरकार के खाने के दांत और दिखाने के दांत और निकले। बसपा सरकार के कार्यकाल में भ्रष्टाचार के अनेकों गंभीर आरोप लगे। ताज कारीडोर, नोएडा भूमि अधिग्रहण मामले में सुप्रीम कोर्ट ने सरकार और बिल्डरों की मिलीभगत करार देते हुए किसानों की भूमि वापस करने का ऐतिहासिक फैसला दिया। प्रदेश में कानून और व्यवस्था के बदतर होते हालात ने सरकार की साख पर बट्टा लगाया। लगातार तीन सी.एम.ओ. की हत्याओं ने पूरे प्रदेश में जंगल राज जैसा माहौल उत्पन्न कर दिया है। लोकायुक्त द्वारा आरोपित माया सरकार के मंत्रियों की सूची मायावती सरकार के सुशासन के नारे की हवा निकाल दी है।

उत्तर प्रदेश का राजनीतिक परिदृश्य फीरोजाबाद लोकसभा सीट के लिए हुए उपचुनाव के साथ अजीब तरीके से बदल गया, जब फीरोजाबाद जैसी सीट पर मुलायम सिंह यादव की पुत्रवधु चुनाव हार गयीं। पिछले विधान सभा चुनाव में महज साढ़े आठ फीसदी वोटों और 22 सीटों के साथ चौथे स्थान पर रही कांग्रेस की उम्मीदें वर्ष 2009 में हुए लोकसभा चुनाव में 16 फीसदी से अधिक वोट पाकर 80 में से 22 लोकसभा सीटों पर मिली जीत से एकाएक कांग्रेस जवान हो उठी। उसे वर्ष 2012 का मिशन पूरा होते दिखने लगा है। राहुल, रीता बहुगुणा जोशी और दिग्विजय की तिकड़ी यूपी के ‘मिशन इंपॉसिबल’ की ‘पॉसिबल’ मानने लगी है। भट्टा और पारसोल में राहुल गांधी के नाटकीय अंदाज मीडिया के लिए बहुत ही अच्छे विजुवल का मौका था।
किन्तु कभी कांग्रेस का गढ़ रहे उत्तर प्रदेश में उनके वनवास की अवधि खत्म नहीं हो रही है। साल भर पहले तक जो कांग्रेस मजबूत स्थिति में लग रही थी, वही पार्टी अब ‘बैक फुट’पर चली गयी है। कांग्रेस के युवराज तो जैसे चौपाल लगाना भूल ही गये हैं। जिस राहुल के सहारे कांग्रेस इतना बड़ा दांव खेलना चाहती है उसकी योग्यता पर कुछ कांग्रेसियों को पूरा भरोसा ही नहीं है।

खुद को बसपा का विकल्प बताने वाली समाजवादी पार्टी की नज़र भी लक्ष्य की तरफ लगी है। लेकिन दमदार नेताओं की कमी आड़े आ रही है। एम.वाई. (मुस्लिम/ यादव) गठजोड़ को मजबूत करने के लिए सपा, अपने सभी टोटके अपना रही है। लेकिन दुर्भाग्य यह है कि आज की तारीख में मुलायम के पास आजम खां के अलावा ऐसा कोई भी मुस्लिम नेता नहीं है जिसके पीछे मुसलमान खड़ा हो सके। कई कद्दावर नेता पार्टी छोडकर जा चुके हैं। एकमात्र मुलायम के सहारे सपा को अपना बेड़ा पार करना होगा।

भाजपा की इस समय दसों उंगलियां घी में हैं। उमा भारती और संजय जोशी आदि नेताओं की वापसी उत्तर प्रदेश में रंग दिखाने लगी है। भाजपा के पास तो मुद्दों का पूरा पिटारा है। वह केंद्र और प्रदेश दोनों सरकारों को निशाने पर लिए है। केंद्र सरकार को सपा और बसपा दोनों का ही समर्थन मिलना भाजपा के लिए फायदे का सौदा साबित हो रहा है। सम्मेलनों, यात्राओं और गांव-गांव भ्रमण ने कार्यकर्ताओं में नया जोश भर दिया है।
जैसे-जैसे विधान सभा चुनाव नजदीक आ रहे हैं वैसे-वैसे सभी राजनीतिक दलों के दिल की धड़कनें तेज होती दिख रही हैं। विधान सभा चुनाव के पहले सभी समीकरण इतनी तेजी से बदल रहे हैं, कि किसी भी राजनीतिक समीक्षक के लिए नतीजे के बारे में इशारा कर पाना भी असंभव है। जहां बड़े राजनीतिक दलों में खलबली मची है। वहीं छोटे दल भी पीछे नहीं हैं। इन छोटे दलों ने मिलकर ‘इत्तेहाद फ्रंट’ नामक पार्टी का गठन किया है, जो जातीय समीकरण बिगाड़ने में सक्षम है।

कांग्रेस का पूरा प्रयास है कि उत्तर प्रदेश का चुनाव भ्रष्टाचार या मंहगाई के मुद्दे की जगह विकास के मुद्दे पर लड़ा जाए। लेकिन भाजपा उसके इस सपने को पलीता लगाए हुए है। वह लगातार भ्रष्टाचार और मंहगाई को हवा दे रही है। लोकपाल विधेयक पर संसद में हुई कांग्रेस सरकार की किरकिरी सभी ने देखी है। अजित सिंह को जोड़कर किसान को केंद्र में रख कर राजनीतिक अभियान चलाने का दिग्विजय सिंह का कार्यक्रम राहुल गांधी को व्यस्त रखने से ज्यादा कुछ नहीं है। यूपी का चुनाव राहुल गांधी के नेतृत्व, क्षमता, राजनीतिक परिपक्वता और संगठन पर उनके दबदबे का इम्तिहान भी होगा। ओबीसी कोटे में अल्पसंख्यक तबके को 4.5 फीसदी आरक्षण देने का फरमान कांग्रेस के खोए जनाधार को पाने की छटपटाहट और राहुल गांधी की जीत को किसी भी तरह सुुनिश्चित करने का प्रयास है।

बसपा अपनी चूले कसने में लगी है। अपने पसंदीदा अफसरों की महत्वपूर्ण पदों पर तैनाती और दागियों को बाहर का रास्ता दिखाए जाने की मुहिम इसी का हिस्सा हैं। पूर्वांचल, हरित प्रदेश और बुंदेलखंड अलग राज्य बनाए जाने की वकालत करके मायावती अपना आधार बढ़ाना चाहती है। अगर मायावती को अलग कर के बसपा में देखा जाए तो कोई भी चेहरा नहीं जो वोटरों को ल्ुभाए यानि कुल मिलाकर बसपा अपनी सुप्रीमो मायावती और बसपा के परम्परागत वोट पर निर्भर है।

अमर सिंह के दूर चले जाने के बाद बालीवुड का तड़का भी सपा की चुनाव रैलियों में नहीं लग पाएगा। इस बार चुनावी रणभूमि में सपा के सारथी के रूप में सपा प्रमुख मुलायम सिंह यादव के सांसद बेटे अखिलेश यादव हैं जो इन दिनों क्रांतिरथ के सहारे सत्ता की दूरी नाप रहे हैं। सत्ता पाने के लिए सपा कांग्रेस से हाथ मिलाने से जरा भी परहेज नहीं करेगी। यही वजह है कि सपा जनता को मंहगाई और भ्रष्टाचार के बारे में जागरण करने के बजाय जातीय समीकरण का ज्यादा ध्यान रखना चाहती है।

बाबू सिंह कुशवाह को लेकर भाजपा को बहुत झेलना पड़ा। अगर जातिगत समीकरण की बात करें तो अगड़ी जाति के 10 फीसदी, कुर्मी जाति के 10 फीसदी और ओबीसी के सात फीसदी वोट भाजपा को मिल सकते हैं। महंगाई और भ्रष्टाचार के मामले पर कांग्रेस को चोट खानी पड़ सकती हैं, और इसका भी लाभ भाजपा को मिल सकता है।

यह विधान सभा चुनाव राजनीतिक पार्टियों के प्रदेश अध्यक्षों की राजनैतिक कुशलता का भी इम्तिहान होगा। इन सबके बीच अब की बार प्रदेश में वंशवाद की राजनीति भी प्रमुख आकर्षण का केंद्र होगी।

प्रदेश में विभिन्न राजनीतिक दल अंदरुनी तौर पर भले ही अपने ही पार्टी के नेताओं की आपसी गुटबाजी, टांग सिंचाई, आरामतलबी, दागी और दबंग नेताओं की कारगुजारियों जैसी तमाम समस्याओं से जूझ रहे हैं, लेकिन सत्ता की दावेदारी के मुद्दे की कमी किसी के पास नहीं है। बस फर्क इतना है, मुद्दे सभी के अलग-अलग हैं। गंगा और गोमती के पानी के प्रवाह की तरह राजनीति का मिजाज निरंतर परिवर्तनशील है और अब तो वक्त ही बताएगा की प्रदेश की जनता समय आने पर इन राजनीतिक दलों के तर्कों, दावों और नारों का क्या भाव लगाती है।

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