छत्रपति शिवाजी महाराज द्वारा स्वराज्य की स्थापना से पूर्व महाराष्ट्र पर लगभग साढ़े तीन सौ वर्षों तक अत्याचारी शासकों का आधिपत्य रहा। उनके पिता शहाजीराजे को बीजापुर के आदिलशाह ने कर्नाटक भेज दिया था, किन्तु उन्हें अपनी पुणे और मावल जागीर की चिन्ता सदैव बनी रहती थी। जागीर सम्हालने के लिए उन्होंने अपनी पत्नी जीजाबाई और पुत्र शिवाजी को पुणे भेज दिया। उनकी देख-रेख के लिए दादोजी कोंडदेव जी को दीवान बनाकर शिवाजी के साथ में भेजा। उजाड़ हो चुकी पुणे की जागीर को फिर से बताया गया। जागीर की देखभाल लाल महाल नामक हवेली में रहकर बालक शिवाजी करने लगे। काजी को छुट्टी दे दी गयी और शासन व्यवस्था से लेकर राजस्व वसूली और न्याय व्यवस्था सहित अन्य सारा कार्य उन्होंने सम्हाल लिया। सुरक्षा व्यवस्था तथा उत्पातियों पर नियंत्रण रखने के लिए छोटी सी सैन्य टुकड़ी तैयार की गयी। शिवाजी महाराज की उम्र के साथियों को भी शासन के गुण सिखाये जाने लगे थे। न्याय व्यवस्था तथा राजनीति की शिक्षा दी जाने लगी थी।
समान न्याय व्यवस्था
शिवाजी महाराज की न्याय व्यवस्था में छोटे-बड़े जागीरदार और किसान, स्त्री और पुरुष सभी एक ही तुला पर रखे जाते थे। एक बार पुणे जागीर के रांझे गांव के पाटील बाबाजी भिकाजी गुजर ने एक महिला के साथ दुराचार किया। सूचना मिलते ही शिवाजी महाराज ने उन्हें गिरफ्तार करके लाल महल में हाजिर करने का आदेश दिया। सुनवाई हुई। अपराध सिद्ध हो गया। बाबाजी पाटील के कोंहनी तक दोनों हाथ तथा घुटने तक दोनों पैर काट डालने की सजा दी गयी और जागीर जब्त कर ली गयी। इस न्याय से प्रजा में शिवाजी महाराज के प्रति विश्वास जाग्रत हुआ। उस समय उनकी आयु केवल पन्द्रह वर्ष की थी।
उत्रवली के खोपड़े देशमुख ने स्वराज्य से गद्दारी की और अफजल खान से जा मिले। बुजुर्ग और प्रतिष्ठित सरदार कान्होजी जेधे के अनुरोध पर उसे जीवित तो छोड़ दिया किन्तु उसका दाहिना हाथ और बायां पैर काट डालने का आदेश देकर यह संदेश दिया कि कोई कितना भी बड़ा व्यक्ति हो और किसी की भी सिफारिश लेकर आये, किन्तु गलती का दण्ड अवश्य मिलेगा।
वर्तमान समय में देश में ऐसी ही शासन व्यवस्था की आवश्यकता है। क्योंकि गम्भीर अपराध करके भी ऊंची पहुंचवाले लोग बच निकलते है। राष्ट्रद्रोह का दण्ड पाने वाले राष्ट्रपति महोदय से क्षमादान पाकर सांसद चुने जाते हैं और मृत्युदण्ड पाकर भी अफजल गुरु सरकारी मेहमान की तरह सुरक्षित रखा जाता है। अनेक मंत्रियों के बच्चे जघन्य अपराध करने से भी नहीं डरते, क्योंकि कानून उनका बाल भी बाका नही कर पाता।
उदारता में बेजोड़
आज जबकि जाति-पांत में पूरा समाज बिखरा हुआ है। धर्मान्तरण तेजी से पैर फैला रहा है। एक बार दूसरे धर्म को अंगीकार करते ही वह व्यक्ति त्याज्य हो जाता है। शिवाजी महाराज के एक पुराने सेनापति नेतोजी पालकर मजबूरी में मुगलों के साथ चले गये। औरंगजेब ने धर्मान्तरण करके उनका नाम मुहम्मद कुली खान रख दिया। नौ बरसों के पश्चात औरंगजेब ने उन्हें दिलेर खान के साथ दक्खन की ओर भेजा। अवसर मिलते ही कुलीखान (नेताजी पालकर) छावनी से निकल गये और सीधे शिवाजी महाराज के पास रायगढ़ पहुंचे। शिवाजी महाराज ने बड़ी उदारता से उन्हें अपनाया और विधिपूर्वक प्रायश्चित के साथ हिन्दू धर्म में शामिल किया। धर्मान्तरण का सर्वप्रथम प्रमाण इसी घटना के रूप में मिलता है। आज देश भर में जिस तरह से बहका-फुसलाकर वनवासियों तथा दलित व पिछड़ों को धर्मान्तरित किया जा रहा है, वह चिन्ता का विषय है। शिवाजी महाराज की नीति के अनुरूप ही ऐसे लोगों को पुन: अपने धर्म और समाज में वापस लाने का सतत् प्रयत्न होना चाहिए।
अन्धश्रद्धा निर्मूलन
छत्रपति शिवाजी महाराज का ईश्वर और आदि शक्ति जगदम्बा मां पर अटूट विश्वास था। समर्थगुरु रामदास तो उनके मार्गदर्शक ही थे। राज्य में साधु-सन्तों का बड़ा सम्मान किया जाता था। मन्दिरों की पूर्ण सुरक्षा रखी जाती थी। इतने पर भी अन्धविश्वास के लिए जगह नहीं थी। उनकी दूसरी पत्नी सोयराबाई साहेब को 24 फरवरी, 1670 को पुत्र रत्न प्राप्त हुआ। महाराज को सूचना देने वाले ने बताया कि राजपुत्र औंधे मुंह जन्मे है। उस समय यह अपशकुन माना जाता था। राजपुत्र के औंधे मुंह जन्मने की खबर पर उन्होंने बड़े उत्साह के साथ कहा, ‘‘दिल्ली की बादशाही को पलट देगा।’’ उनके इस कथन के साथ ही रायगढ़ पर उत्साह का वातावरण बन गया और सबके चेहरे पर हंसी हा गयी। आज अनेक सामाजिक कार्यकर्ता और अन्धश्रद्धा निर्मूलन करने वाले संगठन है, जो वषो से कार्य करने के बावजूद समाज मे लोकप्रिय नहीं हो पाये हैं। क्योंकि वे सिर्फ कमियां गिनाते हैं। ऐसे लोगों और संगठनों को शिवाजी महाराज के विचारों से सीखना चाहिए और सकारात्मक आचरण करना चाहिए।
सेना को व्यावहारिक निर्देश- स्वराज की सेना में सरदार, जागीरदार और अनेक वीर लडाके थे। उनकी-अपनी नियमित सेनायें थी। साथ ही किसान, शिल्पकार और इतर कार्य करने वालों की भी सेना रहती थी, जो आवश्यकता पडने पर सैन्य अभियानों में शामिल होते थे। नियमित सेना वेतनभोगी थी, जबकि नैमित्तिक सेना को गुजारे के जायदाद दी जाती थी। बरसात के मौसम में केवल नियमित सेना ही छावनी में रहती थी। अन्य लोग खेती करने अपने गाँव चले जाते थे। छावनी में रहने वाले सैनिकों को शिवाजी महाराज ने पत्र लिखकर उन्हें बताया कि क्या करना चाहिए और क्या करने से बचना चाहिए। ऐसा ही एक पत्र उन्होंने 1 मई 1674 ई. को अपने सैनिकों के नाम लिखा था। उसमें उन्होंने बरसात के मौसम में अनाज की व्यवस्था, शिबिर निर्माण, घोडे, हाथी, ऊँट, खच्चर के चारे की व्यवस्था, जलावनी लकडी की व्यवस्था पहले ही करने का सुझाव दिया था। उन्होंने पात्र में साफ-साफ निर्देश दिया था कि किसी भी चीज की कमीं होने पर जनता के बीच में जाकर किसी प्रकार की जबरदस्ती न होने पाये। जनता की वस्तुओं को लेने पर पूरा मूल्य भुगतान किया जाये। उन्होंने अपने सैनिकों को सुरक्षा के प्रति सतर्क रहने का सुझाव दिया था। आग से सावधान रहने की सलाह दी थी, अन्य था चारा, अनाज लकडी, तम्बू सब कुछ जल जाने का खतरा बना रहेगा। उन्होंने ये सारे दिशा निर्देश इसलिए दिए थे, क्योंकि उनके पूर्व मुगलसेना, आदिलशाही सेना और निजाम सेना युद्ध न होने हुए भी जनता की लूट-खसोट करते रहते थे। जनता के मन में सेना के प्रति घृणा का भाव था। शिवाजी महाराज का यत्न था कि सेना जनता का दिल अपने बर्ताव से जीते, तभी वह सैन्य अभियान के समय जनता का समर्थन प्राप्त कर सकती है।
वर्तमान समय में सैन्य, अर्धसैन्य और सुरक्षा बलों के लिए शिवाजी महाराज के वे पत्र बहुत उपयोगी हैं। आज पुलिस के प्रति जनता के मन में सहयोग की भावना नहीं मिलती। कानूनी झंझट से बचने के लिए जनता पुलिस में घटना की प्राथमिकी दर्ज कराने भी नहीं जाती।
आर्थिक व्यवहार पर सूक्ष्म नजर- शिवाजी महाराज यह भली-भाँति जानते थे कि किसी भी राज्य की खुशहाली के लिए सुदृढ आर्थिक स्थिति आवश्यक है। इसीलिए उन्होंने सूरत अभियान, राजापुर अभियान किया था और पर्याप्त धन इकट्ठा किया था। वे घूंसखोरी, सिफारिश, शत्रु से दलाली के सम्बन्ध, राज्य धन को उपहार के रूप में देने, शासन के पद पर रहकर उपहार लेने, हिसाब में हेर-फेर करने वालों से सख्ती से निपटते थे। सैन्य अभियान के समय सेना को निर्देश होता था कि जीत का पूरा माल राजकोष में जमा होना चाहिए। शासन द्वारा सबको उचित पुरस्कार दिया जाएगा। उनके निर्देश का सभी पालन करते थे।
आज कल समाज में सबसे ज्यादा भ्रष्ट आचरण आर्थिक मामलों में ही व्याप्त है। देश व जनता के पैसे की लूट, सरकारी खजाने की लूट, करोड़ो-अरबों रुपये के घोटाले सामान्य बात हो गयी। अब आर्थिक दुराचरण को अपराध की श्रेणी में ही सामाजिक स्तर पर नहीं गिना जाता। हमें शिवाजी महाराज की नीति का अनुसरण करने की आज नितान्त आवश्यकता है।
सर्वधर्म समभाव- शिवाजी महाराज की अपनी कुलदेवी तुलजाभवानी, गुरु समर्थगुरु रामदास पर अटूट आस्था थी। वे साधु-सन्तों आध्यात्मिक पुरुषों का बड़ा सम्मान करते थे। साथ ही वे अन्य मतावलम्बियों और उनके पूजा स्थलों के प्रति भी आदरभाव रखते थे। सैन्य अभियान के दौरान उनका निर्देश होता था कि अन्य धर्म के पूजास्थल-गिरजाघर, मस्जिद, गुरुद्वारा, पैगोडा इत्यादि को किसी तरह की क्षति नहीं पहुंचनी चाहिए।
शिवाजी महाराज के समय में सामाजिक जीवन बहुत नैतिक था, किन्तु मुगलों, तुर्कों, अंग्रेजों, पुर्तगालियों के कारण वातावरण विषाक्त होता जा रहा था। किन्तु शिवाजी महाराज के मन में किसी प्रकार का विद्वेष नहीं था। उनकी नीतियों की आज के समय में नितान्त आवश्यकता है।