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कालातीत तत्वज्ञानी आधुनिक ॠषि विनोबा भावे 

कालातीत तत्वज्ञानी आधुनिक ॠषि विनोबा भावे 

by अमोल पेडणेकर
in विशेष
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महाराष्‍ट्र की संस्कृति का, साहित्य का प्रवाह निरंतर बहते हुए हम देख रहे हैं। विशिष्ट चरण पर आकर स्थिर हुए समाज जीवन को महाराष्ट्र के संत साहित्य ने विभिन्न राजनीतिक, सामाजिक, सांस्कृतिक मोड़ देने में सहायता की है। बारहवीं सदी से सोलहवीं सदी तक लगभग चार सौ वर्षों की अवधि में अनेक संतों की मालिका ही महाराष्ट्र में निर्माण हुई। उन्नीसवीं सदी में विनोबा भावे, संत गाडगे महाराज, संत तुकडोजी महाराज जैसे महान व्यक्तित्वों के आध्यात्‍मिक, सामाजिक विचार भारत के जनमन में बसते चले गए। बीसवीं सदी के पूर्वार्ध में दो महान ग्रंथ प्रस्तुत हुए। १९१४ में लोकमान्य तिलक ने गीतारहस्य प्रकाशित किया। स्‍वतंत्रता संघर्ष के अनुकूल गीता का आविष्कार लोगों के समक्ष प्रस्तुत हुआ। युवावस्था से अखंड अनुसंधान और सामाजिक कार्य के गहरे अनुभव के चिंतन से गीता-रहस्य जैसा ग्रंथ निर्माण हुआ। इस ग्रंथ को लोकमान्य तिलक ने गीता-रहस्य अर्थात कर्मयोग शास्त्र का नाम दिया। यह ग्रंथ हिंदुओं के जीवन विषयक, नीति विषयक व धर्म विषयक तत्वज्ञान का दर्शन कराता है। जीवन की समस्याओं का सामना करने के लिए गीता-रहस्य में तात्विक आधार मिलता है लेकिन मनुष्य की तात्विक भूख पूर्ण होने के बाद उसे आत्मिक भूख पूर्ण करने की उतनी ही आवश्यकता महसूस होती है। केवल तात्विक आधार से मनुष्य को संतोष नहीं मिलता। उसे आत्मीय आधार की आवश्यकता महसूस होती है। समाज की यह निरंतर आवश्यकता है। अलौकिक भारतीय तत्वज्ञान की ज्ञानेश्वरी की अनुभूति ज्ञानदेव ने दी। उसी का बीसवीं सदी में आविष्कार याने विनोबा की गीताई है। तत्वज्ञान के विराट अंतरंग में अत्यंत ममता के साथ ले जाने वाली गीताई। अपने छोटे बच्चों के साथ मां का जिस तरह का संवाद होता है उतनी ही सरलता विनोबाजी की गीताई अनुभव की जा सकती है। लोकमान्य तिलक के गीता-रहस्य के बीस वर्ष बाद विनोबा की गीताई लोगों के हाथ आई। जनमानस की बुद्धि को ममता की अनुभूति मिली। तिलक के बाद महात्मा गांधी, विनोबा भावे ने राजनीतिक, सामाजिक कार्यों के लिए गीता का सहारा लिया। गीता का प्रभावी आविष्‍कार आसपास प्रस्तुत होने से बड़ी मात्रा में जनमानस गीता की ओर आकृष्ट हुआ। इस बात का प्रभाव भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन सर्वदूर फैलाने में बड़े पैमाने पर किया जा सका।

१९१६ में विनोबा भावे की महात्मा गांधी से मुलाकात हुई। विनोबा भावे अपने सामाजिक व आध्यात्मिक जीवन के बारे में कहते हैं कि, बचनपन से ही उन्हें बंगाल व हिमालय का आकर्षण था। बंगाल का ‘वंदे मातरम्‌’ व हिमालय का ‘ज्ञान योग’ उन्हें आकर्षित कर रहा था। बीसवें वर्ष की आयु में ही विनोबा के कदम महात्मा गांधी के आश्रम की ओर मुड़े। गांधीजी के सम्पर्क में आने पर उन्हें अनुभव होने लगा कि बंगाल का ‘वंदे मातरम्‌’ व हिमालय का ‘ज्ञान योग’ एक ही स्थान पर उपलब्ध है। गांधीजी के पास हिमालय की शांति व बंगाल की क्रांति की एकत्रित अनुभूति होती है। गांधीजी के विचारों का विनोबाजी पर बहुत बड़ा प्रभाव था। गांधीजी कहते थे कि ईश्वर सत्य है। लेकिन विनोबाजी इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि सत्य ही ईश्वर है और इस सत्य की खोज के लिए उन्होंने अपने सम्पूर्ण जीवन को होम कर दिया। विनोबाजी का यह कथन मर्म को छूने वाला है कि अधिसंख्य धार्मिक सुधारकों ने केवल धार्मिक पोस्टमैन का ही काम किया है। क्योंकि उस काल में चमत्कारों और कर्मकांडों को अनावश्यक महत्व प्राप्त हो गया था। ग्रंथ का, पोथी-पुराणों का पठन करने पर विवाह जमेगा, नौकरी मिलेगी, पुत्र होगा आदि बेवकूफाना कल्पनाएं रूढ़ हो गईं। इससे भारतीय आध्यात्‍मिक तत्वज्ञान में निर्देशित सच्चा कर्मयोग कुचला जा रहा है, यह विनोबा भावे देख रहे थे और इसी से धर्म विषय में चिंतन, साम्य योग की संकल्पना, विज्ञान, धर्म व आध्यात्मिकता का समन्वय जैसे विचार विनोबाजी के मन में निर्माण होने लगे। विनोबा के इसी चिंतन से गीताई, भूदान आंदोलन, महात्मा गांधी का तत्वज्ञान, पवनार आश्रम व वैज्ञानिक दृष्टिकोण से भारतीय तत्वज्ञान की प्रस्तुती विनोबा के कार्यों से अवतीर्ण हुई। इस अलौकिक कार्यों के कारण ही भारत के आधुनिक ॠषि के रूप में विनोबाजी को सम्पूर्ण देश जानने लगा।

विनोबा भावे केवल भारत की स्वतंत्रता ही नहीं चाहते थे, बल्कि वे चरित्रवान भारत निर्माण करना चाहते थे। मनुष्य के रोज के सारे व्यवहार सामाजिक होते हैं, यह उनका विश्वास था। गीताई रूढ़िगत धर्मांध नहीं हुई, बल्कि मानवता का तत्वज्ञान साबित हुई क्‍योंकि उनकी यह मूल निर्मिति मानव के लिए है, यह उनके मन में स्पष्ट होने से गीताई लिखने के बाद भी वे कर्मकांड में नहीं उलझे। इसके विपरीत वे भंगी काम, कांचन मुक्‍ति सेवा मंडल, भूदान यात्रा जैसे अनेक क्रांतिकारी प्रयोगों में जुटे रहे। बिल्कुल सीधासाधा विचार करें तब भी उनकी भूदान यात्रा में किसी भी प्रकार का हुडदंग न होते हुए प्रतिदिन तीन सौ एकड़ जमीन उन्हें दान में मिली। विनोबा भावे का यह प्रयोग अलौकिक ही कहना होगा। स्‍वतंत्रता के बाद भूदान जैसे महान प्रयोग के कारण उन्होंने गरीबों को न्याय दिलवाया। इसी तरह समाज में गरीब-अमीर के बीच होने वाले संघर्ष को कम करने में बड़ा योगदान दिया।

भगवद्‌ गीता का सीधा सरल विवरण जानना हो तो विनोबाजी के गीता प्रवचन नामक एक और ग्रंथ को पढ़ना चाहिए। इस ग्रंथ को लिखने की पृष्ठभूमि बड़ी मनोरंजक है। १९३२ में धुले के कारागर में विनोबा के साथ अनेक देशभक्त, विचारक, प्रतिभावान भी स्‍वतंत्रता संघर्ष में भाग लेने के कारण सजा भोग रहे थे। विनोबा गीता पर प्रवचन दें यह सत्याग्रहियों का आग्रह था। इसके लिए जेल प्रमुख की अनुमति ली गई और २१ फरवरी से १९ जून १९३२ तक हर रविवार को एक इस तरह १८ प्रवचन हुए। ये प्रवचन अत्यंत सारर्भित, विद्वत्तापूर्ण व धाराप्रवाह थे। बाद में ये प्रवचन ‘गीता तत्वज्ञान’ शीर्षक से प्रकाशित हुए। विनोबा भावे ने ‘मधुकर’ नामक पत्रिका शुरू कर लोकशिक्षण का कार्य किया। मधुकर के लेखों में उनके चिंतन का आधार भारतीय तत्वज्ञान के अनुरूप भगवद्‌ गीता ही था। विनोबाजी की गीताई व गीता प्रवचन समाज नीति के अनुकूल साबित हुए। विनोबाजी की धर्म संकल्पना व्यापक थी। मनुष्य में विषमता दूर कर जाति, भाषा, प्रदेश, शिक्षा, लिंग, वर्ण आदि की सीमाएं लांघने वाले विश्व धर्म की अपेक्षा विनोबाजी को थी। विनोबाजी हमेशा कहते थे, ‘पुराने जमाने के मूल्य आज जस के तस उपयोगी नहीं होते। आज नए मूल्य निर्माण होंगे। उससे डरने का कोई कारण नहीं है। इस तरह युगानुकूल नया स्वरूप विनोबाजी ने स्पष्ट किया।

११ सितम्बर १८९५ को उनका जन्म महाराष्ट्र के कुलाबा जिले में हुआ। उनकी मां भक्ति मार्ग पर चलने वाली थी। गीता वह मन से पढ़ना चाहती थी। लेकिन गीता संस्कृत में होने से उसे समझ में नहीं आ रही थी। विनोबा से पूछने पर उन्होंने मां को मराठी में अनुवादित गीता लाकर दी। लेकिन उन गीतों की रचना अत्यंत क्लिष्ट होने से मां को गीता समझ में ही नहीं आई। तब मां ने छोटे विनोबा से कहा कि, यह गीता पढ़कर मैं क्या करूं? मुझे समझ में आए इस तरह सरल भाषा में तू ही गीता क्यों नहीं लिखता? मां के इस प्रश्न के कारण नियति ने उनसे गीताई लिखवा ली। गीता प्रवचन के रूप में महाराष्ट्र को एक अद्‌भुत ग्रंथ मिला।

यह वर्ष विनोबाजी की शतकोत्तर रजत जयंती का वर्ष है। विनोबाजी के सामाजिक-राजनीतिक जीवन में कार्य को भुलाया नहीं जा सकता। राजनीति में जरूरी व पूरक नैतिकता का उन्होंने समर्थन किया। विनोबा भावे की भूमिका जिस तरह आध्यात्मिक संत की थी वैसी एक वैज्ञानिक की भी थी। विज्ञान के बारे में उनके विचार स्पष्ट है। वे कहते हैं विज्ञान व तत्वज्ञान दोनों में एक समान सत्य है। दोनों उसी सत्य की खोज में जुटे होते हैं। विनोबा ने १९१६ में महात्मा गांधी से मुलाकात की। गांधीजी पहली ही मुलाकात में जान गए कि इस युवक का आध्यात्मिक चिंतन गहरा है और मनुष्य को जोड़ने में वह माहिर है। बाद में दोनों के बीच अनेक वर्ष संवाद होता रहा। महात्मा गांधी व विनोबा भावे दोनों को गीता हृदय से प्रिय थी। गीता के सिद्धांतों के गहन और गूढ़ अरण्य में दोनों ने केवल बौद्धिक सफर ही नहीं किया बल्कि आध्यात्मिक अनुभूति अपने आचरण में लाने के लिए विभिन्न प्रयोग किए। दोनों स्पष्ट रूप से जान गए कि गीता आचरण शास्त्र है याने कर्म योग है। गांधीजी ने सत्याग्रह के लिए गीता का उपयोग किया, तो विनोबा भावे ने गीता का नित्य नूतन तत्वज्ञान मधुर मराठी भाषा में सामान्य जनता की अंजुलि में भर दिया। बाद में इसका विभिन्न भाषाओं में अनुवाद होकर देश के आम जनों तक गीता का तत्वज्ञान अत्यंत सरल भाषा में पहुंचा। अत्यंत सामान्य व्यक्ति के रूप में जन्में इन दोनों ने इसी जन्म में साधना व सत्यनिष्ठा का निरंतर अवलंब कर महानता प्राप्त की। दोनो का जीवन एक दूसरे के साथ समरस हो गया था। दोनों के तत्वज्ञान और जीवन परम्परा का विचार करते समय दोनों को पृथक करना बहुत मुश्किल है। एक बार एक व्यक्‍ति ने विनोबा भावे से सहज पूछा कि ‘गांधीजी को ‘गांधी’ कहें या ‘गांधीजी’? विनोबा ने उन्हें जवाब दिया यदि आप केवल एक व्यक्ति मानते हो तो ‘गांधीजी’ कहें, लेकिन आप उन्हें एक विचार के रूप में देखते हैं तो उन्हें ‘गांधी’ कहें। गांधी मेरे लिए एक व्यक्ति नहीं, एक विचार है।

आज वर्तमान में धर्मनीति, राजनीति व समाजनीति ये तीनों क्षेत्र एक दूसरे पर वर्चस्व स्थापित करने लगी हैं। मानवी मूल्यों की अनदेखी, शोषण, भ्रष्टाचार, साजिशें व आर्थिक बेईमानी के भीषण रूप पिछले दो दशकों से अनुभव किए जा रहे हैं। एक दूसरे पर निर्भर होने से धर्म और राजनीति अधिक उलझते जा रहे हैं। भौतिक व वैज्ञानिक प्रगति के बावजूद मनुष्य समूह सुखी नहीं है। कोरोना संकट में यह बात सबकी समझ में आ गई है। विनोबा का साहित्य और उनके अध्यात्म व ईश्वर सम्‍बंधी विचार कालातीत हैं। काल की सीमाएं विनोबा साहित्य व विचार को कभी नहीं रही। इसलिए विनोबाजी के शतकोत्तर जन्मशताब्‍दी रजत महोत्सव वर्ष के अवसर पर उनके शाश्वत विचार व आज समाज की वास्तविकता का तुलनात्मक विहंगावलोकन करने का प्रयत्न किया जाना चाहिए, ऐसा लगता है।

 

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Comments 1

  1. Jwalant Chhaya says:
    5 years ago

    Very nice…you have given great tribute to a real saint.

    Reply

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