लोककला को महाराष्ट्र में मूल्यवान वैभव की तरह सम्हाल करके रखा गया है। यहां इन कलाओं का उद्भव ग्रामीण-लोकरंजन और ज्ञानोपदेश के लिए हुआ। यद्यपि कुछ लोक कलाएं धार्मिक व आध्यात्मिक आस्था से भी जुड़ी हैं। जिस समय आर्थिक व शैक्षणिक दृष्टि से दुर्बल समाज को शिक्षा के अवसर नहीं प्राप्त थे, तब इन लोक कलाओं के माध्यम से उन्हें ज्ञान प्रदान किया जाता था। महाराष्ट्र को एक सूत्र में जोड़े रखने का काम भी इन लोक कलाओं ने किया है। इसलिए ज्ञान से लेकर मनोरंजन तक यहां की सप्तरंगी व सप्तसुरों की लोक कला का महत्व बना हुआ है।
भारत वर्ष के विभिन्न प्रान्तों में अनेक प्रकार के लोकनाट्य, जैसे-उत्तर प्रदेेश में स्वांग या नौटंकी, गुजरात में भवाई, बंगाल व बिहार में जात्रा, गम्भीर इत्यादि प्रचलित हैं। दक्षिण भारत में यक्षगान, विधिनाटक, कामन् कोटू इसी कोटि के हैं। महाराष्ट्र में इसी तरह परम्परागत लोकनाट्य भारूड, दशावतार और तमाशा प्रसिद्ध है।
महाराष्ट्र सन्तों, महात्माओं, महर्षियों, वीरों, वीरांगनाओं और साहित्य-कला पारखियों का प्रदेश है। यहां की ग्रामीण, अज्ञानी, अन्धश्रद्धालु, निर्धन व रुग्ण समाज को आगे लाने के लिए समाज सुधारकों के साथ ही कलाकारों, कवियों, संगीतकारों ने बड़ा परिश्रम किया है। उन्होंने अपनी कला के माध्यम से मनोरंजन, प्रबोधन, सजगता, देशभक्ति, राष्ट्रीय एकत्मकता बढ़ाकर समाज को एक नयी दिशा दिखायी।
‘तमाशा’ मूलत: अरबी भाषा का शब्द है, जिसका अर्थ है आनन्द, लुत्फ, नाटक आदि का खेल या स्वांग। इस तरह से तमाशा मनोरंजन हेतु किया जानेवाला नाटक है। महाराष्ट्र में इसका जन्म व उत्कर्ष पेशवा काल के पहले हुआ। ग्रामीण क्षेत्र के पिछड़े क्षेत्र में तमाशा ही मनोरंजन, सांत्वना और प्रबोधन का माध्यम था। इसमें किसी प्रकार के जाति, धर्म, पंथ, सम्प्रदाय का बन्धन नहीं था। आज भी महाराष्ट्र में पचास से अधिक संगीत पार्टियों के थिएटर, कला केन्द्र व रंगमंच हैं। यद्यपि पहले शहरी व पढ़े-लिखे समाज द्वारा तमाशा को अस्पृश्य मानकर, उसकी उपेक्षा की गयी, किन्तु अब वही वर्ग सिनेमा की तरह रंगमंच की ‘लावणी’ का आनन्द ले रहा है। यही नहीं आज लावणी अमेरिका, यूरोप, ऑस्ट्रेलिया में सम्मान पा रही है।
खेतिहर व श्रमनिष्ठ पुरुषों का रंगीला अन्दाज तमाशा में ही देखने को मिलता है। पेशवाकाल में युद्ध भूमि से थके-मांदे लौटे सैनिकों के मनोरंजन का यह प्रमुख साधन था। आनन्द के भावातिरेक में झूमना, रंग-बिरंगे साफाओं का हिलता-डुलता सागर, सीटियों की सनसनाहट, अत्यन्त प्रसन्नता में हवा में उछाला गया साफा तमाशा देखने के दौरान ही दृष्टिगोचर होता है। मराठी मन जिस तरह से अध्यात्म को अपने जीवन में महत्व देता है, उसी तरह रंगबाजी और मनोरंजन में भी हृदय के दरवाजे खुला रखता है। दर्शकों को अपने ताल में बांध कर रखने वाली ढ़ोलकी, ढ़ोलकी के ताल पर पैरों में घुंघरू बांधकर थिरकने वाले नर्तक ‘या बसा मंचकी राया’ (आइए सजन मंच पर बैठिए) कहने वाली नर्तकियां मराठियों के मन में डोलती हैं।
तमाशा को प्रस्तुत करने वालों का कहना है कि तमाशा का जन्म ‘विधिनाट्य’ से हुआ। सातवाहन काल में प्रस्तुत किये जाने वाले ‘रतिनाट्य’ की रचना तमाशा से मिलती-जुलती है। स्वतन्त्रता आन्दोलन के समय लोकमान्य तिलक ने तमाशा को जरिया बनाकर अपनी राजनीति का प्रसार किया। वर्ष 1942 के ‘अंग्रजो भारत छोड़ो’ आन्दोलन के समय गांवों में फैले हुए बहुजन समाज में राजनीतिक जागृति का निर्माण करने के लिए तमाशा का खूब उपयोग किया गया।
तमाशा के कुछ अन्य प्रस्तुतकर्ताओं का मानना है कि महाराष्ट्र की लोक कलाओं में पहले से ही प्रचलित गोंधल, मुरकी, पोवाड़ा इत्यादि में से एक-एक गुण लेकर एक अलग लोककला-तमाशा की रचना की गयी। आज तमाशा पूरे महाराष्ट्र में प्रस्तुत किया जाता है। यह ग्रामीण मेलों और होली के समय प्रस्तुत किया जाता है। तमाशा के कलाकारों के दल को ‘फड़’ कहा जाता है। फड़ का मुखिया ‘नाईक’ कहलाता है। पहले नाईक बहुचर्चित, आशुकवि, श्रेष्ठ सम्पादक व लेखक होते थे। ‘ढ़ोलकी’ (ढ़ोलक से थोड़ा भिन्न चर्मवाद्य) तथा ‘हलगी’ बजाने में भी वे माहिर होते थे।
तमाशा के पात्रों में नायक, नायिका, सोंगाड्या (भांड) प्रमुख होते हैं। नर्तकियों के साथ तीन-चार अन्य नर्तकियां होती हैं, जो नायिका के साथ नाचती है। इनके साथ बाजा बजाने वालों में तुणतणेवाला, हलगीवाला, खंझड़ीवाला, हारमोनियवाला होते हैं। तमाशा प्रस्तुत करने के लिए किसी तरह की विशेष वेश-भूषा या परदा की आवश्यकता नहीं होती है। पीपल के वृक्ष के चतुर्दिक बनाये गये चबूतरे, किसी ऊंची जगह, खुले मैदान में या दर्शकों के घेरे में तमाशा आयोजित किया जा सकता है। उत्तम ग्रामीण भाषा में द्वैअर्थक संवाद बोलते तमाशा के पात्र रसिकजनों को हंसते-हंसते लोट-पोट कर देते हैं।
दर्शकों की रुचि के अनुरूप तमाशा के स्वरूप में निरन्तर बदलाव होता रहता है। समय के साथ तमाशा के अन्त: व बाह्य स्वरूप में बदलाव आए हैं। निरंतर श्रवणीय व दर्शनीय रहने के प्रयास से इस लोकनाट्य का स्वरूप सदैव समाज की अभिरुचि से संवादी रहा है।
तमाशा मुख्यत: दो प्रकार के- ढोलकी का तमाशा और संगीत तमाशा होते हैं। इनके अलावा खानदेशी तमाशा, वायदेशी तमाशा, खड़ी गंमत, कोल्हाटणी का तमाशा भी होते हैं। इन सबकी प्रस्तुति का तरीका व अभिनय शैली अलग-अलग होती है, यद्यपि सबकी रचना एक जैसी होती है। तमाशा का प्रस्तुतिकरण निम्नलिखित प्रकार से होता है-
गण- लोकरंग भूमि में समस्त लोक कलाओं का शुभारम्भ गणेश स्तवन से करने का रिवाज है। गणेश गणों के ईश्वर हैं, इसलिए तमाशा में सबसे पहले ‘गण’ गाया जाता है। फिर तमाशा शुरू होता है। रंगमंच की पूजा के बाद सभी कलाकारों द्वारा रंगमंच पर आकर खेल अच्छा होने के लिए गणेश जी की पूजा की जाती हैं। गीत के माध्यम से गणेश भगवान को आमंत्रित किया जाता है। उनका विश्वास है कि उनके आशीर्वाद के बिना सब कुछ सूना-सूना रहेगा। पेशवा काल से ही प्राय: सभी शाहिरों (कवियों) द्वारा गण की काव्य रचना मिलती है।
गवलण- परम्परागत रूप से तमाशा में गण के उपरान्त गवलण प्रस्तुत किया जाता है। इसके पीछे मनोरंजन की शुद्ध भावना दिखाई देती है। नाट्य और काव्य के सुन्दर संगम से गवलण लौकिक शृंगार का आविष्कार करती है।
तमाशा में गण के पश्चात ग्वालिनियों का समूह आता है। सभी ग्वालिने सज-धजकर मथुरा के बाजार के लिए निकलती हैं। उनके साथ एक बुजुर्ग चतुर महिला (मौसी) होती है। मौसी को लक्ष्य करके कलाकार थोड़ी अलग ढंग की भाषा बोलते हैं। उसमें खेल के मुकाबले सीधे-सरल विनोद किए जाते हैं। बाजार जाने वाली ग्वालिनियों के मार्ग में श्रीकृष्ण और उनके साथी आड़े आते हैं। उनके साथी ग्वालिनियों से कहते हैं कि तुम ग्वालिन हो, तो पहले भगवान की भक्ति करो, तब रास्ता दिया जाएगा। इस पर ग्वालिने गीत गाती हैं। इन गीतों के भक्ति रस में श्रीकृष्ण की लीला का वर्णन होता है। यह गीत गवलण कहलाता है।
लावणी- गण और गवलण के पश्चात तमाशा में लावणी प्रस्तुत की जाती है। लावणी में शृंगारिक, भौतिक और आध्यात्मिक चिन्तन झलकता है। इसमें देश प्रेम, स्त्रियों के विरह दुख, राजनैतिक व सामाजिक स्थिति का भी वर्णन होता है। भक्ति रस तथा वीर रस तो तमाशा के केन्द्र में प्रधानता से होते ही हैं।
लावणी की रचना कथानक के अनुरूप शाहिर करते हैं। जरूरत के अनुसार वे गले में ढ़ोलकी टांगकर नर्तकी के साथ नृत्य भी करते हैं।
‘लावणी’शब्द मूलत: संस्कृत की ‘लू’ धातु से निकला है, जिसका अर्थ है, फसल की लूनाई। उस समय गाया जाने वाला गीत है- लावणी। यह ‘लवन’ अर्थात सुन्दर, इससे उद्भूत शब्द लावण्य से लावणी का जन्म हुआ।
लावणी कई तरह से प्रस्तुत की जाती है। यथा, शायरीलावणी- यह लावणी डफ और तुणतुणे की मदद से गायी जाती है। फड की लावणी-यह ढ़ोलकी की ताल पर नर्तकों-नतर्कियों और भांड के साथ नृत्य और अभिनय के साथ प्रस्तुत की जाती है। बैठकी की लावणी- यह रागदारी के आधार पर बनायी जाती है। इसे ठुमरी की तरह तबला और हार्मोनियम के साथ बैठकर गाया जाता है। इसको बुजुर्ग स्त्रियां प्रस्तुत करती हैं साथ ही अपने हाव-भाव अंगक्षेप दर्शाती हैं। बालेघाटी लावणी- विरह व दुख की भावना व्यक्त करने वाली विलंबित लय की लावणी है। छक्कड़ लावणी- उत्तान शृंगारिक आशय की द्रुत लय में गायी जाने वाली लावणी। सवाल- जवाब युक्त लावणी- इसमें दो दल होते हैं। इसमें शाहिर की कसौटी होती है। इसमें एक दल लावणी में सवाल पूछता है और दूसरे दल को लावणी में ही जवाब देना होता है। चौका की लावणी- यह गायन के समय चार बार बदलने वाली लावणी है। प्रतीकात्मक लावणी- यह स्त्री-पुरुष की भावनाओं को व्यक्त करने वाली लावणी है। इसमें एक तरह से स्त्री शरीर के सौन्दर्य की स्तुति की जाती है।
लावणी तमाशा का सबसे अधिक रंग लाने वाला भाग है। किसी गांव का सरपंच गांव के मेले के लिए, जब तमाशा तय करने जाता है, तो वहां पर उसकी तमाशा की नायिका से मुलाकात होती है। और फिर दोनों के बीच होने वाले संवाद से हास्य का सागर उमड़ पड़ता है। तमाशा तय करने में हो रही खींचातानी, बीच-बीच में विनोद की फुहार और उसके बाद लावणी की प्रस्तुति मन मोह लेती है। इसमें दर्शक मशगूल हो जाते हैं।
बतावणी- बतावणी में परम्परा से चलती आयी हास्य रसात्मक कथा की प्रस्तुति की जाती है। बतावणी के उपरान्त तमाशा का मध्यान्तर होता है।
तमाशा में सोंगाड्या (भांड) का स्थान महत्वपूर्ण होता है। तमाशा की दो लावणियों का सम्बन्ध दिखाने का कार्य उसे अपने सम्भाषण में करना होता है। इसी को ‘संपादणी’ करना कहते हैं। शाहिर और नर्तकी के बराबर महत्व का स्थान सोंगाड्या का होता है। अपने विनोद से वह दर्शकों को खूब हंसाता है। ग्रामीण बोली में द्वैअर्थक संवाद का उपयोग करके हास्य उत्पन्न करने में सोंगाड्या माहिर होते हैं।
वगनाट्य- गण, गवलण, लावणी और बतावणी के पश्चात वग तमाशा का महत्वपूर्ण अंग है। यह अत्यधिक नाट्यपूर्ण और लोकप्रिय घटक होता है। वग एक प्रकार से नाटक ही होता है। तमाशा का सबसे पहला वग उमा बाबू सावलजकर ने सन् 1853 ई. के आस-पास लिखा था।
वगनाट्य सत्य घटनाओं या काल्पनिक कथा का नाट्य रूपान्तर है। ‘गाढवाचं लग्न’ (गधे की शादी) काल्पनिक वगनाट्य को खूब लोकप्रियता मिली। ग्रामीण जीवन के आधार पर, रिश्तों के सम्बन्धों पर, समकालीन राजनीति पर भाष्य करने वाले वगनाट्यों को दर्शक पूरी रात जागकर देखते हैं। वगनाट्य तमाशे का समापन अभिवादन के साथ होता है।
अनन्त फंदी, राम जोशी, होनाजी बाला, प्रभाकर, पठ्ठे बाबूराव, भाऊ फक्कड़, अर्जुना वाघोलीकर, दत्तोबा तांबे शिलोलीकर, दत्ता महाडीक पुणेकर, कालू बालू, तुकाराम खेड़कर इत्यादि शाहिर कलाकारों ने तमाशा को बड़ी ऊंचाई तक पहुंचाया है।
सभ्य समाज के लोगों ने अब तक लावणी व तमाशा को गांव से बाहर रखा था। नाट्य संगीत, भाव संगीत, सुगम संगीत में लावणी का कोई स्थान नहीं था। किन्तु जो कुछ लोकमानस को रूचिकर था, वह एक दिन आगे आ ही गया। समय के साथ लावणी खूब फूली-फली। अब वह वाह्यात चीज नहीं रह गयी। वह केवल शृंगार नहीं रह गयी। वर्तमान समय में तो लावणी मराठी संस्कृति और नाट्यकला को सम्हालने वाली कला बन गयी है। लावणी गाने वाले प्रस्तुत करने वाले कई कलाकारों को राज्य व केन्द्र सरकार द्वारा सम्मानित, पुरस्कृत किया गया है। भामाबाई पंढरपुरकर, यमुना बाई वाईकर आदि को ‘संगीत नाटक अकादमी’ द्वारा पुरस्कृत किया गया। रेशमा पारितेकर को ‘युवा संगीत नाटक अकादमी पुरस्कार’ प्रदान किया गया।
वस्तुत: तमाशा की बुनियाद अध्यात्म पर आधारित है। भक्ति रस, वीर रस, शृंगार रस, वात्सल्य रस, करुण रस, रौद्र रस इत्यादि का दर्शन लावणी में एकसाथ होता है। तमाशा की लावणी अल्हड़, नटखट, नखरेबाज, शृंगारिक और गंवारू भाषा में कसे हुए अंग-अभिनय द्वारा सबको लुभाती है। पांव में पैंजनी, कमर में पट्टा, बांह में बाजूबन्द, नाक में नथुनी, गले में गुरियों की माला, पैठणी शाल इत्यादि से सजा नर्तकी का सौन्दर्य देखते बनता है। लावणी प्रस्तुत करने वाली महिलाओं में सुन्दरा बाई, गोदावरी पुणेकर, कौसल्या कोपरगांवकर, अनुसुइया जेजुरीकर, भामाबाई पंढरपुरकर, सुरेखा पुणेकर इत्यादि अनेक नृत्यांगनाओं के तमाशा फड़ काफी प्रसिद्ध हुए हैं।