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दिशाओं का महत्व

दिशाओं का महत्व

by डॉ. रविराज अहिरराव
in मई-२०१२, वास्तुशास्त्र
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वास्तुशास्त्र के दृष्टिकोण से विचार करते हुए हम आठ दिशाओं को महत्व देते हैं। क्योंकि शास्त्र का मूल दिशा पर अवलंबित है। वैदिक वास्तुशास्त्र में प्रत्येक दिशा का एक विशिष्ट गुणधर्म बताया गया है। पूर्व, पश्चिम, उत्तर एवं दक्षिण मुख्य दिशाएं तथा आग्नेय, नैऋत्य, वायव्य एवं ईशान्य चार उपदिशाएं तथा मध्य में ब्रह्मस्थान है। इसलिए प्रत्येक दिशा का स्वयं का गुणधर्म और स्वभाव विशेष का पता चलता है। किस दिशा में क्या होना चाहिए? क्या नहीं होना चाहिए? इसका मार्गदर्शन दिशाओं से ही मिलता है। अपना जीवन सुखमय बनाने के लिए प्रस्तुत है, वास्तुशास्त्र के महत्वपूर्ण अंग दिशा तथा उनके गुणधर्म की जानकारी।

पूर्व दिशा

पूर्व अर्थात प्रथम दर्जे की, उच्च दर्जे की, सर्वोत्तम दिशा। पूर्व दिशा में अंधकार का नाश तथा प्रकाश का प्रारम्भ होता है। सम्पूर्ण विश्व के ज्ञान-प्रकाश की प्रगति की जानकारी देने वाली दिशा पूर्व है। मानव जीवन के सारे कार्यकलापों की शुरुआत पूर्व में उगे सूर्य के प्रकाश और आरोग्यदायी, प्रफुल्लित करने वाली किरणों के साथ होती है। वर्षाकाल में जब बादल पूरे वातावरण को ढ़के रहते हैं और सूर्य का दर्शन नहीं हो पाता, उस समय मनुष्य का मन उदासी से घिरा होता है। पूर्व दिशा का प्रमुख तत्व अर्थात पूर्व दिशा में नीची भूमि या ढ़लान पर स्नानगृह तथा स्वच्छता होने से स्वास्थ्य लाभ, राजकीय सहायता, उत्साह तथा अधिकार प्राप्त होता है। घर के कमरों तथा सामने के बरांडे की सीढ़ियां पूर्व दिशा में होने से ऐश्वर्य, राजसहायता तथा बुद्धि में वृद्धि होती है।

पूर्व दिशा में किसी प्रकार का वास्तुदोष अर्थात रसोईघर, शौचालय, ढूहा, ऊंचा स्थान, ऊंचाई की ओर जाती सीढ़ी, ऊंची दीवार, अन्य दिशाओं की अपेक्षा कम खाली जगह होने पर आय में कमीं, शैक्षणिक प्रगति में रूकावट तथा स्वास्थ्य में हानि होती है।

आग्नेय दिशा

आग्नेय दिशा अर्थात पूर्व व दक्षिण मुख्य दिशाओं के मध्यम भाग में स्थित 450 पर स्थित उप दिशा। यह पंचमहाभूतों में एक अग्नि तत्व का स्थान है। अग्नि अर्थात ऊर्जा, ऊर्जा अर्थात गति, गति अर्थात प्रगति। वास्तुशास्त्र के तत्वानुसार वास्तु (भवन) की आग्नेय दिशा में अग्नि तत्व की स्थापना अर्थात रसोईघर की स्थापना आवश्यक है। तभी अग्नितत्व अच्छी तरह से प्रस्थापित होता है और घर में प्रगति होती है। यदि आग्नेय दिशा में प्रवेश द्वार होता है तो घर में पैसे की आमदनी खूब होती है। परन्तु गृहस्वामी उस पैसे का सुख स्वयं कभी प्राप्त नहीं कर पाता है। यह पैसा अनर्गल तरीके से खर्च होता है।

दक्षिण दिशा

यह ध्रुव सत्य है कि मूल स्वरूप से दक्षिण दिशा अशुभकारी है, किन्तु यह बहुत अच्छी दिशा भी है। दक्षिण अर्थात द-क्षीण अर्थात धीरे-धीरे क्षीण करने वाली दिशा। ऐसे घर में निर्माण से तीन-चार वर्षों तक खूब आमदनी होती है। इस कालखण्ड में आर्थिक उन्नति तेजी से होती है। जिसे हम ‘इजी मनी’ कहते हैं, वह खूब प्राप्त होती है। किन्तु उसके पश्चात एक तरह से धन की आवक रुक जाती है। परिस्थिति स्थिर हो जाती है। न वृद्धि होती है, न कमी। जबकि खर्च में बाढ़ सी आ जाती है। तीन चार वर्ष के उपरान्त संकट चक्र शुरू हो जाता है, जिससे भारी आर्थिक नुकसान होता है। व्यक्तिगत व व्यावसायिक हानि बड़े पैमाने पर उठानी पड़ती है। थोड़े शब्दों में यदि कहा जाए तो दक्षिण दिशा के प्रभाव से व्यक्ति थोड़े ही समय में करोड़पति और दरिद्र बन जाता है।

नैऋत्य दिशा

नैऋत्य दिशा दक्षिण और पश्चिम दिशा के मध्य की उपदिशा है। इस दिशा का तत्व राक्षसी, पिशाची होने के कारण बहुत खराब माना जाता है। यह राक्षसी दिशा ही है। राक्षसी प्रवृत्ति व्यक्ति के मन में पैठ बनाकर उसे जकड़कर रखती है। व्यक्ति को हमेशा भयभीत किए रहती है, इसलिए उसके मन में आवेश और उत्तेजना व्याप्त हो जाती है। संकटों में कूदने, उसका धीरोदत्त की तरह सामना करने, अपने परिवार व कार्य-व्यवसाय को आगे बढ़ाने की इच्छा में वृद्धि होती है। कम शब्दों में कहें तो अष्टलक्ष्मी की धैर्यलक्ष्मी का इस दिशा में स्थान होने के कारण व्यक्ति धैर्यवान, सहनशक्तिवाला, जिद्दी, आत्मविश्वासी, प्रखर निर्णय क्षमता सम्पन्न, नेतृत्व गुणकारी होता है। इस दिशा की राशि कन्या है। इस राशि के प्रभाव से व्यक्ति किसी भी अनुकूल या प्रतिकूल परिस्थिति में समभाव-समरूप रहता है। अपनी ही मस्ती में आगे बढ़ने की प्रवृत्ति उसमें होती है। इसका कारक ग्रह राहु-केतु है, जिसे पापग्रह माना जाता है और जो व्यक्ति की पग-पग पर परीक्षा लेता है। इसलिए नैऋत्य दिशा में शयनकक्ष होने से गृहस्वामी वास्तु के प्रभाव से गहरी व खूब निद्रा में रहता है। इसके साथ ही पृथ्वी तत्व के प्रभाव से उसमें आगे बढ़ने की आत्मशक्ति बढ़ती है। नैऋती राक्षस का वाहन नर होता है, जो सतत् संकट के सामने पड़ता रहता है। राहु-केतु भी व्यक्ति को हमेशा संकट में डालने रहते हैं। यद्यपि धैर्यलक्ष्मी का अस्तित्व होने के कारण आगे बढ़ने की जिद, संयम व आत्मविश्वास उत्पन्न होता है।

पश्चिम दिशा

पश्चिम अर्थात पीछे की ओर आने वाली दिशा, सूर्यास्त की दिशा, जहां प्रकाश का अन्त और अन्धकार का प्रारम्भ होता है, वह दिशा। पश्चिम दिशा में प्रवेश द्वार वाले घर का स्वाम कड़ी मेहनत के बावजूद बहुत कम यश प्राप्त कर पाता है। सभी आठ दिशाओं में से सबसे अधिक खराब परिणाम देने वाली यह पश्चिम दिशा है। पश्चिम दिशा के द्वार वाले घर में रहने वाले लोग दरिद्र, अपयशी, निरुत्साही, कर्ज में डूबा हुआ, कष्ट से घिरा हुआ होता है। जितनी मेहनत करके अन्य व्यक्ति खूब प्रगति कर सकता है, उतनी ही मेहनत करके ये व्यक्ति सन्तोषजनक प्रगति भी नहीं कर पाते।

पश्चिम दिशा पुरुषों की अपेक्षा स्त्रियों के लिए कुछ अच्छी व लाभदायी होती है। हमेशा तो नहीं, किन्तु यह दिशा स्त्रियों के लिए अधिकांशत: उत्तम फलदायी सिद्ध होती है। यदि कोई भवन स्त्री के नाम पर है, तो वह अपेक्षाकृत शुभकारी होता है। ऐसी वास्तु में यदि व्यवसाय करना हो, तो महिला के नाम से महिलाओं के लिए उपयोगी चीजों का व्यवसाय लाभदायक होता है।

वायव्य दिशा

इसके अपने नाम के अनुरूप वायव्य दिशा में वायु का स्थान स्वत:ज्ञात होता है। पश्चिम और उत्तर के मध्य में यह दिशा होती है। दिग्सूचक यंत्र में यह 3150 पर स्थित यह उपदिशा है। इस दिशा की दस विशेषताओं में वायु का महत्व स्पष्ट होता है। वायु तत्व का स्थान अर्थात दिशा पालक वायुदेव का स्थान, उनकी नगरी गंधवती अर्थात वायु तथा गंध के अटूट सम्बन्धों का परिचय कराने वाली दिशा।

अपने जीवन में वायु के स्थान का विचार करने पर इसका महत्व आसानी से समझ में आ जाएगा। तात्पर्य यह कि वायु श्वास के रूप में एक जीवनदायी तत्व है। वायु के बिना हम कुछ क्षण ही जीवित रह सकते है। यह वायु (प्राणवायु) हमारे लिए बड़े महत्व की है।

परस्पर सम्बन्धों में सौहार्द्र व समन्वय पर वायव्य दिशा का बहुत प्रभाव पड़ता है। वायव्य दिशा में वास्तुशास्त्र के अनुसार बड़े बच्चों का शयनकक्ष, मेहमानों का कमरा, अध्ययन कक्ष, भोजन कक्ष, शौचालय, पालतू प्राणियों का स्थान, सेफिटक टैंक, जीना, अनाज रखने का कोठार इत्यादि बनाना उत्तम होता है। व्यावसायिक प्रतिष्ठानों में विपणन (मार्केटिंग) विभाग के प्रमुख, वस्तुओं के उत्पाद अथवा सर्विसेस और जिन वस्तुओं को बेचना है, उसको, इस दिशा में आकर्षक पद्धति से लगाना और उपयुक्त वस्तु को सही ढंग से रखना चाहिए। ऐसा करना व्यवसाय के लिए हितकारी होता है।

उत्तर दिशा

उत्तर दिशा कई अर्थों में अपना नाम सार्थक करने वाली दिशा है। इस दिशा में अनेक प्रश्नों का उत्तर प्राप्त होता है। कोई भी प्रश्न समस्या नहीं उत्पन्न करता। हरेक प्रश्न का शीघ्र उत्तर इस दिशा में मिलता है। अष्टलक्ष्मी की धनलक्ष्मी का स्थान इस दिशा में होता है। कुबेर और लक्ष्मी का एक साथ होना महावैभव, महा ऐश्वर्य, धन लक्ष्मी की कृपा का प्रतीक है। इस दिशा से प्राप्त पैसा सात्विक और अच्छे मार्ग से आया हुआ होता है। यह पैसा दीर्घकाल तक टिकाऊ भी होता है। उत्तर दिशा से आया वैभव चंचल नहीं होता। ध्रुव तारा की भांति अटल व टिकाऊ होता है।

वैज्ञानिक दृष्टि से भी उत्तर दिशा उत्तम मानी जाती है, क्यों कि पृथ्वी का विद्युत चुम्बकीय शक्ति केन्द्र इसी दिशा में संक्रमित होता है। इसी तरह प्रात:काल उगते हुए सूर्य की किरणों मे स्थित परावैगनी किरणों का प्रभाव इस दिशा में सर्वाधिक पड़ता है। इसलिए उत्तर दिशा में ज्यादा से ज्यादा खुली और नीची जगह होना अच्छा माना जाता है। इसके प्रभाव से उत्तम वातावरण का निर्माण तथा कार्य में यश की प्राप्ति होती है। उत्तर दिशा में प्रवेश द्वार, दीवान खाना, स्नानगृह, देवघर (पूजाघर), रिक्त स्थान, छोटे बच्चों या वृद्ध व्यक्तियों का शयनकक्ष, पैसे की तिजोरी, अध्ययनकक्ष, भूमिगत पानी की टंकी, इत्यादि लाभदायी माना जाता है।

ईशान्य दिशा

यह दिशा ईश तत्वों की अर्थात ईश्वर की दिशा है। यह अत्यन्त पूजनीय, प्रसन्नतादायी तथा यश प्रदान करने वाली दिशा है। ईशान्य देवों की, तो इसके ठीक उलट नैऋत्य राक्षसों की दिशा है। सर्वगुण सम्पन्न होने के कारण इस दिशा में विद्या, बुद्धि, ऐश्वर्य, सौभाग्य, राजयोग, सन्तानसुख, यश, स्वास्थ्य तथा लम्बी आयु प्रदान करने की क्षमता है।

इस दिशा में प्रवेश द्वार, दीवानखाना, पूजाघर, स्नानगृह, अध्ययन कक्ष, वरिष्ठ जनों का शयनकक्ष, भूमिगत पानी की टंकी, अधिकाधिक रिक्त स्थान, ढलान, हरे-भरे पत्तों वाले छोटे-छोटे पौधे, दीवार में खिडकी-जिनसे होकर सुबह में सूर्य देव की किरणें प्रवेश करती हों, अच्छा माना जाता है। इससे घर का शुद्धिकरण, निर्जन्तुकीकरण तथा प्रसन्न वातारण का निर्माण होता है। ईशान्य दिशा में भूमिगत पानी की टंकी प्रगति की सूचक मानी जाती है। किसी भी निर्माण कार्य का शुभारम्भ ईशान्य दिशा में भूमिगत पानी की टंकी के निर्माण के साथ करना चाहिए। यह लाभदायी होता है।

जमीन खरीदते समय, यदि वह ईशान्य दिशा की ओर अधिक फैलाव वाली हो, तो उसे अवश्य खरीदना चाहिए। वह अत्यन्त लाभकारी होता है।

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