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विवेकानंद और संघ

विवेकानंद और संघ

by रमेश पतंगे
in जून २०१२, व्यक्तित्व
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भारत जागरण का श्रेय अगर किसी एक व्यक्ति को देना हो, तो वह स्वामी विवेकानंद को देना उचित होगा। नेताजी सुभाषचंद्र बोस, महात्मा गांधी, स्वातंत्र्यवीर सावरकर, रवींद्रनाथ ठाकुर आदि सभी महान पुरुषों ने किसी न किसी रूप में स्वामी विवेकानंद से प्रेरणा पाई है। देश के कोने-कोने में चल रहा राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का कार्य भी स्वामी विवेकानंद के बहुत सारे विचारों को प्रत्यक्ष कृतिरूप देनेवाला कार्य है। बीच में कभी महाराष्ट्र में से एक पुरोगामी विद्वान ने विवेकानंद पर पुरोगामी पुस्तक लिखकर रा.स्व.संघ विवेकानंद के विचारों से दूर कैसे है, यह बताने का हास्यास्पद प्रयास किया। पुरोगामी विद्वान वैचारिक आतंकवादी होते हैं। ‘मुझे चुनौती देने की तुम हिम्मत ही कैसे करते हो?’, ऐसी भाषा में ही वे बोलते हैं। इस कोटि के विद्वान (?) रा.स्व.संघ के ज्येष्ठ प्रचारक सूर्यनारायण राव लिखित र्‍ूग्दहत् ाुाहीूग्दह-ऊप न्ग्ेग्दह दर्िं एैस्ग् न्न्ग्नव्हह् ह् ूप स्ग्ेेग्दह दर्िं ेप्ूग्ब् एैब्सेन्व् एहुप् शीर्षक की पुस्तक शायद पढेंगे नहीं, फिर भी हम जैसे सभी लोगों को आस्थापूर्वक उसे पढना चाहिए।

पुस्तक का प्रमुख विषय है- ‘विवेकानंद और संघ’। विवेकानंद केंद्र के संचालक पी. परमेश्वरन की विस्तृत भूमिका इस पुस्तक की विशेषता है। पुस्तक में विवेचन कैसे किया है, इस का आकलन करने के पहले लेखक सूर्यनारायण राव का अल्प परिचय देना आवश्यक होगा, क्योंकि पुस्तक का विषय जैसा महत्त्वपूर्ण है, वैसे ही उसे लिखनेवाला कौन है। यह भी उतना ही महत्त्व रखता है। सूर्य नारायण राव का जन्म सन् 1924 ई. में हुआ। सन 1942 में आपने संघ में प्रवेश किया। सन् 1946 में आप प्रचारक के काम करने लगे। आरंभ में कर्नाटक में जिला प्रचारक, विभाग प्रचारक आदि उत्तरदायित्व निभात-निभाते सन 1972 से 1984 की कालावधि में आप तमिलनाडु के प्रांत प्रचारक रहे। उसके पश्चात् आंध्र, तमिलनाडु, केरल, कर्नाटक इत्यादि चार प्रांतों के आप क्षेत्रीय प्रचारक बने। सन 1990 में अखिल भारतीय सेवा प्रमुख का उत्तरदायित्व आपको सौंपा गया। संघ कार्य हेतु आपने अमरिका, युरोप, दक्षिण आफ्रीका, दक्षिण एशिया आदि की यात्राएँ की हैं। आज आपकी उम्र 88 वर्ष की है, इसके माने यही है। कि संघ कार्य हेतु जीवन समर्पित करनेवाले आप एक तपस्वी कार्यकर्त्ता हैं। स्वामी विवेकानंद तपस्वी थे। संघ संस्थापक प.पू.डॉ.हेडगेवार तपस्वी थे। तथा प.पू.श्री गुरुजी भी तपस्वी थे। इसलिए एक तपस्वी की कलम से साकार हुई तपस्या का परिचय करा देनेवाली यह पुस्तक है।

लेखक की धारणा अत्यंत नम्र है। वह इस प्रकार, कि पुस्तक में जो भी कुछ है उसमें मेरा अपना कुछ नहीं। मैंने केवल सामग्री का संकलन किया है, संपादन किया है। इसलिए ‘समर्पण’ में आप कहते हैं, ‘‘त्वदीय वस्तु तुभ्यमेव समर्पये।’ माने ‘‘जो तुम्हारा है, वह तुम ही को अर्पण कर रहा हूँ।’’ ऐसा कहते हुए स्वामी विवेकानंद के चरणों पर यह पुस्तक आपने समर्पित किया है।
स्वामी विवेकानंद के कार्य की कालावधि सन् 1893 से 1902 ऐसी है। उनमें से तीन साल तो वे यूरोप-अमेरिका में ही थे। भारत में कार्य करने हेतु उन्हे केवल सात वर्ष मिले। इन सात वर्षो में उन्होंने इतनी ऊर्जा निर्माण कर रखी। इस देश के लिए 700 वर्षों तक पर्याप्त होगी, स्वामी विवेकानंद ने हिंदू समाज एवं हिंदू राष्ट्र को किस प्रकार उद्वेलित किया, उसके कुछ उदाहरण सूर्यनारायण रावजी ने दिये हैं। विश्वविख्यात लेखक रोमाँ रोलाँ ने स्वामी विवेकानंद के बारे में कहा, ‘‘विवेकानंद पढते समय मुझे बिजली के झटकें जैसा मिलते हैं।’’ डॉ. जॉन हेन्री राइट, महात्मा गांधी, रवींद्रनाथ ठाकुर, सुभाषचंद्र बोस, सी. राजगोपालचारी, महाकवि सुब्रम्हण्यम् भारती आदि विवेकानंद के विषय में क्या कहते हैं, वह इस पुस्तक में उपलब्ध है।
स्वामी विवेकानंद को ‘वेदान्ती संन्यासी’ के नाते हम पहचानते है। उनके भाई भूपेंद्रनाथ दत्त ने विवेकानंद के बारे में एैस्ग् न्न्ग्नव्हह्ृझ्ूग्दू-झ्दज्पू’ शीर्षक की पुस्तक लिखी है और उसमें उन्होंने स्वामी विवेकानंद ने अंग्रेजों की गुलामी से भारत को मुक्त करने के प्रचार आरम्भ में कैसे किये, इसका वर्णन किया है। आखिर उन्हें ऐसा दिखाई दिया, कि सारा भारत मोहनिद्रा में मग्न हुआ है। इस निद्रा से भारत को जाग्रत करना चाहिए। सूर्यनारायण राव भगिनी निवेदिता के शब्दों में कहते हैं, कि हिंदुत्व को आक्रमक बनाना चाहिए, हमें क्रियाशील बनना चाहिए।

स्वामी विवेकानंद वेदान्ती थे, किन्तु वे वेदान्त की रुक्ष चर्चा करनेवाले बुद्धिवादी न थे। वेदान्त कैसे जीना चाहिए, यह आपने भारत को समझा दिया। श्री रामकृष्ण के समाधि अवस्था में से भावावस्था में आते समय पे उद्गार थे- ‘‘भूत मात्र की सेवा करनेवाला मैं कौन? मुझे शिवभाव से जीवसेवा करनी चाहिए।’’ कितने ही लोगों ने रामकृष्ण परमहंस के ये शब्द सुने, फिर उनके गहन अर्थ का आकलन नरेंद्र को (विवेकानंद) हुआ। और आगे दीनदलितों की सेवा, गरीबों को शिक्षित करते सक्षम बनाना, अन्नदान, वस्त्रदान आदि के क्रम में ‘दरिद्रनारायण’ शब्द का स्वामी विवेकानंद ने प्रयोग किया। स्वामी विवेकानंद के शब्दों के माध्यम से ही यह आशय सूर्यनारायणरावजी ने इस पुस्तक में व्यक्त किया है।

अपने इस देश को संगठन की आवश्यकता कितनी है, एक-दूसरे के साथ काम करने की आदत होने की आवश्यकता कैसी हो यह विवेकानंद ने बताया। चार करोड़ अँग्रेज केवल संघटन के बल अपने जैसे तीस करोड़ लोगो पर हुकूमत चलाते हैं। तो आखिर यह संघटन किनका होना चाहिए? सन 1918 में लाहौर में विवेकानन्द ने भाषण दिया। उस भाषण में उन्होंने ‘हिंदू’ विषय पर अपने विचार व्यक्त किये और कहा ‘‘हिंदू होने का अभिमान हमें होना चाहिए। गुरु गोविंद सिंह जैसे सच्चे हिंदू बनो। हिंदू होने में शर्मिंदा होने की कोई जरूरत नहीं धर्म हमारी आत्मा होती है। हमें बकरियों के झुंड में पले हुए सिंह के समान खुद को बकरी नहीं मानना चाहिए। इस मोहनिद्रा में से जाग उठो। अपने पैरों पर खडे हो जाओ!’’ स्वा. विवेकानंद का लाहौर का यह भाषण बडा ही महत्त्वपूर्ण है। यह भाषण ‘कोलंबो से अलमोडा’ इस पुस्तक में पाठकों को उपलब्ध होगा। ‘‘भारत को खड़ा करने के लिए कार्यकर्ता आवश्यक हैं। शक्तिशाली, उत्साही एवं त्यागी होनेवाले सैकडों कार्यकर्त्ताओं की आवश्यकता है। इस कोटि के कार्यकर्ताओं को खड़ा करना कोई आसान काम नहीं है। आइए! काम शुरू करेंगे।’’ अपनी योजना को कार्यान्वित करने हेतु उन्होंने रामकृष्ण मठ की स्थापना की।

स्वा. विवेकानंद के हिंदू संगठन के संबंध में विचार व्यक्त करने के पश्चात् संघसंस्थापक डॉ. केशव बलिराम हेडगेवारजी ने किस अवस्था में संघकार्य आरंभ किया, इसका सूर्यनारायणजी ने लेखा प्रस्तुत किया है। डॉक्टरजी के जीवन में से महत्त्वपूर्ण घटनाएँ तथा देशभक्ति माने क्या और देश को अगर फिर से खडा करना होगा तो क्या करना चाहिए, इसे लेकर डॉक्टरजी ने जो चिंतन किया, उसका भी लेखा जोखा संक्षेप में सूर्यनाराण रावजी ने प्रस्तुत किया है। डॉक्टरजी अपने चिंतन के फलस्वरूप इस निष्कर्ष पर पहुँचे, कि जातिपाँति विरहित, स्वबांधवों से, देश से, धर्म से, संस्कृति से निरपेक्ष प्रेम करनेवाला संगठन खडा होना चाहिए। स्वा. विवेकानंद अमरिका के समाज का अवलोकन कर तथा अपने देश की अध्यात्मिक अवनति को देखकर संगठन के निष्कर्ष पर पहुँचे। डॉ. हेडगेवार उनके अपने समय में चल रहे सामाजिक, राजनीतिक आंदोलन में से नि:सारता देखकर संगठन के निष्कर्ष पर आये। यह देश हिंदुओं का है यह हिंदुस्थान है-यह हिंदूराष्ट्र है, इस तथ्य की अनुभूति उन्होंने पाई थी। मानवनिर्माण करनेवाले शाखातंत्र का उन्होंने आविष्कार किया तथा सारे देश में उसी का विस्तार किया। देश के हित में जीवन समर्पित करनेवाले हजारों कार्यकर्ता खड़े हुए।

डॉ. हेडगेवारजी के इस कार्य को श्री गुरुजी ने आगे बढाया। स्वामी विवेकानंद के गुरुबंधु अखंडानंदजी ही श्री गुरुजी के आध्यात्मिक गुरु थे। उनके आशीर्वादों से ही श्री गुरुजी दीक्षित हुए, परंतू श्री गुरुजी रामकृष्ण मठ में से संन्यासी बने नहीं। अखंडानंदजी ने कहा था, ‘‘श्री गुरुजी रामकृष्ण मठ में नहीं होंगे, उनके लिए और कुछ काम है। श्री गुरुजी के समग्र जीवन का अवलोकन करने पर दिखाई देता है, कि स्वा. विवेकानंद के अधूरे रहे कार्य को संघ के माध्यम से देशव्यापी एवं प्रभावी बनाने के श्री गुरुजी ने प्रयास किया।

धर्माचार्यों को संगठित कर परधर्म में गये हुए अपने बंधुओं को स्वधर्म में वापस लाने का तथा अछूत प्रथा हिंदू धर्म में मंजूर नहीं, इसे धर्माचार्यों से व्यक्त प्रकट कराने का युग प्रवर्तक कार्य श्रीगुरुजी ने किया। उनके ही के जीवनकाल में शिक्षा एवं दरिद्र नारायण की सेवा आदि विषय देशव्यापी बन गये।

चेन्नई के स्वामी मठ के प्रमुख स्वामी चिद्भावनंदजी के बारे में इस पुस्तक में एक अध्याय है। स्वामीजी के मन में संघकार्य के बारे में बहुत सारी भ्रांत धारणाएँ थी। एक बरस संघशिक्षावर्ग के लिए उन्होंने विवेकानंद महाविद्यालय का अहाता उपलब्ध करा दिया। पूरे महीने की अवधि में उन्होंने संघकार्य नजदीक से देखा। समापन के भाषण में उन्होंने कहा, ‘‘मानव निर्माण के संदर्भ में स्वामी विवेकानंद ने जो विचार व्यक्त किये, वैसे तो तुम प्रत्यक्ष में जी रहे हो, उसे आचरण में ला रहे हो।’’ संघकार्यकर्ताओ- की एक बैठक में स्वामीजी ने कहा, ‘‘हिंदू धर्म एवं हिंदू समाज की रक्षा होकर उनका विकास हो इस उद्देश्य से सर्वशक्तिमान परमात्मा ने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का निर्माण किया है। संघकार्य परमेश्वरी कार्य है।’’ स्वामी चिद्भवानंदजी का यह अभिप्राय महत्त्वपूर्ण इसीलिए है कि वे स्वयं एक संन्यासी हैं। संघ की प्रशंसा कर उन्हें कुछ प्राप्त करना नही था। जिस तथ्य का उनको आकलन हुआ, उसे आपने साफ शब्दों में व्यक्त किया और उस द्वारा संन्यास धर्म का पालन किया।

विवेकानंद का दृष्टिकोण तथा संघकार्य की व्याप्ति अनोखा संगम इस पुस्तक में हमें पढने के लिए उपलब्ध होगा। डॉ. हेडगेवार एवं श्रीगुरुजी इनके विचारों में से एकसूत्रता उनके भाषणों में से उढूधरण लागातार उद्धृत करते हुए सूर्यनारायण रावजी ने हमारे समक्ष रखी है। सरसंघचालक मोहनजी भागवत, सरकार्यवाह भय्याजी जोशी और न्यायमूर्ति डॉ. रमा जॉयस के शुभ एवं अर्थपूर्ण संदेशों से पुस्तक के वैचारिक मूल्य में वृद्धि हुई है। तीनों के दिये हुए संदेश केवल औपचारिकता पूर्ण करने हेतु दिये हुए न होकर पुस्तक में प्रतिपादित विषय को अधिक संपन्न बनानेवाले हैं।

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