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आर.के. लक्ष्मण – न भूतो न भविष्यति

आर.के. लक्ष्मण – न भूतो न भविष्यति

by ज्वाला प्रसाद मिश्र
in जून २०१२, सामाजिक
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मैं थोड़ा-बहुत ड्राइंग-पेंटिंग में दखल रखता हूँ। पोर्ट्रेट तथा प्राकृतिक दृश्यों पर मेरा हाथ ठीक-ठाक चल जाता है। मैं कार्टूनिस्ट न बन सका, लेकिन चित्रकला की इस विधा के प्रति मुझे सदा से आकर्षण रहा है। इसीलिए जब मिडिल, हाईस्कूल का छात्र था, तब से ही शंकर पिल्ले, मारियो, आर.के. लक्ष्मण, बाल ठाकरे आदि मेरे फेवरिस्ट व्यंग्यचित्रकार रहे हैं। आज भी प्रतिदिन जो भी अखबार हाथ में लेता हूँ, तब सबसे पहले कार्टून देखता हूँ। मेरा मानना है कि जिस समाचार पत्र के पास कल्पनाशील और कूची का धनी कार्टूनिस्ट न हो, इसे संपूर्ण अखबार नहीं कहा जा सकता।

लक्ष्मण का व्यंग्य चित्रकार बनना और अखबारों से जुड़ना ऐसी घटना थी जिसे विधाता ने पूर्व निर्धारित कर रखा था। आज कार्टून की दुनिया में लक्ष्मण का जवाब लक्ष्मण ही हैं। संप्रति 85 वर्ष की आयु में, आधा शरीर पक्षाघात के कारण निष्चेष्ट जैसा हो जाने के बावजूद, उनके व्यंग्य चित्रों की धार अक्षुण्ण है।

उन्होंने जिस ‘कामन मैंन’ की कल्पना की वह देश भर के व्यंग्य चित्रकारों का प्रेरणा स्रोत बन गया। चौकड़ी वाला कोट-धोती पहने, गंजा सिर, चश्मा, मूछें और चेहरे पर सतत हैरानी का भाव लिये, इस चरित्र में हम-आप जैसे आम लोग अपनी ही प्रतिछाया देखते हैं। बड़ों, भ्रष्टनेताओं, धनवालों का तो हम कुछ बिगाड़ नहीं सकते, बस उन्हें कोस कर, गरिया कर मन का गुबार निकाल लेते हैं। स्वयं लक्ष्मण के शब्दों में, ‘‘मानव प्रजाति में राजनीतिज्ञ सर्वाधिक टिकाऊ होते हैं। वे मजबूत हैं, अपमान, पराजय, बदनामी, झटकों का उन पर कोई असर नहीं पड़ता।’’ एक अन्य स्थान पर उन्होंने लिखा, ‘‘राजनीतिज्ञ वह होता है, जिसकी बातें, चाल-ढ़ाल, व्यवहार ऐसे होते हैं, मानो वह कार्टूनिस्ट के लिए अनथक माडलिंग कर रहा है।’’ इसीलिये जब किसी ने लक्ष्मण से पूछा, कि क्या आपका यह चरित्र नई सहस्त्राब्दी में बदलेगा? तो लक्ष्मण ने प्रति प्रश्न किया, ‘‘बदलेगा? क्या आकाश का रंग कभी बदलता है?’’ कामन मैन की लोकप्रियता का इससे बड़ा सबूत और क्या होगा कि सन् 1988 ई. में जब ‘टाइम्स आफ इंडिया’ की 150 वीं जन्मगांठ मनाई गई, तब भारत सरकार ने उस पर डाक टिकट जारी किया।
लक्ष्मण ने देश के अनेक अग्रणी अखबारों को अपनी सेवाएं ‘टाइम्स’ से जुड़ने के पहले दीं, किंतु ‘टाइम्स’ से उनके संबंध को क्या कहा जाए। इंडियन एक्सप्रेस, फ्री प्रेस, जे.जे. स्कूल आफ आर्ट्स, हिंदुस्तान टाइम्स आदि जिसने भी कभी न कभी लक्ष्मण को नकारा, उन सभी ने आगे चलकर उनका सम्मान भी किया। पद्मभूषण, पद्मविभूषण, मेगासेसे अवार्ड आदि कब के इस अद्भुत कलाकार की झोली में आ चुके हैं। वे ‘इलस्ट्रेटेड वीकली आफ इंडिया’ में देश-विदेशी राजनेताओं के पूरे पृष्ठ के रंगीन चित्र दिया करते थे। मुझे याद है कि पं. श्यामाचरण शुक्ल का जो चित्र उन्होंने बनाया था, उतना अच्छा उनका फोटोग्राफ भी नहीं हो सकता था। भगवान श्री गणेश और कौवा भी उनके पसंदीदा विषय थे। कम लोग जानते होंगे कि लक्ष्मण एक कुशल घड़ीसाज भी हैं। उनके अग्रज आर.के. नारायण भी विलक्षण प्रतिभा संपन्न लेखक, उपन्यासकार थे। दोनों भाइयों की जोड़ी का कमाल ‘हम माल गुड़ी डेज’ में देख ही चुके हैं।

लक्ष्मण प्रत्येक राजनेता के चेहरे पर हफ्तों चिंतन करते हैं कि इस शख्स की किस विशेषता को उभारा जाए। जैसे शीघ्र ही पं. नेहरू को उन्होंने टोपी में दिखाना बंद कर दिया, ओर खल्वाट खोपड़ी, निचला होठ उभरा हुआ, शेरवानी के बटन होल में गुलाब का फूल बड़ी कुशलता से बनाने लगे। इंदिराजी पर भी काफी सोच-विचार के बाद उन्होंने तोते की चोंच जैसी नुकीली नाक और बालों में सफेद पट्टी को चुना। वी.पी. सिंह के लिए उन्होंने फर वाली टोपी, चश्मा और मूछों को आधार बनाया, और टोपी को चेहरे के अनुपात में जानबूझ कर बड़ी बनाते थे। आडवाणी के सिर पर रथ या मंदिर का प्रतीक छतरी नुमा शिखर काफी समय तक बनाते रहे। पी.वी. नरसिंहराव के बाहर निकलते निचले होठ का उन्होंने बखूबी इस्तेमाल किया। देवेगौड़ा को तो अधिकतर उन्होंने खर्राटे भरते ही दिखाया है। पर जब राजीव गांधी प्रधान मंत्री हुए तब लाख कोशिशों के बाद भी वे समझ नही पाये कि उन्हें किस प्रकार चित्रित किया जाए। उन्होंने कहा, ‘‘ऐसे हैंडसम राजनेता होने लगे तो मैं बेरोजगार हो जाऊँगा।’’ पर शीघ्र ही उन्होंने रास्ता ढूंढ निकाला। उनकी नाक छोटी और थोड़ी अपटर्न्ड कर दी, सिर के बाल कम कर दिये। लक्ष्मण गजब के हाजिर जवाब भी हैं। राजीव जी का तकिया कलाम था ‘‘हम देखेंगे’’ – अंग्रेजी में ‘आई विल लुक इनटु द मैटर’। एक दफा उनकी राजीव से भेंट हुई तो राजीव ने कहा, ‘‘आप मेरा केरिकेचर तो ठीक बनाते हैं, किंतु मुझे अधिक मोटा बना देते हैं – थोड़ा दुबला नहीं कर सकते?’’ लक्ष्मण ने उनसे बेहिचक कहा, ‘‘आय विल लुक इन टु द मैटर।’’

सन् 1975 ई. में आपातकाल लगा और प्रेस की स्वतंत्रता को कुचल दिया गया। लेकिन लक्ष्मण की तूलिका अपना काम निर्भीकता से करती रही, और ‘टाइम्स’ ने उन्हें छापना जारी रखा। पर अखबार पर सरकार का दबाव तो पड़ ही रहा था। संयोग से उन्हीं दिनों लक्ष्मण का आमना-सामना इंदिरा जी से हो गया, तो उन्होंने अपनी व्यथा व्यक्त की। इंदिरा जी ने कहा आप अपना काम करते रहें। फिर भी सरकार के कुछ मंत्री कार्टूनों को पचा नहीं पा रहे थे, जिनमें अपने विद्याचरण शुक्ल भी थे। तो लक्ष्मण खीझ कर छुट्टियाँ मनाने मारीशस चले गए और अपने पेशे से सन्यास लेने पर गंभीरतापूर्वक सोचने लगे। खैर वर्ष 1977 में इमर्जेन्सी हटी, श्री लक्ष्मण लौटे और दुगने उत्साह से व्यवस्था पर प्रहार करना आरंभ किया।
इसी प्रकार जब मोरारजी भाई मुंबई के मुख्यमंत्री थे, तब उन्होंने अनेक प्रकार के अंकुश लगा दिये। लक्ष्मण अत्यंत सादा शाकाहारी भोजन अत्यल्प मात्रा में करते हैं, किंतु शाम को स्काच के दो पेग वे नियमित रूप से लेते हैं। तो उन्होंने प्रतिबंधों पर एक कार्टून बनाया। इसे देखकर मोरारजी भाई इतने क्रोधित हुए कि उन्होंने मंत्री परिषद की विशेष बैठक बुलाई और चाहा कि व्यंग्य चित्रकारों पर राजनीतिज्ञों, शासन आदि के कार्टून बनाने को प्रतिबंधित कर दिया जाए। पर उनके कैबिनेट सहयोगियों ने कहा कि ऐसा करना संविधान द्वारा प्रदत्त अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का हनन माना जाएगा। मोरारजी मन मसोस कर रह गए।

उम्र के इस पड़ाव में लक्ष्मण के व्यंग्यचित्रों की गुणवत्ता और पैनापन में कोई कभी नहीं आई है। यही वजह है कि अब उन्होंने ‘टाइम्स’ के दफ्तर में जाना बंद कर दिया है, लेकिन घर पर प्रतिदिन कार्टून बनाते हैं। दोपहर 3 बजे ‘टाइम्स’ की गाड़ी उनके घर जाती है और ताजा कार्टून लेकर आती है।

अब लेकिन वे राजनीति में बढ़ते भ्रष्टाचार और निर्लज्जता से थक गए हैं। वे कहते हैं कि कार्टूनिस्ट नेताओं की कमजोरियों का अपने ढंग से पर्दाफाश करता है। परंतु जब नेता इतने बेशर्म हो जाएं कि अपनी नग्नता का खुद ही सीना तान कर प्रदर्शन करें, तब कार्टूनिस्ट के लिए करने को बचता ही क्या है? मैंने लक्ष्मण की आत्मकथा ‘द टनोज आफ टाइम’ पढ़ी है। पेंगुइन द्वारा प्रकाशित ‘द बेस्ट आफ लक्ष्मण’ तथा कामन मैन पर कुछ पुस्तकें मेरे पास हैं। मैं अपने मित्र व हितैशी पी.ए. कल्याणसुंदर, जनरल मैनेजर, बैंक आफ इंडिया का आभार इस आलेख के माध्यम से व्यक्त करना चाहता हूँ, जिन्होंने लक्ष्मण के प्रति मेरे प्रेम को देखते हुए डा. धर्मेंद्र भंडारी द्वारा लिखित व संकलित पुस्तक ‘आर.के. लक्ष्मण दि अनकामन मैन’ मुझे भेंट की है, जिसकी कीमत रु. 2,500 है। मैं स्वयं तो इतनी मंहगी किताब को खरीदने का साहस न जुटा पाता। आज व्यंग्यकारों की जो पौध हम देख रहे हैं, उसकी जमीन शंकर, लक्ष्मण, ठाकरे, मारियो, रंगा, विजयन, आबिर सुरती जैसे महाराथियों ने तैयार की है। परंतु लक्ष्मण तो कार्टूनाकाश के सर्वाधिक जाज्वल्यमान नक्षत्र हैं। ईश्वर उन्हें शतायु करें और हम उनके चुटीले कार्टूनों का आनंद लेते रहें।

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