क्या हम ‘पेस्तन काका’ को खो देंगे?

पारसी समाज पिछले कई दशकों में तेजी से सिकुड़ता जा रहा है। इस समाज की जनसंख्या अब ऐसे घटती जा रही है कि अगले कुछ ही बरसों में ‘पेस्तन काका’ क्या पु. ल. देशपांडे जी (विख्यात मराठी साहित्यकार) की किताबों में ही पाये जाएँगे? ऐसा भय कहीं दिखाई दे रहा है। पिछले कई दशकों में कितने ही जनसंख्या विश्लेषक पारसी समाज की इस समस्या का अध्ययन कर रहे हैं। इस समस्या का मुख्य कारण यह है कि पारसी लोगो शादी ही नहीं करते।

भारत जैसी धार्मिक, सांस्कृतिक विविधता शायद ही किसी देश ने अनुभव की होगी। यहाँ के हर धर्म ने, पंथ ने, समाज ने अपनी पृथकता निभाई है। लगभग 10 वीं शताब्दी में ईरान के निवासी रहे पारसी यानी जरथ्रुष्ट्र धर्म के लोग अरब हमलावरों के अत्याचारों से बाज आकर भारत में आ गए। भारत के गुजरात प्रदेश के कुछ इलाकों में वे बस गये। वहाँ के राजा की शरण में गये तथा राजा ने भी उन्हें अपनी प्रजा में समा लिया। दूध में चीनी जैसे घुल जाए, वैसे वे यहाँ की सभ्यता से समरस हो गए। इन लोगों ने वहाँ की स्थानीय भाषा, पहनावा आदि को स्वीकार किया। ब्रिटिशों द्वारा मुंबई को आबाद कराने के पश्चात् दूरदर्शिता से पारसी समाज ने बड़े पैमाने पर मुंबई में अपना स्थान बना लिया। सुदूर देशों से आकर भारत में बसे कितनी ही जमातों ने इस देश को हर तरह से पीड़ा पहुँचाने के प्रयास भी किया। किन्तु पारसी समाज ने हमेशा ही इस देश की समृद्धि में हाथ बढ़ाया है।

घटता जा रहा पारसी समाज

पारसी व्यक्ति माने आर्थिक दृष्टि से संपन्न। वैसे देखा जाए, तो वह बड़ा ही होशियार और उतना ही सनकी। छरहरा बदन, कंधे झुका कर चलने वाला, कहीं कुछ नहीं, तो कमजोर नजर! अँग्रेजिया रहन-सहन, पारसी उच्चारण शैली में बोली जा रही गुजराती भाषा ऐसे व्यक्तित्त्व से तथा अपने खास किसी पहनावे से ‘पारसी’ के रूप में झट पहचाना जाने वाला । क्या आपको मराठी लेखक पु. ल. देशपांडे की ‘व्यक्ती आणि वल्ली’ पुस्तक में से पेस्तन काका का कहीं स्मरण हो रहा है? यही पेस्तन काका माने समूचे पारसी बावाओं का प्रतिनिधि ही तो सही!

पारसी व्यक्ति अपनी व्यक्तिगत जिंदगी में पूरा व्यावहारिक हो, तो भी सामाजिक कार्य करते समय हमेशा खुला ही रखेगा। देश के विकास में योगदान देते समय संख्या में अत्यल्प पारसी समाज हमेशा दो कदम आगे ही रहा। फिर भी व्यक्तिगत जीवन में हर एक पारसी अपनी निजी जिंदगी को बड़ी अच्छी तरह निभाता रहता है। इन अग्नि पूजक पारसियों के कुछ धार्मिक एवं सांस्कृतिक आचार-व्यवहारों में भारत की विभिन्न सभ्यताएँ प्रतिबिंबित होती हैं। वैसे कुछ आचार काफी रहस्यमय दिखाई देते हैं। उनकी अग्यारी में अन्य धर्मियों के लिए प्रवेश निषिद्ध होता है, चाहे वे अग्नि के साथ पंच महाभूतों का पूजन करने वाले हिंदू ही क्यों न हो ? इसी के फलस्वरूप इस समाज को लेकर बाकी सभी लोगों के मन में आदर भाव एवं परायापन साथ-साथ होते हैं।

ऐसा यह पारसी समाज पिछले कई दशकों में बड़ी तेज गति से घटता जा रहा है। इस समाज की जनसंख्या अब इस मात्रा में कम होती जा रही है, कि कुछ बरसों बाद वे गिने-चुने ही न राह जाएं, ऐसा भय मालूम हो रहा है। इसीलिए देश की बढ़ती जनसंख्या पर रोक लगाने हेतु एक ओर कड़े कानून और उनकी कड़ी कार्यवाही की जा रही है, तो दूसरी ओर पारसी समाज को बच्चों को पैदा करने हेतु आवाहन करना जरूरी हो रहा है। भारतीय कानून के अनुसार दो से ज्यादा बच्चों वाले अभिभावकों के खिलाफ कड़ा रुख अपनाया गया है, ऐसे व्यक्ति को सरकारी सेवाओं में कितनी ही सुविधाएं देने से इंकार किया जाता है। चुनाव लड़ने का अधिकार भी उसे दिया नहीं जाता। इसके विपरीत अल्पसंख्यक पारसी समाज को ऐसे कानून से रियासत देनी चाहिए, ऐसा न्यायपालिका भी सोच रही हैं। हाल ही में एक पारसी दंपति के विवाह विच्छेद के मामले के संदर्भ में मुंबई उच्च न्यायालय ने अपना मत प्रकट किया था। पारसी समाज की जनसंख्या जिस गति से घट रही हैं, उसे रोकने के इरादे से पारसी लोगों को दो से अधिक बच्चों को लेकर विद्यमान कानून से अलग रखने के बारे में सोचना चाहिए, ऐसा न्यायालय का कहना है।

‘बॉम्बे पारसी पंचायत’ के प्रयास

बॉम्बे पारसी पंचायत की ओर से पारसी दम्पति के दूसरे बच्चे के लिए प्रति माह 3000 रुपये, तो तीसरे बच्चे के लिए प्रति माह 5000 रुपये, वह बालक 18 बरसों का हो, तब तक प्रोत्साहन के रूप में दिया जाता हैं। बॉम्बे पारसी पंचायत (बीपीपी) भारत में ईरानी पारसी समाज की उच्चतम समिति है। सन् 1672 में ब्रिटिश सरकार के इख्तियार में इस संगठन की स्थापना हुई। पारसी समाज में विभिन्न हिस्सों की यह संस्था सहायता करती है। आर्थिक दृष्टि से पिछड़े वर्ग की आर्थिक सहायता करती है। निवास के हेतु मकान उपलब्ध करा देती है, अत्यल्प ब्याज दर में कर्ज उपलब्ध करवाती है। युवकों को नौकरियाँ उपलब्ध कराती है। स्वास्थ्य, शिक्षा आदि को लेकर सुविधाएँ उपलब्ध कराती है। जमीन-जायदाद के मामलों में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती है। पारसी पारिवारिक मामलों के संबंध में बॉम्बे पारसी पंचायत के कुछ खास नियम हैं। खासकर पारसी समाज में विवाह विच्छेद के मामलों में बीपीपी की विशेष समिति काम करती है। पारसी समाज की जनसंख्या बढ़े इस उद्देश्य से भी बीपीपी अपनी ओर से काफी प्रयास करती है। आर्थिक सहायता के साथ ही फर्टिलिटी सेंटर में पारसी दाम्पत्यों को आईएफवी की सुविधा नि:शुल्क उपलब्ध करा देना, विवाहेच्छुक युवाओं के हेतु विवाह मंडल चलाना आदि कितने ही उपक्रम यह समिति कार्यान्वित करती है। इन सभी प्रयासों का फल कितना-कैसे मिलता है, इस लेकर आखिर संदेह ही खड़ा रहता है। इतने सारे का महत्त्वपूर्ण कारण यही कि, इस समस्या की जड़ पारसी व्यक्ति की वृत्ति-प्रवृत्तियों में ही है, ऐसा काफी अध्ययन होने से साबित हुआ है।

चौकाने वाले आंकड़े

भारतीय जनगणना के अनुसार पारसी समाज की जनसंख्या सन 1881 में 8,539 थी, जो सन 1941 में 1,14,890 तक पहुंची सन् 1951 से लेकर हर बार की जनगणना में पारसी समाज की जनसंख्या घटती ही जा रही दिखाई दी। सन् 1991 की जनगणना में पारसी समाज की जनसंख्या 76,382 तक नीचे उतरी और सन् 2001 की जनगणना के अनुसार पारसी समाज की जनसंख्या 69,601 इतनी कम हो गई । ये सभी आँकड़े पारसी समाज के भविष्य के बारे में चिंतित कराने वाले हैं। दुनिया में भी पारसी समाज की जनसंख्या 1,12,367 और 1,21,367 के दरम्यिान ही बच पाई है।

पिछले कई दशकों से बहुत से जनसंख्या विशेषज्ञ पारसी समाज की इस समस्या को लेकर अध्ययन कर रहे हैं। दुर्भाग्य से लगभग सभी पारसी इस वास्तविकता से इंकार करते दिखाई देते हैं। इस चर्चा के जवाब के रूप में जनसंख्या के घटने के दावे में कुछ तथ्य न होने का आभास निर्माण करने वाले ई-मेल, एस एम एस पारसी समाज में लोगों को फॉरवर्ड किए जाते हैं।

उदाहरण के रूप में-

” Parsi might die, but Zorastrianism will live on.”
” Parsi community is dying? Who’s dying? I am here and so you are.”
” What does the size of population matter? Its Quality verms Quantity afterall.”
इस समस्या का लिहाज जिन्हें हुआ, वे अपनी-अपनी ओर से अलग अलग बहाने करते हैं। कोई कहता है कि विदेशों में स्थनातरित होने के कारण जनसंख्या कमी आई है, जबकि कुछ लोगों के अनुसार आंतरजातीय विवाह के कारण पारसी समाज की जनसंख्या कम हुई है।

विवाह के बारे में पारसियों की स्थिति

हार्वर्ड विश्वविद्यालय में इतिहास विषय में पी.एच.डी करने वाले 29 वर्षीय युवक दिनयार पटेल ने पारसी जनसंख्या के संदर्भ में बहुत से अनुसंधानकर्ताओं के अभ्यासपूर्ण प्रतिवेदनों का शोध निबंधों का अवलोकन किया, उसमें से एक वास्तविकता उसके सामने आई, वह ऐसी कि, पारसी जनसंख्या घटने में और कोई न होकर स्वयं पारसी व्यक्ति ही जिम्मेदार है। इस समस्या का सबसे महत्त्वपूर्ण कारण यही है कि पारसी विवाह करने में विलंब करते हैं या विवाह करते ही नहीं। इस वास्तविकता से आम पारसी समाज परिचित हो, इस उद्देश्य से यह युवक इस विषय पर यथासंभव-यथास्थान भाषण देता है। नियतकालिकों में लेख लिखता है। बॉम्बे पारसी पंचायत ने भी पटेल के निष्कर्षों पर गंभीरता से सोचा है। पिछले वर्ष मुंबई के नेहरू सांईस सेंटर के सभागृह में पटेल ने इस विषय पर एक भाषण दिया था। इस भाषण में पटेल ने कहा था, ‘‘लगभग सभी पारसी मानते हैं कि आंतरजातीय विवाह पारसी समाज की जनसंख्या कम होते चलने के मूल में है। मुंबई या भारत के दूसरे इलाकों में विद्यमान कानून के अनुसार अगर पारसी पुरुष और गैर पारसी महिला का विवाह हुआ, तो उनके बालक जोरास्ट्रियन या पारसी माने जाते हैं, लेकिन अगर पारसी महिला और गैर पारसी पुरुष का विवाह हुआ, तो उनके बच्चों को पारसी या जोरास्ट्रियन नहीं माना जाता, उसके फलस्वरूप पारसी समाज में से आंतरजातीय विवाहों की बढ़ती मात्रा को जनसंख्या के घटने का मूल कारण माना जा सकता है। फिर भी यह सबसे महत्त्वपूर्ण कारण नहीं, इस पर गौर करना चाहिए।
ऐसा भी कहा जाता है कि, पिछले कुछ दशकों में पारसियों के भारत में से पाश्चिमी देशों में स्थनातरित करने से भारत में उनकी संख्या कम हुई है। फिर की जनसंख्या का अध्ययन करने वाले विद्वानों ने स्थनातरित को पारसी जनसंख्या के घटने का प्रमुख कारण मानना अस्वीकार किया है और इस संबंध में उपलब्ध प्रमाणों पर चिंतन किया, तो भी पारसी समाज की कुल संख्या में बड़े पैमाने पर वृद्धि दिखाई नहीं देती। इसके माने यही कि आंतरजातीय विवाह अथवा स्थनातरण ये दोनों पारसी जनसंख्या घटने में प्रमुख कारण नहीं हैं। जनसंख्या अध्येताओं के मतानुसार बहुत सारे पारसी विवाह करने में भारी विलंब करते हैं अथवा विवाह बिल्कुल करते ही नहींं, उसके परिणाम जन्म दर के ऊपर होते दिखाई दे रहे हैं।’’

आज तक जनसंख्या का संबंध प्रजनन क्षमता के साथ जोड़ते पारसी समाज में प्रजनन क्षमता बहुत कम होना यह आमतौर पर माना जाता था, लेकिन पटेल ने अपने विवेचन के क्रम में इस धारणा को निराधार बताया है, क्योंकि विवाह होने में विलंब हुआ कि ढलती उम्र में प्रजनन क्षमता के कम होने से बच्चे होने की संभावना कम होती है। उससे एक या दो बचे हुए तो भी सौभाग्य माना जाए। विद्वानों के अध्ययन का संदर्भ देते हुए पटेल कहते हैं, ‘‘सन 1961 में बॉम्बे पारसी पंचायत ने पारसी जनसंख्या का विशेष अध्ययन करवाने हेतु, सरकार से आवाहन किया, उसके अनुसार तत्पश्चात हुई जनगणना में पारसी जनसंख्या का विशेष अध्ययन किया गया। उसके अनुसार उम्र के पचासवें बरसों में पहले विवाह करने वाले पुरुषों की मात्रा 31.2 प्रतिशत हैं तो महिलाओं की मात्र 26.8 प्रतिशत है। अब सन 1991 में किये गये अध्ययन में भी यह मात्रा सन 1961 जितनी ही थी, ऐसा ज्ञात हुआ। इंटरनेशनल इन्स्टीट्यूट ऑफ पॉप्युलेशन स्टडीज के अध्येताओं द्वारा प्रस्तुत किए गए शोध निबंध के अनुसार भारत में 5 पारसी पुरुषों में से एक, तो 10 पारसी महिलाओं में से एक अपनी उम्र के 50 बरसों तक अविवाहित रहती हैं। पारसी समाज का अध्ययन करने वाले विद्धानों के मतानुसार पारसी लोगों ने अगर विवाह किया भी, तो वह वे ऊँची उम्र में करते हैं तथा उस उम्र में बच्चा न होने से बायोलॉजिकल इन्फर्टिलिटी की समस्या निर्माण हुई है, उसी कारण आज पारसी फर्टिलिटी क्लिनिक्स की जरूरत बढ़ी हुई है।’’

पारसी समाज साधारण प्रवृत्ति निजी व्यक्तित्त्व, व्यक्तिगत स्वाधीनता की रक्षा करने और किसी की दखलअंदाजी बिल्कुल सही नहीं जाएगी, यहां तक कि अपने माँ-बाप की भी। खुद की स्वाधीनता की रक्षा करने की धुन में किसी के साथ समझौता करने की पारिवारिक जिम्मेदारी अपनाने का ख्याल ही कहीं नहीं होता, इसी कारण विवाह न करने की ओर झुकाव बढ़ता जाता है। अगर किया भी, तो उसे बनाए रखने के संबंध में भी यही लापरवाही और स्वभावदोष का रोडा बनते हैं, उससे विवाह-विच्छेदों की मात्रा भी इस समाज में बड़ी है। ‘पेस्तनजी’ (1988) नामक विजया मेहता निर्देशित फिल्म में पारसी समाज की स्वभावगत इन विशेषताओं का तथा उनके दुष्परिणामों का निकट से परिचय होता है।

घटती जा रही जनसंख्या के साथ ही पारसी समाज आज और भी बहुत सारी समस्याओं का सामना करने बाध्य है। ये सभी समस्याएँ एक-दूसरे से जुड़ी हुई हैं। एक ओर जनन की मात्रा घटी हुई है, तो दूसरी ओर मरने वालों की संख्या भी बढ़ी हुई है। सन 2001 की जनगणना के अनुसार पारसी समाज में 1,000 जनसंख्या में 6 से 8 जन्म की मात्रा थी। (साधारणत: 24.8/1000) तो मरने वालों की संख्या 1000 लोगों में 16 से 18 थी। (साधारणत: 9/1000) पारसी समाज में युवकों की अपेक्षा वरिष्ठ नागरिकों की संख्या बढ़ रही है। सन 2001 की जनगणना के अनुसार भारत में पारसी समाज में से 60 वर्ष से वरिष्ठ नागरिकों की संख्या 30.9 प्रतिशत है, तो 0 से 14 वर्षों के बीच के बालकों का संख्या 12.3 प्रतिशत है, इसके माने यही कि दूसरों पर निर्भर गुटों की कुल मात्रा 43.2 प्रतिशत है। लगभग सभी वरिष्ठ नागरिकों को ढलती उम्र में अकेले ही जीवन व्यतीत करना होता है।

इस समाज की और एक महत्त्वपूर्ण समस्या है स्वास्थ्य को लेकर। समाज के बाहर जाकर विवाह न करने पर पारसी समाज अडिग है। पारसी समाज के बाहर जाकर विवाह करने वालों के लड़कों को पारसी संस्थाओं की ओर से कोई भी सुविधा उपलब्ध नहीं कराई जाती। समाज में ही अगर विवाह करना हो तो कई बार खून के रिश्ते के भीतर ही विवाह करना जरूरी होता है। उसी कारण गुण सूत्रों द्वारा अथवा रक्त से संक्रामित होने वाले कितने ही रोगों की मात्रा पारसी समाज में बड़ी है। मिरगी, सेरिब्रल पाल्सी, फेब्राईल सिजर (छोटे बच्चों में), हलचल करने में असमर्थता आदि मज्जा संस्था से संबंधित विकारों में से कम से कम एकाध विकार हर एक पारसी आदमी में पाया जाता है। पाकिस्तान के रोगी भी पारसी समाज में बढ़ी हैं। उम्र के साठ बरसों बाद होने वाली यह बीमारी पारसी समाज में 40 से भी कम उम्र में पाई जाती है। मधुमेह, रक्त का दबाव अथवा अन्य कैंसर जैसे रोग की संभावना भी पारसी लोगों में बड़ी मात्रा में हो सकती है। उसी प्रकार ऊँची उम्र में संतान प्राप्ति होने से हार्मोन्स में होने वाले बिगाड़ों से विकलांगता का खतरा भी हो सकता है, उसके फलस्वरूप पारसी समाज की जनसंख्या में वृद्धि करते समय इस समस्या पर भी गौर करना जरूरी होगा।

पारसी समाज में से युवकों को अपनी घटती जनसंख्या का कोई लिहाज ही नहीं, सो बात नहीं। फिर भी स्वभाव को बदलने की दवाई कौन सी? उसी कारण इसको अनदेखा ही किया जा रहा है। हमारे समाज का कुछ बरसों बाद अस्तित्व होगा भी या नहीं, इसे लेकर संदेह है, ऐसी आशंका बॉम्बे पारसी पंचायत के अध्यक्ष दिनशा मेहता ने व्यक्त की। उस समय वे कहना चाहते थे कि पारसी समाज में से कितने ही लोगों ने इस देश के हित में अच्छा कार्य किया है, उसके फलस्वरूप यह समाज हर्गिज नष्ट न हो, ऐसा तो इस देश का हर नागरिक निश्चित रूप में चाहता होगा। फिर भी उसके लिए प्रयास करना यह तो केवल पारसी समाज के बस की ही बात है।

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