सामने की खिड़की में बैठा वह

दफ्तर जाने को निकलता हूं कि नजर अपने-आप ऊपर जाती है। मैं रहता हूं उसके पास वाले मकान में पांचवां मंजिल की खिड़की में बैठा होता है। शांति से आने-जाने वाले लोगों को देखता रहता है। सुबह सात से ग्यारह बजे तक तथा शाम को सात से रात के ग्यारह बजे तक खिड़की में बैठने का उसका समय हैं, यह मैं अच्छी तरह से जानता हूं।

वैसे खास उसकी ओर ध्यान जाए ऐसा कुछ नहीं है। परंतु बचपन से बड़े होता मैंने उसे देखा है, इसलिए वह खिड़की में बैठा दिखाई देता है। अनायास ही ध्यान जाता है। अन्य लोगों की नजर जाती होगी, ऐसा लगता नहीं है, क्योंकि उतना ऊपर कौन किसलिए देखने जाता है। हाँ, वह भौंकता भी नहीं। मनुष्यों की ओर देखकर भौंकता नहीं । कुत्तों की ओर देखकर भौंकता नहीं। खैर, मनुष्य नहीं, कुत्ते नहीं, तो कम से कम अन्य जानवरों की ओर देखकर तो भौंकता ऐसा लगा। रास्ते में गायें-भैंसे होती हैं, परंतु उस पर कभी भौंकते देखा नहीं। एक बार भालू वाला आया, रविवार का दिन था। भालू की नाक की रस्सी खींंचकर उसने उसे अनेक उलटा-पुलटा उड़ान करवाया। भीड़ बढ़ने लगी। गली के कुत्तों ने चिल्लाकर रोना शुरू कर दिया। शोर मचा रहे थे और दूर-दूर भाग रहे थे, वह शेष कुत्ता पांचवीं मंजिल के धाबे पर बैठा निर्भय होकर देख रहा था। जैसे कि नीचे क्या चल रहा है, उससे उसका कोई वास्ता ही नहीं था। उस घर के लोग दूसरी खिड़की से नीचे देख रहे थे, वे सब ऊबकर अंदर चले गये, परंतु वह तो अपनी जगह पर बैठा ही रहा।

कुर्सी में बैठा हो उस तरह वह बैठता था, उसे बैठने के लिए खास स्टूल अथवा दीवान बनवाया गया होगा, इसके सिवाय ठीक खिड़की से बाहर सिर निकालकर रास्ते पर आने-जाने वाले लोगों पर पहरा देता हुआ बैठा होता। खिड़की पूरी तरह खुली होती है,जाली आदि कुछ नहीं रही तो आधी खिड़की तक पहुंच जाएगा। चाहे तो वह नीचे कूद सकता है, पर ऐसा विचार उसके मन में कभी आता होगा, लगता नहीं।

उसके बाहर घूमने जाने का समय तय किया होता है। रात को ग्यारह बजे वह नीचे आता है, उसका मालिक उसके साथ होता है। मालिक के साथ वह घूमता रहता है। जंजीर से उसके गले का पट्टा बांधा होता है। न चिल्लाना और न खींचा-तानी करना। मालिक की चाल की गति से वह अपनी गति मिलाता उसके चलता रहता है। रास्ते के ऊपर एक-दो चक्कर पूरे होने पर पुन: लिफ्ट के जरिए पांचवी मंजिल पर। सुबह साढ़े सात बजे उसकी प्रभात फेरी प्रारंभ होती है, उस वक्त मालकिन साथ होती है। वह एक-दो चक्कर लगाती है, फिर से लिफ्ट से पांचवी मंजिल और खिड़की इसमें कोई फर्क नहीं । कभी-कभी स्कूल का लड़का रविवार के दिन कुछ दूरी पर स्थित मैदान में ले जाता है, किंतु खींचा-तानी नहीं।

एकदम छोटा था, तब से उसका यह रोज का क्रम चल रहा है। देखते-देखते उसके शरीर और ऊंचाई दोनों में वृद्धि होने लगी। नये-नये रंगीन पट्टे उसके गले में चमकने लगे। सफेद दूध जैसी और गहरे रंग की बूंदें गिरे हुए लंबे केशवाले कान और पुष्ट पूंछ। यह पूंछ काटी जाएगी, ऐसा मुझे लगता था, क्योंकि कुत्तों की पूंछ काटने का आज-कल फैशन है। हमारी बिल्डिंग के एक जाति के कुत्तों की पूंछ काटी जानी है, उसे देखकर बाजू की इमारत के लोगों ने अपने कुत्तों की पूंछ काटी। छोटा होगा, तब काटी हो तो ज्यादा तकलीफ होती नहीं है। मगर बड़े-बड़े कुत्तों की पूंछ काटते समय क्या होगा, किसे पता। कुत्तों की पूंछ काटने वाले विशेषज्ञ डॉक्टर हैं, उसे बाहर निकालने पर रास्ते के कुत्ते शोर मचाते थे, उसके पीछे लगते थे, उसके मालिक के हाथ बेंत की लकड़ी रहती थी, उससे वह उन कुत्तों को जोर से मारता था। अन्य कुत्ते कभी भी उसके नजदीक जा न सके, लड़ने या दोस्ती करने। कुछ दिनों के बाद गल्ली के कुत्तों को उसकी आदत सी हो गई, वे उस कुत्ते की ओर देखना टालने लगे। शुरू में वह अन्य कुत्तों के प्रति भाव देता था। सुबह में मालकिन उसे लेकर बाहर आती थी। कुत्ते भौंकना शुरू करते, वह भी भौकंता था। मालकिन जोरों से उसकी पीठ पर बेंत की लकड़ी से वार करना शुरू करती। वह केवल कुंई—-कुंई करके… । उसका चिल्लाना बंद हुआ, वह शायद हमेशा के लिए। मन ही मन दु:ख का गुस्सा दबाकर जीने वाले मनुष्य की तरह बीच-बीच में दिखाता था, उसे क्या चाहिए, किसे पता। एक बात तो सिद्ध हो गई कि वह गूंगा नहीं है।

एक ही सवाल मुझे सता रहा है। घर आने वाले अपरिचित व्यक्ति पर भी भौंकता है क्या? मुझे पता नहीं, क्योंकि उसके मालिक और मालकिन मेरे परिचित नहीं हैं और इसी वजह से मैं उनके यहां गया नहीं हूं, फिर-भी एक बार पांच मंजिल चढ़कर उनके फ्लैट की बेल बजाने का विचार है, जहां आदमी के रहने के लिए जगह नहीं है, वहां भीड़-भीड़ में कुत्ते पालने वालों की कमी नहीं और वह भी रास्ते में छोड़ दिए गए निकम्मे कुत्तों की, उनमें से पागल कितने हैं, पता नहीं, परंतु सदैव बंधे हुए इन कुत्तों को यदि शहर में छोड़ दिया गया तो एक या दो ही घंटों में ये कुत्ते अवश्य पागल हो जाएंगे। पागल कुत्ता भोंकता नहीं है, वह तो सीधा काट ही लेता है। इसी वजह से उनके द्वार पर बेल मारूं या नहीं, उसी असमंजस में मैं रुका हूं।

कुर्सी में बैठा हो उस तरह वह बैठता था, उसे बैठने के लिए खास स्टूल अथवा दीवान बनवाया गया होगा, इसके सिवाय ठीक खिड़की से बाहर सिर निकालकर रास्ते पर आने-जाने वाले लोगों पर पहरा देता हुआ बैठा होता। खिड़की पूरी तरह खुली होती है, जाली आदि कुछ नहीं रही तो आधी खिड़की तक पहुंच जाएगा। चाहे तो वह नीचे कूद सकता है, पर ऐसा विचार उसके मन में कभी आता होगा लगता नहीं।

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