संत रविदास की राम-कहानी कवि देवेन्द्र दीपक की प्रथम औपन्यासिक रचना है। लेकिन इसमें एक अनोखापन है। अधिकतर जीवनियां जिस ढ़ंग से लिखी जातीं हैं, वह उतनी प्रभावी नहीं हो पाती, क्योंकि जीवनी पात्र पाठक से सीधा संवाद स्थापित नहीं कर पाते हैं। इस राम कहानी में ऐसा नहीं है। लेखक ने संत रविदास के जीवन-दर्शन को समझकर सटीक शैली का प्रयोग किया है। इस महापुरुष के प्रमुख जीवन प्रसंगों को रोचक वार्तालाप शैली में वर्णन किया गया है। कहीं-कहीं तो स्वयं ही कथन उनके द्वारा प्रस्तुत किया गया है। लेखक ने रविदास जी से काल्पनिक बातचीत करते हुए इस राम कहानी को उनसे ही स्वयं अभिव्यक्त करवाया है। इस कारण यह पुस्तक पाठक से सीधा संवाद स्थापित करने में सफल हो गई है।
प्रत्येक संत एक असाधारण विभूति वाला होता है, उसमें कुछ ऐसी बात होती है, जो उसे दूसरों से कुछ अलग बना देती है। सामाजिक परिस्थिति और सत्य सभी देख पाते हैं, मगर बहुत कम लोग समझ पाते हैं। संत तो इसी कोशिश में शुरु से ही लगे हुए होते हैं। इस मायने में वे किसी वैज्ञानिक से कम नहीं होते हैं। न्यूटन से पहले कई लोगों ने पेड़ से सेव गिरते देखा था, लेकिन गुरुत्वीय बल का अनुसंधान न्यूटन ही कर पाए। इसी तरह जीवन में घटती घटनाओं को संत देखते रहते हैं और उसमें निहित तत्व को वे भांप जाते हैं। यह सत्य वे समाज के सामने सरल भाषा में रखकर उसे समझाने का प्रयास करते हैं। इस पुस्तक में बाल रविदास जी का यही प्रयास एक प्रसंग से उजागर होता है। पाठशाला में प्रवेश पाने हेतु बाल रविदास गंगा पार जाते हैं। गुरु जी ने वहां पधारे तीनों लोगों से बारी-बारी से एक ही प्रश्न पूछा- एक और एक मिलकर कितने होते हैं? इस आसान से सवाल का संत रविदास उत्तर देते हैं-एक और एक मिलकर एक होता है।
उनका यह उत्तर गुरुदेव के मन को छू जाता है। मगर रविदास को पाठशाला में प्रवेश नहीं दे पाते हैं, उसमें जाति और वर्ण आडे आता है, लेकिन गुरुदेव कहते हैं, तुम्हारा शील अपरा नहीं, परा विद्या की ओर संकेत कर रहा है। रविदास जी को आत्मबोध हो जाता है। मन रे चलि चटसाल,पढ़ाऊं। आचार्य की पाठशाला नहीं, हरि की चटसाल, वहां की बाहरी खड़ी अलग होगी। अन्य पाठशाला में अ से अमरूद, लेकिन हरि की चटसाल में पढ़ेगा अ से अज्ञान, यहां पढ़ेगा म से मकान, यहां पढ़ेगा म से मोर-तोर का तजना। यहां पढ़ेगा र से रहट, यहां पढ़ेगा र से राम, ऐसे इस पुस्तक में अनेक प्रेरक- प्रसंग मोतियों जैसे बिखरे पाए जाते हैं। इस राम कहानी के साथ-साथ संत रविदास की सखी और सबद, समानांतरण रूप से चलते हैं। यह प्रेरक पद्य पंक्तियां पाठक के मन को छू लेती हैं और संत रविदास की सीख को कोमलता से उजागर करती है। इस तरह से लेखक ने रविराज जी के मर्म को उकेरने का प्रयास सफल प्रयास किया है। इस पुस्तक के संदर्भ में सुपरिचित विद्धान लेखक डॉ. बलदेव वंशी का कथन इस तरह से है-
इस पुस्तक में संत के मन-आत्म की पारदर्शी निर्मलता तथा हाथ के श्रम के प्रति गहरी आस्था व्यक्त हुई है। अपने समाज के श्रमशील उज्ज्वल समुदाय को दलित बना दिए जाने की पीड़ा के साथ भारतीय मूल्यों की पड़ताल करते हुए सामाजिक न्याय, समता, संवेदना की हितैषी स्थापनाएं भी हुई हैं। भारतीय समाज में फैले धार्मिक पाखंड को निरस्त करती एवं रविदास के ब्रह्माणव्यापी राम तथा गुरु रामानंद की देशना को रूपायित करती यह रचना अपने काव्यात्मक ललित गद्य के कारण आकर्षक एवं पठनीय है। समाज की उपेक्षा सहन कर मन में अणु मात्र द्वेष भावना न रखते हुए इस समाज को एकत्व की अनुभूति देने वाले संत रविदास जी की जीवन कहानी तथा साखी की आवाज को उतनी ही आवश्यकता है, जितनी की पहले थी। घृणा के अंधकार को समाप्त करने हेतु यह ज्योति जलाने वाले देवेंद्र दीपक जी का कार्य अत्यंत प्रशंसनीय है।
संत रविदास की राम कहानी
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