भारत, पाक, अमेरिका-संबधी के तेवर!

1947 में जब भारतीय उमहाद्वीप आजाद हुआ और उसके दो टुकडे बनाम भारत और पाकिस्तान विश्व राजनीतिक पटल पर उमर कर आए। उस समय विश्व राजनीति भी स्पष्ट रूप से दो भागों में विभाजित थी। एक भाग की सरहदस्ती अमेरिकन हाथो मे थी, तो दूसरी की डोर सवियत रुस ने थमी थी। इस प्रकार दुनिया के कई देश या तो अमेरिकन ब्लाक या फिर रुसी ब्लाक में थे। लेकिन कुछ देश ऐसे भी थे जो दोनो में, किसी के साथ नही थे। रुसी, दोनो ब्लाकों से दुशमनी भी नही थी। इसी तिसरे ब्लाक मे 1955 मे एक तीसरा गट बनाम निर्गुट सम्मेल बना।

पंडित नेहरु की अगआई में भारत सरकार ने आजादी के तुरंत बाद रुसी समाजवादी और अमेरिकी पूंजीवादी ब्लाक से न तो बहुत दूरी रखी और न निकटता। अलबत्ता चाहे कोरिया की समस्याहो, चाहे वेतनाम पर अमेरिकी हमलों की या फिर सोएल नहर के मामले मे मिश्र पद ब्रिटिश बमबारी, भारत मे खुलकर अमेरिकी और ब्रिटिश नीतियों की निंदा की। इसी प्रकार उन दिनों चीन को लेकर भी भारत ने अमेरिकी विरोध की नीति अपनाई। इन सबका नतीजा यह हुआ कि अमेरिकी दृष्टिकोण से भारत पूंजीवादी देशी, विशेषकर अमेरिका-ब्रिटेन का विरोधी और सोवियत समाजवादी रुस का समर्थक करार दिया जाने लगा। हालांकि यह बहुत हद तक सच नही था। समाजवादी रुस के विरोधी दूसरे समाजावादी देश, क्यूबा, युगोस्लाविया, हंगेरी, पोलैंड इत्यादि रूस के विरोधी होते हुए भारत के निकटवर्ती मित्रों में थे।

उधर नेहरु काल (1947-1964) में हमारे यहां रुसी आइल की पंचवार्षिक योजनाओं की बड़े पैमाने पर आर्निक विकास योजनाएं शुरु हुई। उन योजनाओं के अंतर्गत देश के कई स्थलों पर बड़े बड़े डैम, तरह तरह के विशाल उद्योग तलाश जाने लगे। इसमे सबसे प्रमुख था इस्पात उद्योग। यह सच्चाई जग जाहिर है कि उन दिनों और आज भी इस्पात की ज्यादा से ज्यादा खपत करने वाला देश ही विकसित और घातक समझा जाता रहा है। जहां अधिक से अधिक इस्पात (स्टील) की खपत होती है, वहां ज्यादा से ज्यादा घर, मकान, इमारते, बनती हैं। कारे, ट्रक बनते हैं। कई तरह की मशीनरी बनती है। इस्पात से ढेरो उपभोक्ता वस्तुएं बनाई जाती हैं। जब देश में ज्यादा से ज्यादा इस्पात बनेगा, तो देश प्रगती करे तो।

इस सिलसिले स्थल देने की बात यह हैं कि आजादी के पहले 1946 से हमको उद्योगपतिकों, ने मुंबई प्लान नामक एक प्रस्ताव के द्वारा के देश की हुकूमत से भारी उद्योग लाटने की सलाह दे रही थी। इसी भारी उद्योग में इस्पात मी शामिल था। इसके अलावे पेट्रोलियम, ऊर्जा, कोयला, सड़के, रेल्वे इत्यादी तो थे ही। चूंकि निजी तेज के पास इतनी क्षमता नही थी, उसके पास न तो धन था और व दूसरी सहूलियतें, इस लिए उद्देम सरकार से भारी उद्योग लगाने का आग्रह किया। पंच वार्षिक योजनाओं के अंतर्गत ‘गलती’ से समाजवाद के का ठप्पा लगाकर देश के कई भागों में दूसरे कई भारी उद्योग के सत्य इस्पात के कारखानों की योजना भी बनी। इस प्रकार समाजवादी रुसी माइल की पंचवर्षीय योजना से द्वारे यहां, दुर्गपर, मिलाई, राउरकेल और बांकारी, मे विशाल इस्पात कारखाने खोले गए। इनमें अरबी-खरबों स्थल और मानवीय शक्ति का उपभोग हुआ। इसमें शक नही कि इन सभी इस्पात कारखाने के लिए ब्रिटेन, फ्रांस, और जर्मनी का सहयोग प्राप्त हुआ, लेकिन, सबसे ज्यादा और महत्वपूर्ण सहयोग समाजवादी रुस से मिला। छल देने की बात यह है कि सरकारी क्षेत्र के इस इस्पात का सबसे ज्यादा फायदा हमारे अपने निजी क्षेत्र के उद्योग पंक्तियो ने उठाया। कैसे- यह एक दूसरा बड़ा मुद्दा है, जिसपर अल्हा से लिखने की जरूरत है, हमारा मानना है कि सरकारी इस्पात का हमारे निजी, उद्योगपंक्तियो ने उपयोग करके अपनी पूंजी बढ़ाई लेकिन रुसी सहायता के कायदा विश्व भर में भारत पर रुसी समर्थक का ठप्पा लगा। इसका सबसे बड़ा फायदा पाकिस्तान ने भी उठाया और दुनिया भर में खासकर एमरिका के सामने भारत-रुस गहरे संबंध को इस समूचे क्षेत्र में समाजवाद के बिस्तार की दलील दी। पाकिस्तान का उस दौर में करना था कि भारत रुस की सहायता से उसे समाप्त कर देगा। संयोग से साठ-सत्तर दहाई में पाकिस्तान का पड़ोसी अफगाणिस्तान भी रुस के निकट था। इस प्रकार पाकिस्तान दुनिया भर में रुस, भारत और अफगाणिस्तान का भय बताकर अपने लिए हर तरह की फौजी और दूसरी आर्थिक सहायता जुटाता रहा। हमारा रूस से तो रिश्ता कलका टूट चूका है, लेकिन पाकिस्तान को आज तक हर तरह की बडी से बडी अमेरिकी फौजी और दूसरी आर्थिक सहायता मिल रही है। कुछ वर्षो पहले (1979) पाकिस्तान रुसी हमले का खतरा बताकर अमेरिका से सहायता ले रहा था। उन दिनों एक लाख रुसी सेना अफगाणिस्तान में थी। उसके बाद अलकायदा और दूसरे दहशत वालो से निसटने के नाम पर अमेरिका और दूसरी कई देशों (जिसमें सऊद) अरब प्रमुख है। से भी पाकिस्तान हर तरह की मदद ले रहा है।
अफगाणिस्तान पर रुसी हमले ने तो पाकिस्तान की तकदीर थी। अरबो खरबों, डालर, रियाल और पांउड से पाकिस्तान माला माल हो गया। उन दिनों (1979-1983) पाकिस्तान में हर किसी ने, जिसे भी, जहा भी मौका मिला अपना उल्लू सीधा किया। मजे की बात यह है कि पाकिस्तान, उन दिनों, बल्कि आज भी कांटे बडे कई आतंकि हमले होते रहे और अमेरिका खुली आंखो से सब कुछ देखता रहा है।

अपनी भागौलिक स्थिति का लाभ उठाते हुए वास्तव मे पाकिस्तानी शासको ने शुरु से ही अमेरिका को ब्लॅक मेल किया है। पाकिस्तान के पड़ोस में कई गैर अरब इस्लामी देश हैं। उनमे प्रत्येक का अपना महत्व है। अमेरिका उन्हे नजरअंदाज नही कर सकता है। उनमें अफगाणिस्तान से अतिरिक्त ईरान, उजबेकिस्तान, चीन का मुस्लिम भाग शामिल है। उनमे दबाव डालने के लिए अमेरिका के लिए पाकिस्तानी अड्डा बहुत उपर्युक्त था। दूसरी और अमेरिका भारत पर भी घौंस जमाने के लिए पाकिस्तान को सिर पर बैठाया। वैसे भी अमेरिका को भविष्य के लिए एशिया के इस पूर्वी भाग में एक उचित कालोनी की जरूरत थी। पाकिस्तान को प्राथनिकथा देने का एक और कारखा था, रुस से उसकी भौगोलिक दूरी। अफगाणिस्तान से लगा रुसी उजबेकिस्तान और ताजिकस्तान पाकिस्तानी सरहद से ज्यादा दूरी पर नही हैं। इस प्रकार अमेरिका भारत के साथ साथ रुस को भी मनोवैज्ञानिक सिर दर्द और तनाव देना चाहता था। उसे किसी कीमत पर पाकस्तिान चाहिए था।

1947 में पहले प्रधानमंत्री लियाकतअली खां की विदेश नीति में रुस-अमेरिका का कोई वर्धक नही था। उनके लिए उस समय दोनो बराबर थे। लेकिन, यह भी सच है कि रुसी हुकूमत के दूसरे मंत्रियों और उच्च नौकर शाहों का ब्रिटेन और अमेरिका की और मुटाव था। उन दिनों पाकिस्तान में एक छोटी सी लेकिन प्रभावशाली रुसी लाबी भी थी, जो कुछ दिनो बाद बिल्कुल समाप्त कर दी गई। मशहूर शायर फ्रैज अहमद फ्रैज और पाकिस्तान कम्युनिस्ट पार्टी के जनरल सेक्रेटरी सज्जाद जहीर और उनके कई साथी एक षड़यंत्र राजदौर षड़यंत्र के मामले में फसाए गए और इस प्रकार पाकिस्तानी शासन में 1951-52 के बाद से ही अमेरिकी प्रभावशाली लाबी सक्रिय होने लगी। अमेरिकी प्रशासन ने भी उस दौर में पाकिस्तान के लिए अपना डालर का खजाना खोल दिया था।

उसी बीच 1951 मेें पाकिस्तानी प्रधानमंत्री लियाकत अली खां को रुसी राष्ट्रवादी जोसेफ स्टालिन का, रुस यात्रा का निमंत्रण मिला। या एक बहुत बड़ी और महत्वपुर्ण बात थी। उसके तुरंत बाद पाकिस्तानी अमेरिकी लाबी में होड़ मच गई। रात कि यह-प्रयास होने लगा कि कैसे प्रधान मंत्री को रुस जाने से रोका जाए। चुनांचे, उनका रुस जाना भी कांन्सिल हुआ और उसके बदले में लाबी ने उनके लिए अमेरिकी राष्ट्रपति आईजन आवर का निमंत्रण पत्र मंडावाया। इस प्रकार 1951 में पाकिस्तानी प्रधानमंत्री रुस जाते जाते अमेरिका पहुंच गए। उसके बाद तो अमेरिका से पाकिस्तान की ‘दोस्ती’ एक दस्तावेज है। ध्यान रहे कि कशमीर के मामले को लेकर भी 1947 के बाद पाकिस्तानी नौकर शाह और फौजी अफजल अमेरिकी हथियारों के शैदाई हो गए थे। पाकिस्तान को हथियार मिलना था और उन्हें कमीशन इस साजेदारी का तमागड आगे 1955 मे देखने को मिला।
1955 में अमेरिका ने बगदाद पैक्ट के नाम से इराक, तुर्की, और ईरान का एक फौजो संगठन बनाया। उसका उद्देश्य था रुसी विस्तार को रोकना। अमेरिका ने इस फौजो संगठन में पाकिस्तान को भी शामिल किया। इसके लिए पाकिस्तान के फौजी अफसरो ने बड़ा रोल खैला। बाद में इराक में शासन बदला तो संगठन ने सट्टे का रुस धारसा करके तुर्की के अंकटा में हेडक्वार्टर बनाया। उसके बाद पाकिस्तान को अमेरिका ने दहिता एशिया के फौजी संगठन एसईएटीओ में भी कसोटा यकीनन इन दो खतरनाक फौजी संगठनो के कारदार भारत की सुरक्षा को खतरा हुआ। सच तो यह है 1965 में और फिर 1971 में पाकिस्तान ने भारत से जड के दौरान ज्यादातर अमेरिकी हथियार ही इस्तेमाल किए। इस प्रकार छोटे छोटे एक प्रक्ता से अमेरिका ने पाकिस्तान को वाकई में अपने कालोनी बनाई और भारत से दूरी रखे। धीरे धीरे अमेरिका पाकिस्तान की लगभग हर नीति पर छाने लगा। यहां तक भी कहा जाता हैं कि पाकिस्तान में कैबिनेट बनने के पहले ‘व्हाईट हाऊस’ से स्वीकृति लेनी पड़ती है।
पिछले 15-20 वर्षों से, खासकर रुसी समाजवादी के बिखरने से भारत अमेरिका के संबंधों में कुछ नर्मी आई है, लेकिन, आज भी कई मामलों में भारत आंख बंद करके अमेरिका का समर्थक नही करता हैं। इराक पर हुए हमले और बाद में अफगाणिस्तान की तबादी के लिए भारत का एक बड़ा वर्ग खुले आम अमेरिका की निंदा करता है।

सन 2000 में अफगाणिस्तान पर हमला, करने के लिए अमेरिका से खुलकर पाकिस्तानी फौजी अड्डो का उपयोग किया। आज भी पाकिस्तान मे अमेरिकी फौजी अड्डे है, जो कई बार ऐसा भी हुआ है कि पाकिस्तान की सरहद में ही उन अड्डों से दहशतवादो पर हमला करने के नाम पर सैकड़ो मासूम पाक नागरिक का खून हुआ है। मजे की बात यह है कि अमेरिका-पाक संबंदाी की लेकर पाकिस्तान की सिविल सोसाइटी बिल्कुल खामोश है। दर असल उसे भी, इस संबंदा का नाम मिलना है। इस लिए वह अमेरिकी विरोधी क्यो हो। इसके अलावे, अमेरिकी विरोध की बात एक सीमा तक ही है। उसके बाद नही। उसमे हर पाकिस्तानी को अमेरिका चाहिए ही।

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