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कपड़े

कपड़े

by डॉ सूर्यबाला
in कहानी, नवम्बर- २०१२
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‘दर्जी मास्टर एक लड़का लाया है मेम साब।’
‘भेजो–’।
अब बच्चन लाल दर्जी मास्टर मेरे सामने खड़ा था और सामने खड़े लड़के की ओर इशारा करके धारा-प्रवाह बोले जा रहा था, ‘‘अब आप ही सोचें, साहब, आजकल छोरे जल्दी-जल्दी मिलते कहाँ हैं, और वह भी ईमानदार, वो तो आपकी कड़ी ताकीद थी सो मैंने कहा चाहे जैसे हो ढूंढ़ कर ले चलूंगा मेम साब के लिये। अब आपको तकलीफ हुई तो मेरी खिदमत से फायदा? यह तो कहिये साहब छोरे की छुट्टी है, वर्ना…
छुट्टी? छुट्टी कैसी?।
‘जी साहब स्कूल से, पाँचवीं में पढ़ता है।’ नजर घुमाई तो बारह-तेरह साल का दुबला-पतला लड़का पीले बदरंग चारखाने की झिल्लड़ कमीज और तमाम सारे खोंचा लगा पाजामा पहने, दुबली सावली हथेलिया जोड़े जाने कब से ‘नमस्ते’ जैसी किसी मुद्रा में खड़ा था। आयी हँसी दबा कर बोली।

‘तब स्कूल खुलने पर तो चला जायेगा, फिर?’ ‘फिर तो साहब मैं हूँ ही। दूसरा ढूढ़ दूँगा।…यों समझिये बड़ी मुश्किल से ढूंढ़ा है। आपने कहा था, मेहमान आने वाले हैं, सो बात मुझे याद थी। मैं जानता हूँ न, ‘साहब– लोगों के घर में एक खानसामे एक महारी से क्या बनता है! विलायत वाली मेम साहब तो सवा सौ बस आया को ही देती थीं और ये आया भी तो ऐसी वैसी गंवारनों में थोड़ी थी, अंग्रेजी तो ऐसी बोलती कि…
‘लेगा क्या?’
‘अब यों समझिये साहब, आप लोगों से क्या कहना है। आप तो जानती ही हैं गरीब का लड़का है, गाँव में खाने-पहनने को है ही क्या–कभी आधी कभी सूखी, कभी वह भी नहीं। दो जून खाना मिल जाये इसे, कुछ कपड़े बनवा दें, बाकी जो आपकी मर्जी हो दे दें…अब सात-आठ दिनों के लिये क्या मुँह खोलना। आप ही जैसों के आसरे तो हम’…

अंदर से बेबी के रोने की आवाज आई। अपू के स्कूल जाने का समय हो रहा था। बच्चन लाल के भाषण का कोई ओर-छोर ने देख कर जल्दी से बोली–‘ठीक है, तुम जाओ, इसे’ देखेंगे। कपड़े भी तो बिलकुल गंदे पहन कर आया है।
‘वहां तो साहब, यों समझिए कि खाने भर का’…

मैं खांझकर चल दी तो बच्चन लाल गरीबी की व्याख्या अधूरी छोड़, एक जोरदार सलाम ठोक, दरवाजे की ओर मुड़ गया।
लड़के को ध्यान से देखा तो परेशान हो उठी, इतने गंदे कपड़ों वाला नौकर कोई देखेगा तो क्या सोचेगा? इससे तो बिना नौकर ही अच्छा; और मेहमान भी कोई ऐसे-वैसे नहीं, कंपनी के डाइरेक्टर-इन-चार्ज। सोचा, जाने दो, आशु को कमरे में चुप रक्खे और रोने पर शहद की चुसनी दे दें तो ही बहुत है…पर अपना मन भी तो नहीं भर रहा था।…खैर,…
‘नाम क्या है?’
‘चंदू! चंदन’…
वह आशु के कपड़े फैला कर आया था, धूल भरे गंदे पाजामे में हाथ पोंछ रहा था।
‘ए– चंदू। देखो, उधर साबुन से हाथ साफ कर, तौलिये से पोंछ कर, बेबी को गाड़ी में घुमा लाओ।’…
बड़ी तत्परता से उसने हाथ साफ किये और प्रैम लेकर बाहर चला गया। शाम की आखिरी ट्रेन का टाइम भी समाप्त हो गया, मिस्टर फारिया नहीं आये। साढ़े पाँच के करीब चंदू प्रैम लेकर लौटा।

‘सुनो, तुम कितने बजे आओगे।
‘जब तुम कहेंगी,तब चला आऊंगा।
स्वर तो संकुचित था, किंचित शालीन भी, पर ‘तुम’ मस्तिष्क को झनझना गया। पाँचवीं में पढ़ता है, बोलने की तमीज नहीं।
‘तुम’ नहीं, आप कहते हैं समझे?…अपने लिये ही ‘आप’ सिखाने में थोड़ी खींझ भी आयी।
‘जी-जी, हाँ-आप’

सोचा मेहमान तो आये नहीं, कल इस गंदे को बुला कर क्या करूंगी। पर सारे दिन आशु के चिल्लाने से राहत मिली थी, नई जगह आने के बाद पहले दिन दोपहर में बेफिक्र सो पायी थी, चार-पाँच दिन और मिल सकने वाले इस आराम को मैं छोड़ना नहीं चाहती थी और अब तो, जरा गंदा भी रहे तो क्या, मेहमान भी कहाँ…
‘कल आओगे?’
‘तुम कहें…आप कहेंगी तो चला आऊँगा।’

‘हाँ तो आना।’
दूसरी सुबह आठ बजे, मैं ब्रेकफास्ट टेबल पर भुनभुनाई,.. ‘आने को कहा था, आया नहीं पाजी; ऐसे ही होते हैं ये गंवार।’
‘कौन? तुम उस लड़के की बात कर रही हो? वह तो कब का आया है, कम से कम चार बार सलाम मार चुका होगा। आशु को प्रैम में घुमा रहा है।’ इन्होंने कहा।

‘कब? मैंने देखा नहीं’…
‘तुम ड्रेस-अप हो रही थीं और क्या आशु ऐसे ही शांत रहने वाला है?’’
लॉन में देखा और संतोष की साँस ली, पर उसके गंदे कपड़े फिर आँखों में खटक गये। देखकर भी तमीज नहीं आई पाजी को कि जरा साफ होकर चलूँं। इन गंवारों को साफ रहने का शऊर कभी नहीं आयेगा। नये कपड़े सब रखे रहते हैं, मेलों, तमाशों में पहनने के लिये और रोज यूँ ही फटीचर बने घूमते हैं। कैसे मान लूँ कि इसके पास यही एक जोड़े मैले-कुचैले कपड़े हैं बस। गर्ज थी, क्या करती। आशु जरा भी कुनमुनाता, वह चौंक कर बाबुल…ओऽ होऽ लल्ला– कह कर पुचकारने लगता, चुपाने के लिये बेचैन हो उठता। मैं सारे दिन ताकीद करती रहती– हर समय पालना मत हिलाया करो;— नैपकिंस उधर रखा करो, बेबी को गोद में बिलकुल मत लिया करो; पास में नहीं पुचकारो,… और हर उत्तर में वही एक संकोच भरी, तत्पर स्वीकृति ‘जी, हाँ’, काम हो जाता–थोड़ी देर में फिर वह हाजिर। ‘जी,– कर लिया, मेरे लिये कोई काम?

‘अच्छा।’, … दूसरा काम बता दिया। दस पन्द्रह मिनट बाद– ‘अब? लल्ला तो सो रहे… मेरे लिये कुछ काम…
खींझकर कहा… ‘कोई काम नहीं, जाओ आराम करो।’
मेरी ओर इस तरह देखा जैसे मैं कहीं नाराज तो नहीं–आवाज में कुछ प्रयत्न साष्य नरमी लाकर मैंने कहा–‘कुछ नहीं भाई, जाओ, बाहर बैठो।’

‘जी…हाँ’… वह चला गया।
तभी प्यास लगी, सोचा, उसे आवाज दूँ पर अभी-अभी तो उससे बाहर जाकर आराम करने को कहा है। दरवाजे पर आयी तो चौंक गयी…वह हाथ बाँधे खड़ा था। काम की प्रतीक्षा में… मैं आवाक रह गयी– ‘अरे तू बैठता क्यों नहीं? खड़े-खड़े थकता नहीं?’
‘जी हाँ।’ और वह डर कर दूसरी तरफ चला गया।

शाम को जाने लगा तो मैंने कहा–तुम अपनी किताबें यहाँं लाया करो।
जब बेबी सोता है पढ़ा करो। असल मैं दिन भर हर थोड़ी देर बाद उसका ‘मेरे लिये कोई काम’ पूछना मुझे खासा नागवार गुजरता।
अगले दिन आते ही पूछा–‘किताब नहीं लाये?’’
‘जी हां,’
क्यों?
वह कुछ नहीं बोला।
‘भूल गए?’
‘जी नहीं,’
‘माँ ने मना किया?’
‘जी हाँ,’
‘क्या कहा?’
‘यों कहा कि किताबें पढ़ेगा तो नौकरी क्या करेगा।’
‘ओ हो, तो तू माँ से कह देता कि मेम सा’ब ने खुद ही कहा है?’

जी…जी उसने सहमकर कहा फिर धीमे से बेबी के पास खिसक गया। उस दिन आशु सारे दिन जागता और रोता रहा। दोपहर भर उसकी कूं-काँ से जब भी नींद खुलती आशु के स्वर से एक सप्तक ऊंचा चंदू का स्वर कानों में पड़ता… एक कटोरी टूटी-जी, एक कटोरी टूटी, मुन्ने को बहु रुठी, ओय मुन्ने को बहु रुठी। काहे बात पे रुठी, जी काहें बात पे रुठी– दही-दूध पे रुठी जी, दही दूध पे रुठी…

एक दो तीन टुकड़ों के साथ ही मुन्ने को बहु ही नहीं, मुन्ना भी मान कर सो जाता। दूसरी बार जगने पर पहले गाने का उतना प्रभाव पड़ता न देख वह दूसरी तान छेड़ता।
सुनते-सुनते मैं फिर सो जाती, आशु कब तक सोता, पता नहीं या जगे-जगे ही किलकारी भरने लग जाता। शाम को पक्की नींद में उसे सोया देखकर वह कुछ जल्दी आकर बोला–

‘लल्ला सो गए, मैं जाऊँ?’
जल्दी जाने के नाम से मेरे माथे में शिकन पड़ गई।
‘आज जल्दी क्यों?’
चुप।
‘माँ ने कहा है?’
‘जी हाँ।’
क्या?
यों कहा है–जल्दी आना।
‘तो जा।’ पर वह खड़ा रहा।
‘कुछ कहना है?’
चुप।
‘क्या है, कहो–’
सिर झुकाए-झुकाए–‘जी माँ ने यूं कहा है, कुछ पैसे लेते आना।’

‘ले जा।’ मुझे मैं बेहद उदार लगी।
पैसे लेते हुए जैसे कोई अपराध स्वीकार कर रहा हो, बोला–’ अनाज नहीं है, सो लेकर पिसाना है, खाने को…उसी वास्ते जल्दी जाना है।’
‘खाने को’ पर उसने थोड़ा दबाव दिया, जैसे वह चाहता नहीं था–लेकिन लाचारी है।
शाम को, आने पर इन्होंने पूछा,
‘वह तुम्हारा पालतू नहीं दिखता–’
‘आज जल्दी चला गया, कुछ पैसे लेकर…’ शायद कुछ आंटा वगैरह पिसाना था।
‘कितने दिये?’
‘तीन दिन के तीस रुपये होते थे, दे दिये।’
‘तीन दिन के तीस रुपये? ऊपर से दोपहर का खाना नाश्ता और काम–कुछ नहीं।
आज से उससे आठ रुपये कह दो।’
‘सारे दिन तो रहता है–अब काम नहीं तो क्या करे?’
‘तो काम लीजिये, आप उससे–’
मैं भन्नायी, अब ये भी कोई बात हुई– काम नहीं तो क्या पैदा करू?

आशु के लिये रक्खा है। सो सुबह से शाम तक एक पैर पर खड़ा रहता है, जो कहो, खिदमत बजाता है, आप फरमाते हैं, आठ रूपये कर दो– लोहे-लक्कड़ के बीच फैक्ट्री में काम करते-करते आदमी भी वैसा ही हो जाता है, सोचते हुए मैं अपने को अतिशय दयालु अनुभव कर रही थीं… दरअसल पिछले तीन दिनों में ही मैं उसकी इतनी अभ्यस्त हो गई थी कि उसके जाने की बात सोच कर ही परेशान हो जाती। कई बार उससे पूछती भी, ‘स्कूल खुलने पर तो चला जायेगा न?’ और उत्तर में वही ‘जी-जी हाँ’
सुनते ही परेशान होकर फिर फैक्ट्रो-स्टोर में बच्चन लाल दर्जी-मास्टर को फोन करने लगती कि आया अभी ढूंढ़ी, उसने या नहीं अब गंदी नैपी साफ करने के नाम से ही आलस आती। ‘चंदू दूध बना ला। बेबी के हैंपर सूखने को डाल दे। नहलाने का टब भर दे, साबुन, तोलिया सब, गुड। अब प्रैम साफ कर दो।

***
‘आज फिर तू गंदे कपड़े पहने कर आया चंदन?’
‘जी’– उसी सहमी दृष्टि से अपराध की स्वीकृति।
‘धोये क्यों नहीं?’
चुप।
‘क्यों? क्या करता है, यहाँ से जाकर?’
‘जी–कुछ नहीं’
फिर?
‘क्या बात है? मेरी खीझ बढ़ी और बढ़ी खीझ ने तुरंत असर किया।
एकदम से कह गया, किसी तरह–
‘जी, साबुन की टिक्की नहीं है मेरे पास’–
***
सुबह दूर से आता देखा तो कपड़े कुछ साफ लगे। संतोष हुआ, पर पास आने पर देखा तो थोड़े गीले।
‘यह क्या? गीले कपड़े पहन कर आया है?’

‘जी’…
क्यों?
‘जी, रात ही धोये मगर सूखे नहीं।’
‘तो एक दिन के लिये दूसरे नहीं पहन कर आ सकता था? मैं तो खुद ही तुम्हारी गंदगी की वजह से नये कपड़े सिलवा रही हूँ पर तुम लोगों को इसका भी ख्याल नहीं रहता कि कहाँ नौकरी करते हो और कैसे चले आते हो।’
‘जी’ अपराध-स्वीकृति का वही सहमति भरा मौन।

***
उस दिन नई कमीज और पाजामा दिया। देखकर चमकती आँखों को झुकाये मनोभावों को छिपाने का प्रयत्न करता रहा। आधी टिक्की साबुन की दी, जा, ठीक तरह से नहाकर, बाल धोकर आ। नहाकर आया तो उसके रंग के साथ ही बालों का रंग भी बदल गया था। गर्द-गुबार से भरे बालों पर पानी पड़-पड़कर और भी चीकट कर गया था उसके बालों को। खानसामें से कंघी मांग कर बाल ठीक करने को कहा। अब्दुल ‘मूड’ में था, खुद ही उसके बाल काढ़े और पीठ पर एक धौल जमाते हुए ठहठहाकर हँस पड़ा– ‘जा छोकरे तू तो एकदम जंटलमैन हो गया, रोटी लग गई दिखती है?’
सारे दिन शरमाया-शरमाया-सा रहा, सिवाय इसके कि मैं जब भी पास से गुजरती एकदम चौंककर सलाम मार देता। कमीज पाजामा क्या पहना मानो सारी दुनिया की नियामत मिल गई, खांझकर कहना पड़ा–‘अरे बार-बार सलाम क्यों करता है? घर में ही तो हूँ।’
‘जी’…
‘जी’ क्या?
‘माँ ने यों कहा है, नये कपड़े पहनकर मेम साहब को सलाम देना।…
अच्छा तो दे चुका न? बार-बार देने की जरूरत नहीं’…
‘जी हाँ’…
***
छठवें दिन जाने से पहले फिर खड़ा रहा, समझ गई।
‘अरे अभी तो कल आयेगा न? फिर पैसे कहीं भागे थोड़ी जा रहे।’– कुछ रुककर पूछा– ‘क्या फिर अनाज लाना है?’
‘जी, माँ की दवाई लानी है।’
‘क्या हुआ है?’ सोचा खाँसी बुखार की टिकिया मैं ही दे दूँ, उदार भावना फिर बढ़ गई थी।
‘जी, पुरानी बीमारी है।’
चुपचाप अगले मतलब अंतिम दिन के भी मिलाकर चालीस रुपये उसके हाथ पर रख दिये। शाम ये फिर जल्दी आ गए।
‘क्या हुआ? आज फिर जल्दी चला गया न? पैसे भी ले गया होगा–’
मैं, इनकी दूरदर्शिता पर चकित थी।
‘हाँ, कहता था दवाई लानी है माँ की।’
‘अच्छा बेवकूफ बना रहा है तुम्हें–। कल के भी पैसे दे दिये न? अब कल आ जाये तो नाम बदल दूँ। जाते-जाते सोचा होगा, जो ही मुनाफा हो सो हो भल मक्कार होते हैं, ये सब।’
‘ऐसा नहीं है–उसे जरूरत थी।’
‘जरूरत? हुंह! मुझसे पूछो, सारे दिन इन्हीं हरामखोरों से निपटना पड़ता है।
बिना बात की बहस मुझे पसंद नहीं, विशेष कर घर के खर्चों को लेकर– ‘सुबह से शाम तक काम करवाने के बाद उसकी जरूरत भर चालीस रुपये दे दिये तो कौन-सी बड़ी बात हो गयी?
‘चालीस रुपये? ये व्यंग्य से हँसे– ‘सिर्फ एक हफ्ते काम करने के लिये रखे लड़के को चाय नाश्ता, खाना– कपड़े, खाँसी की गोलियाँ और ऊपर से दस रूपया रोज देने पर कोई रखेगा? मेरे लाख कहने पर भी कपड़ों के रुपये तुमने उसके पैसों से नहीं काटे, एक हफ्ते बाद जब दूसरा नौकर रखा जायेगा तो उसे भी नये कपड़े सिलाने होंगे।
‘अब सिलाने हों, तो हों, यह ओछापन मुझसे न होगा।’,…
‘तो ठीक है, बंदा हाजिर है, लुटाइये-उड़ाइये।’
शाम का सारा आक्रोश, सुबह आये चंदन पर ही उगला। खासकर जाब याद आया कि जब से इसे नये कपड़े दिये हैं, इडियट, वही पहन कर रोज आता है। साफ समझ में आता है कि घर पर भी यही पहनता, सोता है। अपनी झिल्लड़ कमीज, पजामा अब एक दिन भी नहीं पहना जा रहा। ठीक है, मैंने ही उसे गंदे कपड़ों में आने को मना किया था पर कम-से-कम जब तक इन कपड़ों को धोये सुखाये, तब तक तो अपने पहन सकता है, पर वह शायद इसी डर से इन कपड़ों को धोता ही नहीं। ‘अति’ होने पर भी इनकी बातों में सच्चाई तो है ही। सुना होगा, फटे-चटे कपड़ों में बड़े आदमी नहीं रखते नौकर, सो एक बदरंग कमीज पहन कर आता रहा जब तक नये कपड़े नहीं ले लिये हमसे, अब उन कपड़ों को भी ताला लग गया। चलो अब इन्हें ही लथोरा जाये, अपने क्यों घिसें…
पूरी डाँट खड़े-खड़े धैर्यपूर्वक सुनी और प्रैम लेकर चला गया। बाद बाद में सारे दिन बुरा लगता रहा, बेकार डाँटा, अब कल से नहीं आयेगा, फिर वही छूटा हुआ उबा देने वाला कार्यक्रम, सू-सू पॉती…घबड़ाकर फिर फोन करने पहुँची तो देखा खड़ा है। रिसीवर रखने के बाद रूखे शब्दों में पूछा क्या है?’ कल से आने वाली रुखाई आज से ही हावी हो गई थी मुझ पर।
‘जी, मैं तीन दिन और काम करूं?’
जैसे डूबने से बचाया हो।
स्वर अपने आप नर्म पड़ गया ‘क्यो? स्कूल खुलेगा न?’
‘शुक्कर, शनिचर, खुलेगा, फिर इतवार को छुट्टी सो सोमवार को इखट्टे चला जाऊंगा।’
‘क्यों, पढ़ाई में मन नहीं लगता?’ मैंने मखौल की।
‘जी, सो बात नहीं’
‘फिर?’
‘पिछली फीस बकाया है, इम्तहानी फीस भी जमा नहीं होगी तो नाम कट जायेगा।’ मेरे लिये अगले तीन दिन उसके आने की कल्पना इतनी सुखकर थी कि बाकी बातें ठहरनी मुश्किल थी।
‘ठीक है, आना पर नौकरी के पीछे पढ़ाई का हर्ज मत करना।’
‘जी’– वह खुश हो- लग, मैं भी तीन और दिनों के लिये निश्चिंत?
***
उस शाम उसके जाने के पहले ही ये आ गए। आते ही सारा घर सिर पे उठा लिया, ‘मैं पहले ही कहता था… पर मैं तो दुनिया का सबसे बड़ा बेवकूफ हूँ मेम-साहब की नजर में न? निकालो इस नालायक को, इसका बाप चोरी करते पकड़ा गया है फैक्ट्री में, गोदाम से पुरानी बोरियाँ चुरा कर भाग रहा था। साले की छंटनी हो गयी तो यह काम शुरू किया। अभी इसी दम निकालो इस गधे को और हाँ घर की चीजें भी अच्छी तरह चेक कर लो।’–
मैं एकदम हतबल सी सुने जा रही थी। मन में उठती सहानुभूति के एकाध रेशों को तर्क का साँप कुचले डाल रहा था। ठीक है, चोर का बेटा चोर-अब्दुल! उससे बोलो, घर जाकर अपने कपड़े पहन, हमारे नये कपड़े वापस दे जाये, साहब की कड़ी ताकीद है, ऐसे चोर उचक्कों को नहीं रखना हमें, नहीं लाया कपड़े तो पुलिस से पिटवा देंगे।’
अब्दुल उसको बाँह पकड़ कर एक तरफ ले गया, साहब- बनाम मेम साहब का आदेश सुनाया और उसके घर रवाना कर दिया। जाने क्यों उसके सामने जाने से मैं कतरा रही थी, हर बात अब्दुल से। एक दिन के ज्यादा रुपये भी अब्दुल से ही उसे दिलवा दिये यद्यपि तर्क सिर धुनता रहा, यह चोर उचक्कों को बढ़ावा देना है।
करीब पौन घंटे बाद– बरामदे में ही बैठी थी कि वह आया; मैली कमीज और पजामा तह किये दोनों हाथों में संभाले था, अब्दुल शाम को सब्जी बनेगी, पूछ रहा था कि उसे देखकर बोला ‘ला इधर मुझे दे, ‘मैंने आंखें उठाई तो जगह-जगह से फटी भूरी मैली जांघिया और फटी मारकीन की कमीज पहने वह अब्दुल को कपड़े थमा रहा था। उसका हुलिया देखकर दिमाग तड़क गया। अब्दुल ने डाँटा ‘ऐसे भिखमंगों की तरह ‘कोठी’ पर आते हैं?’ मैंने तटस्थ सी सख्त आवाज़ से पूछा–
‘तुम्हारा कमीज-पाजामा क्या हुआ? उसे पहन कर क्यों नही आये?’
‘जी–दे दिये थे।’
‘दे दिये? किसे?’ मैं आसमान सी गिरी।
‘जो दर्जी-मास्टर को, उसके लड़के के थे।’…
‘क्यों?…
‘उसके लड़के के थे। एक हफ्ते के लिये माँगे थे।’
अचानक उदारता और महानता की जिन सीढ़ियों पर में सुरक्षित खड़ी थी, वे तेजी से एक पर एक ढ़हती छू सकती जा रही थीं और संभलते संभलते भी मैं मलबे के ढेर पर औंधी पड़ी थी।
अब्दुल मेरी ओर आश्चर्य से देख रहा था ‘दे दूँ हुज़ूर?’…
वह कपड़े पहन आया तो अब्दुल ने दस रुपये भी दे दिये और प्यार से कहा कि मेम साहब को सलाम कर, जा।’ अति कृतज्ञ या अति दयनीय भाव से सिर झुकाए, उसने मुझे सलाम किया। जाते हुए उसका एक हाथ कमीज की जेब पर था जिसमें दस रूपये अभी-अभी रखे थे उसने।…
——-

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