गणित का चमत्कार ‘श्रीनिवास रामानुजन’

 श्रेष्ठ भारतीय गणितज्ञ श्रीनिवास रामानुजन का जीवन सूर्य के समान स्वयं प्रकाशी एवं तेजोमय था। उनकी 125 वीं जयंती का औचित्य देखकर वर्ष 2012 को केंद्र सरकार ने ‘गणित वर्ष’ के नाम से घोषित किया है। पाठशाला में अध्ययन करते समय गणित यह विषय लगभग सभी विद्यार्थियों का अत्यंत अप्रिय विषय होता है, फिर भी रामानुजन को बिल्कुल छोटी उम्र से ‘गणित’ जैसे बड़े ही जटिल विषय में बहुत ही रुचि थी। गणित की लगन ही मानो लगी थी।

कुंभकोणम गाँव में श्रीनिवास अय्यंगार, उनकी पत्नी कोमलमाल और सास रंगमाल ऐसा एक छोटा सा परिवार था। इस परिवार में 22 दिसंबर 1887 के दिन रामानुजन का जन्म हुआ।

छोटे रामानुज को पाँच वर्ष की उम्र होने पर नजदीक की एक पाठशाला में दर्ज किया गया। पड़ोस में एक मकान के बरामदे में ही वह पाठशाला लगती है। दो बरस बाद वह कुंभकोणम के टाऊन हाईस्कूल में जाने लगा। बिल्कुल छोटी सी उम्र में ही गणित के तथ्यों को सुलझाने की उसे लगन जो लगी थी। एक बार उसकी कक्षा में एक मजेदार घटना हुई। अंकगणित की कक्षा में अध्यापक गणित समझा दे रहे थे। ‘समझो, अपने पास पाँच फल हैं और हमने उन्हें पाँच व्यक्तियों में बाँट दिये, तो हर एक को एक ही फल मिलेगा। मानो दस होंगे और दस लोगों में बाँटे तो भी हर एक को मिलने वाला फल एक ही। इसके माने यही कि, पाँच, हो या दस, किसी भी राशि को उसी राशि से भाग दिया तो भागकार एक ही होता है। यह ‘गणित’ में से एक महत्त्वपूर्ण नियम है।

अध्यापक के ऐसा विवेचन करने पर रामानुजन झट उठ खड़ा हुआ और उसने सवाल किया, ‘‘गुरू जी, मान लीजिए, शून्य फल शून्य लोगों में अगर बाँटे, तो क्या हर एक एक फल का भागी बनेगा? शून्य को शून्य से भाग देने से उत्तर क्या ‘एक’ यही होगा?’ यह ऐसा बड़ा विचित्र सा सवाल सुनकर अध्यापक हक्का-बक्का हुए और रामानुजन की असाधारण बुद्धिमत्ता तथा विचार शक्ति देखकर वे स्तिमित-चकित हुए, क्योंकि आज तक किसी भी छात्र ने ऐसा कोई सवाल पूछा न था। अपनी कक्षा में पढ़ाए गये गणित से रामानुजन कभी संतुष्ट न होता था। उसके फलस्वरूप वह अगली कक्षा के गणित सुलझाया करता था। दसवीं में होते ही उसने बी.ए. उपाधि परीक्षा के पाठ्यक्रम में से ‘त्रिकोणमितिशास्त्र’ का अध्ययन पूरा किया था।

हाईस्कूल में अध्ययन के दौरान ही उसने प्युअर मॅथेमेटिक्स का अध्ययन किया था। इस पुस्तक में 6000 प्रमेय थे। साथ ही बीजगणित, त्रिकोणमिति, भूमिति आदि बहुत से विषय थे। उन सभी का उसने गहरा अध्ययन किया था। पृथ्वी की परिघि की लंबाई उसने निर्दोष रूप में खोजकर बताई थी। गणित की इन चारों शाखाओं में उसका बहुत बड़ा योगदान है। अपने किये हुए अनुसंधान को लेकर उसने लेख भी लिखे, वे ‘रामानुजन, पेपर्स’ नाम से पहचाने जाते हैं। वह सन् 1903 में मॅट्रिक की परीक्षा में प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण हुआ। उसकी इस सफलता से उसे सुब्रमण्यम छात्र कृति मिली। उसके फलस्वरूप वर्ष के अंत में गणित विषय में उसे अग्र क्रमक प्राप्त हुआ हो, तो भी अन्य विषयों में आवश्यक न्यूनतम गुण भी वह पा न सका। वह इस बात का हमेशा ही दु:ख जताता था।

अब सवाल सिर्फ सीखने का न था, तो रोजी-रोटी का भी था। उसके अथक प्रयासों के फलस्वरूप श्री शेषु अय्यर का सहायता से एक मार्च 1912 को पोर्ट ट्रस्ट में पच्चीस रूपए पर लिपिक की नौकरी उसे मिली। उसके उपरान्त रामानुजन के कार्य करने की परिघि विशाल बनी। इंडियन मॅथमॅटिकल सोसाइटी की अनुसंधान पत्रिका में उसके गणित विषय के प्रबंध प्रकाशित होने लगे। सन् 1911 के प्रबंध में रामानुजन की चौदह पृष्ठों की प्रदीर्घ शोधिका तथा नौ प्रश्न प्रकाशित हुए।

सन् 1917 में रामानुजन की कुल सात शोध पत्रिकाए प्रकाशित हुईं। उनके द्वारा प्रयुक्त की गई पद्धति एवं भविष्य में उसका उपयोग यह उन शोध पत्रिकाओं में से प्रकट हुआ महत्त्वपूर्ण तथ्य हैं।

कामकाज का दबाव और खाने-पीने में लापरवाही का रामानुजन के स्वास्थ्य पर बुरा असर पड़ा। इंग्लैंड से सम्माननीय व्यक्ति तथा संस्थाएँ आदि ने उसके अनुसंधान की प्रशंसा की।

तपेदिक से पीड़ित रामानुजन का गणित-प्रेम उसे आराम से बैठने नहीं देता था। उसने अपनी सोच के अनुसार प्रमेय लिख रखे थे ।26 अप्रैल, 1920 को रामानुजन का निधन हो गया।
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