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संगीत में वाद्यों की, विशेषता

संगीत में वाद्यों की, विशेषता

by डॉ. पृथ्वी बैनर्जी
in नवम्बर २०१४, व्यक्तित्व, साहित्य
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बिना वाद्य संगत के काव्य एकदम नीरस लगता है, गद्य हो जाता है और वहीं उसके साथ संगत हो जाए तो वह गीत बन जाता है और तो और श्रोता भी कहने लगता है कि वाह क्या बात है ! यह साज भी गा रहा है।

भारतीय शास्त्रीय संगीत तीन विधाओं का समन्वित रूप है, जिसे हम गीत, वाद्य और नृत्य कहते हैं। इन तीनों को मिलाकर संगीत बनता है। संगीत रत्नाकर में कहा गया है कि –

  गीतम्, वाद्यम् तथा नृत्यम्, त्रयम् संगीत मुच्यते

इन तीनों ही विधाओं का अपना -अपना महत्व है। वाद्य एकदम स्वतंत्र होता है। इसे किसी भी सहायक वाद्यों की आवश्यकता नहीं होती, परंतु गायन के लिए वाद्य की आवश्यकता होती है और नृत्य के लिए तो गायन और वादन दोनों की ही आवश्यकता होती है। इन दोनों के बिना नृत्य अधूरा है और वाद्य के बिना गायन। परंतु यह बंधन वाद्य के लिए आवश्यक नहीं है। इसीलिए संगीत में वाद्य का अपना एक स्वतंत्र एवं अलग महत्व है।

मानवीय रस एवं भावों को व्यक्त करने का एक सशक्त माध्यम संगीत है। रसात्मकता एवं भावानुभूति ही संगीत का प्राण है। यदि ये दोनों ही न हो तो संगीत शून्य है। गायक अपनी कल्पना शक्ति द्वारा हृदय में उठते भावों को स्वरों और शब्दों के माध्यम से व्यक्त करता है जिसमें वह रस का भी समावेश करता है। इसी प्रस्तुति को रस सृष्टि या रस वर्षा कहते हैं। इसी तरह कलाकार अपनी बुद्धि कौशल का भी प्रयोग करता है, अर्थात चमत्कार -प्रदर्शन करके श्रोताओं को आनंद प्रदान करता है। अर्थात रस, भाव औैर कला ये तीनों ही एक -दूसरे पर आधारित हैं। तात्पर्य यह है कि न केवल भावुकता से भावाभिव्यक्ति हो सकती है, न कलाबाजी से चमत्कार और न केवल रसानुभूति से रस वर्षा।

गायन में इन बातों को व्यक्त करने के लिए शब्द होते हैं। नृत्य में भाव व मुद्राएं होती हैं। परंतु, वाद्य में क्या है ? इनमें से कुछ भी नहींं फिर भी संगीत में तंत्री वाद्यों का बहुत ज्यादा महत्व है। प्राचीन काल से लेकर १८वीं शताब्दी तक जो स्थान वीणा को प्राप्त था, वही स्थान १८वीं शताब्दी के बाद अनेक वाद्यों को प्राप्त हुआ। इस शताब्दी में सितार, सुरसिंगार, सुरबहार आदि वाद्य चलन में आए। अनेक अच्छे -अच्छे वाद्यों के वादक भी हुए। ये सभी वाद्य गायन के साथ संगत के रूप में उपयोग में लाए जाने लगे। प्राचीन समय में तो केवल वीणा को ही संगत वाद्य के रूप में प्रयोग में लाया जाता था और कोई दूसरा संगत वाद्य ही नहीं था। गायक जैसे गाता था वीणा वादक उसकी नकल कर उसका प्रयोग वीणा पर करता था, जो गायन के लिए नितांत आवश्यक था। तानपूरे के स्वर गायक को स्वर लगाने में सहायक होते थे और वीणा की संगत उसे गायन में मदद करती थी।

परिवर्तन प्रकृति का नियम है। संगीत के क्षेत्र में भी यह लागू होता है। समय के साथ -साथ अनेक भिन्न -भिन्न संगत वाद्यों का प्रयोग भी किया जाने लगा। सारंगी, इसराज, दिलरुबा, तारशहनाई, सरोद, बांसुरी आदि वाद्य संगत के लिए उपयोग में लाए जाने लगे। आधुनिक काल के आते -आते हारमोनियम, वाइलिन आदि पाश्चात्य वाद्यों का भी प्रयोग शास्त्रीय संगीत में संगत वाद्य के रूप में किया जाने लगा।

प्रत्येक वाद्य का अपना कुछ विशेष सौंदर्य उपकरण, गुण व विशेषता होती है। जैसे वीणा, सुरबहार में गमक, मींड़, मंद्र स्वरों का कार्य। सरोद, सुरसिंगार, रबाब में कृंतन, घसीट, सूत और बोलों के छंदों का कार्य। सारंगी, वाइलिन, इसराज, दिलरुबा, तारशहनाई में सपाट तानों की सुविधा आदि विशेषता है। इन सभी सौंदर्य उपकरणों का किसी भी एक वाद्य में होना संभव नहीं होता, फिर भी सितार एक ऐसा वाद्य है जिसमें इन सभी का समावेश काफी कुछ मात्रा तक होता है। ध्रुपद अंग से आलाप, ख्याल अंग से तानें और तराने के आधार पर छंदों का वादन सितार में संभव है, जो कि १८वीं शताब्दी के समय वीणा पर किया जाता था।

शास्त्रीय गायन करते समय गायक मुख्य रूप से सारंगी, वाइलिन या फिर हारमोनियम की संगत करवाना पसंद करता है। उसका मुख्य कारण स्वर का अखंडित नाद मिलते रहना आवश्यक रहता है, जो इन वाद्यों में ही संभव है। यह सारंगी और वाइलिन में गज और हारमोनियम में उसके धम्मन के कारण हो पाता है। इससे गायक को गाने में बहुत सुविधा होती है और गायन करते समय काफी राहत भी मिलती है। इसराज, दिलरुबा और तारशहनाई में भी यह संभव है, परंतु आज इन वाद्यों के वादक नगण्य हैं इसलिए उन वाद्यों का प्रयोग संभव ही नहीं है। यह बात किसी और वाद्यों में संभव नहीं है इसलिए बाकी वाद्यों का प्रयोग संगीत की अन्य विधाओं में प्रयुक्त होता है।

बाकी वाद्यों का प्रयोग अलग -अलग जगह होता है। नृत्य की प्रस्तुति के समय अनेक वाद्यों का प्रयोग किया जाता है, क्योंकि यह विधा भाव व मुद्रा प्रधान है। वाद्यों के विभिन्न सौंदर्य उपकरणों के माध्यम से प्रस्तुत कर निखारा जाता है। सितार, सरोद, बांसुरी आदि वाद्यों की संगत के माध्यम से इस कला को सजाया व संवारा जाता है। इस विधा में चूंकि ठुमरी, भजन या किसी अन्य गीतों का प्रयोग भी करते हैं जिसमें अनेक भावों को प्रदर्शित किया जाता है, ये सभी वाद्य सहायक होते हैं। इन सभी के समग्र प्रभाव से प्रस्तुति में चार चांद लग जाते हैं।

संगीत विधा का दूसरा पक्ष सुगम संगीत भी है जिसमें वाद्यों की संगत नितांत आवश्यक होती है। इसमें भजन, गीत, ठुमरी, कजरी, होरी, गजल, कव्वाली, देश भक्ति गीत, लोक गीत, सिने संगीत आदि प्रकार आते हैं। यह सभी भाव प्रधान एवं रस प्रधान होते हैं। शब्दों के माध्यम से तो ये दोनों ही बातें प्रस्तुत होती हैं, परंतु इनमें वाद्यों की संगत बहुत ही बड़ी भूमिका निभाती है। प्रस्तुत विधा में सजीवता प्रदान करना, मधुरता लाना, लोकप्रिय बनाना ये सभी बातें वाद्यों की संगत पर ही निर्भर करता है। बिना वाद्य संगत के काव्य एकदम नीरस लगता है, गद्य हो जाता है और वहीं उसके साथ संगत हो जाए तो वह गीत बन जाता है और तो और श्रोता भी कहने लगता है कि वाह क्या बात है ! यह साज भी गा रहा है।

भारतीय शास्त्रीय संगीत में वाद्यों का महत्व प्राचीन काल से ही रहा है। वाद्य संगीत में संगीत के मूल तत्व स्वर और लय के माध्यम से किसी अन्य तत्व की सहायता के बिना मनुष्य को अलौकिक आनंद प्रदान करने की क्षमता विद्यमान है। संगीत के द्वारा उत्कृष्ट अभिव्यक्ति वाद्य संगीत में ही संभव है जो कि गायन और नृत्य में नहीं है। अपनी कला की अभिव्यक्ति के लिए वाद्य संगीत किसी अन्य कला की अपेक्षा नहीं रखता, अर्थात अपनी कला की अभिव्यक्ति के लिए वाद्य संगीत पूर्णरूपेण स्वतंत्र है, जबकि अन्य कलाएं (गायन, नृत्य ) अपने प्रदर्शन के लिए वाद्य के सहारे रहते हैं अर्थात गायन एवं नृत्य वाद्य की अपेक्षा रखते हैं। दूसरे शब्दों में यह कहा जा सकता है कि कलाओं का सफल प्रदर्शन वाद्यों के अभाव में संभव नहीं है। इन दोनों कलाओं के लिए वाद्यों का विधान आवश्यक माना गया है।

वाद्य संगीत के अंतर्गत मुख्यतः तंत्री वाद्यों का विशेष महत्व एवं स्थान है। प्राचीन काल में कंठ गायन की संगति के लिए वीणा का ही प्रयोग हुआ करता था, क्योंकि मानव कंठ की सूक्ष्म सांगीतिक क्रियाओं को वीणा जैसे वाद्य पर ही बजाना संभव था। आज हम देख रहे हैं वादक द्वारा बजाए जाने वाले वाद्यों के अतिरिक्त इलेक्ट्रॉनिक वाद्यों का भी निर्माण हो चुका है। इनका प्रयोग भी बहुतायत होने लगा है, परंतु इतना होने के बाद भी पुराने वाद्यों की चाहत एवं उनकी संगत की चाह कम नहीं हुई है। इसका कारण है कि इन वाद्यों की आवाज़, मधुरता, इनके गुण, इनमें प्रयुक्त होने वाले सौंदर्य उपकरण यह सभी तत्व इनमें विद्यमान हैं, जो इलेक्ट्रॉनिक वाद्यों में नहीं है। इसलिए यह निश्चित है कि संगीत में वाद्यों की उपयोगिता और विशेषता का अपना स्थान है, जिसे कभी भी कोई भी नहीं ले सकता।

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Comments 2

  1. Anonymous says:
    4 years ago

    Bahut lamba h

    Reply
  2. Anonymous says:
    4 years ago

    great article

    Reply

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