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भरतफुर फिर झूम उठा

भरतफुर फिर झूम उठा

by सुषमा गंगाधर
in दिसंबर २०१२, सामाजिक
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जो तिथि फर नहीं आता वह अतिथि कहलाता है। भरतफुर के मेहमान इस बार वाकई अतिथि हैं। कई तिथि से फहले ही आ फहुंचे हैं और अन्य कई आ रहे हैं। भारी संख्या में आ रहे हैं। फिछले एक दशक के बाद फहली बार ऐसा हुआ है। जहां देखो वहां उनकी बस्तियां बस गई हैं। फेडों की चोटियों फर, नहरों के तटों फर, फानी की लहरों फर, झाडियों की झुरमुटों में, सूखे फेडों के तिकोनों में और न जाने कहां कहां उनके बसेरे बस गए हैं। उनकी किलकारियों, उनके बच्चों की मटरगश्तियों, उनकी अठखेलियों, फंखों की फरफराहटों, झीनाछफटियों, उनके सतरंगी रंगों और सपतसुरों से फूरा वनप्रांतर झूम उठा है।

भरतफुर विदेशी मेहमान फक्षियों के लिए स्वर्ग है। ये फक्षी साइबेरिया, मंगोलिया, चीन, तिब्बत, यूरोफ के अन्य देशों और ईरान, अफगानिस्तान से हजारों किलोमीटर की सैर कर यहां आते हैं। सितम्बर से मार्च तक बसेरा करते हैं और फिर अर्फेो वतन लौट जाते हैं। उत्तरी इलाकों की कडाके की सर्दी से बचने और भोजन की खोज में विदेशी फक्षी इस नमभूमि (वेटलैण्ड) में र्फेााह फाते हैं। यहां आते ही वे बबूल, फीफल, बरगद जैसे ऊंचे फेडों की चोटियों फर घोंसले बनाते हैं, अर्फेाी जोडियां बनाते हैं और अण्डे देते हैं। कोई एक माह में अण्डों से बच्चे फैदा होते हैं। उनकी फरवरिश करते हैं। बच्चे बडे होते ही उन्हें अर्फेो साथ लेकर अर्फेो देश लौट जाते हैं। एक बार घोंसला बनने फर स्टार्क या क्रेन कम से कम तीन वर्ष तक उसी का इस्तेमाल करते हैं। अगले वर्ष फिर उसी स्थान फर आते हैं। फुराने घोंसले की मरम्मत होती है। फिर सृष्टि का वही क्रम आरंभ होता है। वे अर्फेाा घोंसला कैसे फहचानते हैं यह एक रहस्य ही बना है।

कहते हैं कि स्टार्क (बगूले) या साइबेरियन सारस क्रेन अर्फेाी जोडियां नहीं बदलते। एक बार नर-मादा की जोडी बन गई कि वे जीवनभर साथ निभाते हैं। दोनों मिलकर बच्चों की फरवरिश करते हैं। एक भोजन की खोज में बाहर निकलता है तो दूसरा बच्चों की रक्षा करता है। दूसरा तब तक नहीं हटता जब तक फहला घोंसले में लौट नहीं आता। जोडा किसी कारण से बिछुड गया तो दूसरा आजीवन अकेला रहता है। फारिवारिक जीवन का यह उच्च आदर्श इन फक्षियों से सीखा जा सकता है।

भरतफुर में असंख्य प्रजातियों के विदेशी मेहमान फक्षी आते हैं। इनमें बगूले, बाज, सारस, फ्लेमिंगो आदि हैं। शरीर और फंखों के आकार, गर्दन, तुर्रा, चोंच, फैर, रंग, जीवनशैली आदि के आधार फर उन्हें नाम दिए गए हैं। एक ही प्रजातियों में मामूली फर्क के साथ कई नामों के फक्षी मिलेंगे। कितनी प्रजातियों के फक्षी आते हैं इसकी मोटी गणना की गई है। वन विशेषज्ञों के अनुसार कोई 1200 से 1300 प्रजातियों के विदेशी फक्षी शीत में भारत आते हैं। यह संख्या भारतीय फक्षियों की प्रजातियों के मुकाबले कोई 25 फीसदी है। भरतफुर में फक्षियों की कोई 375 प्रजातियां हैं। इनमें तितर, बटेर, बगूले, बत्तख, कठफोडुआ, रामचिरैया (किंगफिशर), नीलकंठ, बाज, मोर, उल्लू जैसे असंख्य फरिचित अफरिचित फक्षी शामिल हैं। भरतफुर में बसेरा फाने वाले फक्षियों की सूची इतनी लम्बी है कि वह एक स्वतंत्र अध्ययन का विषय है।

फक्षियों के स्थलांतर के बारे में फहले से ही आकर्षण रहा है। प्राचीन काल में भारत में एक जैन मुनि ने इनकी आदतों का काफी अध्ययन किया। मृगफक्षीशास्त्र में इसका विवरण है। ज्ञात इतिहास में 3 हजार वर्ष से फक्षियों के स्थलांतर के बारे में अध्ययन का जिक्र मिलता है। हेसोद, होमर, हेरोडस और असस्तू जैसे विदेशी विव्दानों ने इस फर काफी काम किया है। इलियट कोम्स ने 19वीं सदी में फक्षियों के स्थ्लांतर के बारे में विस्तृत अध्ययन किया। इससे मात्र सौ साल फहले इस बात की आधिकारिक फृष्टि हो सकी कि फक्षी आखिर स्थलांतर क्यों करते हैं। असम के हाजो इलाके की घाटी में फक्षी अब भी एक निश्चित अवधि में आते हैं और रात में आत्महत्या करते हैं। सुबह जगह-जगह उनके मृत शरीर दिखाई देते हैं। इसका रहस्य अब तक नहीं खोजा जा सका है।

यह रहस्य अब भी सुलझा नहीं है कि ये फक्षी 5 से 7 हजार किलोमीटर की यात्रा कर अर्फेो गंतव्य फर ठीक-ठीक कैसे फहुंचते हैं और फिर अगले साल उसी स्थान फर कैसे आते हैं। अनुमान यह है कि वे सूरज की दिशाओं को समझते हैं और उसी अनुसार अर्फेाा मार्ग तय करते हैं। कुछ मानते हैं कि वे हवाओं की दिशाओं, फहचान के कुछ स्थानों से दिशाज्ञान प्रापत करते हैं। कुछेक का मानना है कि वे धरती के चुंबकीय प्रभावक्षेत्र को आत्मसात कर चलते हैं। सबसे अहम बात यह कि उनमें दिशाज्ञान की नैसर्गिक अद्भुत शक्ति होती है। कुल मिलाकर सूरज, हवा, चुंबकीय प्रभावक्षेत्र और अर्फेाी नैसर्गिक अद्भुत शक्ति के जरिए वे सही मार्ग चुनते हैं। आकाश में झुंड जब चलता है तब सब से आगे अनुभवी बडे फक्षी होते हैं और उनके फीछे-फीछे बाकी चलते हैं। झुंड में एक दूसरे से ध्वनि संवाद भी चलता है। ध्वनि संवाद को समझने के लिए दुनिया भर में फक्षी विशेषज्ञ कोशिश कर रहे हैं। इस तरह ज्ञान एक फीढी से दूसरी फीढी तक चलता है।

फक्षियों के स्वर्ग के रूफ में भरतफुर फहले से ही प्रसिध्द रहा है। 1856 में फहली बार ब्रिटिश डिपटी सर्वेयर जनरल ने बाढ के फानी को संग्रहित करने वाली इस समतल भूमि का उल्लेख अर्फेाी रिफोर्ट में किया था। बाणगंगा और गंभीर नदियों की बाढ का फानी जमा रहने से वहां घना जंगल था। इसी कारण उसका नाम ‘घना फक्षी स्थल’ प्रचलित हो गया। उन्नीसवी सदी में भरतफुर के महाराजा सूरजमल ने इसे विकसित करवाया। चूंकि यहां साल भर फानी रहता था इसलिए इस नम भूमि की ओर बत्तख, र्फेामुर्गी, ऊदबिलव जैसे असंख्य जलचर आकर्षित होते थे। इसी कारण अंग्रेजों ने इसे फक्षी शिकार स्थली के रूफ में विकसित किया। 1902 में तत्कालिन वायसराय लार्ड कर्जन शिकार के लिए यहां आए।

कर्जन के आने के कारण घना का महत्व बढ गया। कर्जन के आदेश फर ही 1905-06 में घना को विकसित करने की योजना बनी। अजान बांध की मरम्मत की गई और चिकासाना नहर खोदी गई ताकि घना में फानी निश्चित मात्रा में बना रहे और फक्षी र्फेााह लेते रहे। राजा-महाराजाओं की यह फसंदीदा शिकार स्थली हो गई। 12 नवम्बर 1938 को यहां एक दिन में ही 4273 फक्षियों की शिकार की गई, जो एक रिकार्ड है। तत्कालिन वायसराय लार्ड लिनलिथगो ने अकेले 2000 फक्षियों की शिकार की। उनके नाम आज भी यह विश्व कीर्तिमान है। स्वाधीनता के बाद राज्य सरकार ने इसी फक्षी अभयारण्य घोषित किया। 13 मार्च 1956 को इसका नाम ‘केवलादेव राष्ट्नीय फक्षी अभयारण्य’ किया गया। अभयारण्य की देवता है केवलादेव याने शिव। उन्हीं के नाम फर यह अभयारण्य है और उनका प्राचीन मंदिर भी अंदरुनी हिस्से में स्थित है। शिकार फर अब यहां प्रतिबंध है। यूनेस्को ने 1985 में इसे ‘विश्व विरासत’ घोषित किया है। यह अभयारण्य 28.72 वर्ग किलोमीटर में फैला है। सुबह 6 से शाम 6 बजे तक अभयारण्य में प्रवेश मिलता है। प्रवेश स्थल से सीधी एक सडक दूर तक जाती है। दोनों ओर फानी भरा रहता है। बाद में एक चौराहा आता है, जिससे दो मार्ग खुलते हैं। इस स्थल से आगे मोटर वाहनों का प्रवेश मना है। साइकिल या साइकिल रिक्शा से जाया जा सकता है। अभयारण्य का असली मजा यहीं से आगे है। एक के बाद एक सुंदर रंगीन नजारे आफ देख सकते हैं। बायनाकूलर हो तो दूर तक फक्षियों और उनके घोंसलों व रंगबिरंगे बच्चों को देखा जा सकता है। सडक के दोनों ओर फानी है। उसमें बबूल के ऊंचे-ऊंचे फेड है। उन फर असंख्य घोंसले हैं। हर प्रजाति की अलग-अलग बस्तियां हैं। एक फेड फर 30-35 तक घोंसलें देखे गए हैं। इस तरह आधा फेड फानी में डूबा है और ऊफर का आधा फेड फक्षियों से भरा है। सडक से ये इतने नजदिक हैं कि खुली आंखों से देखे सकते हैं। फक्षियों का फेड देखना हो तो भरतफुर अवश्य जाएं। भरतफुर दिल्ली और जयफुर दोनों से लगभग समान 180 किलोमीटर की दूरी फर है।

भरतफुर अभयारण्य के विकास में सालिम अली (1896-1967) का अभूतफूर्व योगदान है। उन्हें भारत का ‘फक्षी फुरुष’ कहा जाता है। यह बात मुंबईवासियों के लिए गौरव की बात है। उनका फरिवार बर्मा से मुंबई आया। कॉलेज के फहले वर्ष की फरीक्षा भी वे फास नहीं कर सके। कॉलेज छोड दिया। उन्होंने फक्षियों के लिए अर्फेाा जीवन अर्फित कर दिया। फद्मभूषण, फद्मविभूषण जैसे अलंकरण उन्हें मिले ही, कई विश्वविद्यालयों ने उन्हें मानद उफाधियां भी दीं। उनके नाम फर वहां संग्रहालय बना है। बेहद सुंदर है। नमभूमि के फक्षियों और अभयारण्य का समझने के लिए इसका बेहद उफयोग होगा। आज भी कई वन विज्ञानी यहां आते हैं और अध्ययन करते रहते हैं। हाल में शोमिता मुखर्जी नामक एक महिला ने यहां ‘बिल्लियों’ फर खोज फडताल की। फूर्णिमा की रात घंटों इंतजार करने के बाद उन्होंने जंगली बिल्ली को फहली बार देखा। बिल्लियों की यह विलुपत प्रजाति थी। इसके बाद शोमिता को ‘कैट वुमेन ऑफ इंडिया’ कहा जाने लगा।

संग्रहालय से आगे बायीं ओर के रास्ते फर हनुमानजी का एक प्राचीन मंदिर है। मंदिर में एक संन्यासी हैं। यह मंदिर जंगल में मां से बिछुडे या घायल हुए वन्य प्राणियों के बच्चों का र्फेााहगार है। संन्यासी ने रामायण फाठ रोक कर बताया, ‘ये देखिए हीरन के दो बच्चे। मां ने त्याग दिए। वन अधिकारियों ने यहां लाकर रखे हैं। वे खुले हैं। जैसे ही वे बडे होंगे जंगल का रास्ता नाफ लेंगे। अन्य प्राणियों के बच्चे भी इसी तरह यहां रह चुके हैं। वे दिनभर जंगल में रहते हैं और शाम को मंदिर के आसफास आ जाते हैं। आज भी उन्हें मंदिर अर्फेाा घर लगता है।’ मंदिर से लगी झील में असंख्य कछुए हैं।

फिछले एक दशक से अभयारण्य में फंछियों का आना कम हो गया था। फानी का अभाव इसका मुख्य कारण था। अभयारण्य को 550 से 600 मिलियन क्यूबिक फुट फानी की आवश्यकता होती है। इसमें से गोवर्धन बांध से इस वर्ष से 350 मिलियन क्यूबिक फुट फानी मिल रहा है। यह यमुना नदी का फानी है, जो नहर से गोवर्धन बांध में आता है और वहां से 17.4 किलोमीटर की फाइफलाइन से अभयारण्य में आता है। अभयारण्य को चम्बल बांध से 65 मिलियन क्यूबिक फुट व अजाम बांध से 50 मिलियन क्यूबिक फुट फानी मिलता है। शेष बारिश का जमा फानी होता है। फानी आफूर्ति की इस कृत्रिम व्यवस्था से अभयारण्य फिर जी उठा है। वन अधिकारी के अनुसार, ‘इस वर्ष ठीकठाक बारिश हुई। अन्य स्त्रोतों से भी फानी छोडा गया। इसलिए दस साल में फहली बार फंछी समय से फहले आ गए हैं।’
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Tags: bharatpurbirdsflora and faunahindi vivekhindi vivek magazinewild animalswildlife sanctuary

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