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थिंक टैंकरों के बीच

थिंक टैंकरों के बीच

by विजय कुमार
in दिसंबर २०१२, सामाजिक, साहित्य
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मैं ठहरा सीधा सरल गंवई इन्सान। थिंक और थिंकिंग से मेरा पूर्व जन्म में भी कोई संबंध नहीं रहा; पर कभी-कभी हालत सांप-छछूंदर जैसी हो जाती है। अर्थात न निगलते बने और न उगलते। परसों भी ऐसा ही हुआ।

शर्मा जी मेरे कई दशक पुराने मित्र हैं। वे कभी अच्छे मूड में होते हैं, तो जबरन साथ ले जाकर चाट-पकौड़ी खिला देते हैं। मैं भी बुरा नहीं मानता। आखिर मित्रता जो ठहरी; पर परसों की बात कुछ अलग ही थी।

परसों भी मैं हर दिन की तरह काम में लगा था कि शर्मा जी आ गये -चलो वर्मा, कपड़े बदल लो। एक गोष्ठ में चलना है।
शर्मा जी को कवि गोष्ठियों में जाने का रोग है। मुझे लगा कि आज भी कोई ऐसी ही गोष्ठी होगी, जहां बेसिर-पैर की कविताओं पर मुझे जबरन वाह-वाह करनी पड़ेगी। वैसे मुझे आज तक यह समझ में नहीं आया कि दस मिनट की अपनी कविता सुनाने के लिए, लोग एक चाय और दो बिस्कुट के बल पर तीन घंटे तक दूसरों को झेलते हुए कैसे बैठे रहते हैं? पर शर्मा जी का आग्रह था, इसलिए जाना पड़ा।

रास्ते में मेरे पूछने पर उन्होंने बताया कि आज कवि गोष्ठी नहीं, थिंक टैंकों की गोष्ठी है। मैं तो इस शब्द को सुनकर ही कांप गया। मैंने अपने हाथ से आज तक किसी को थप्पड़ भी नहीं मारा। इसलिए मुझे गोली, बंदूक, टैंक जैसे शब्दों से ही डर लगता है; पर शर्मा जी साथ थे, इसलिए हिम्मत कर चलता रहा।

गोष्ठी स्थल पर पहुंचे, तो वहां थिंकर और थिंक टैंक ही नहीं, थिंक टैंकर तक उपस्थित थे। मुझे उनके साथ बैठना बड़ा अजीब सा लग रहा था; पर शर्मा जी के साथ आया था, इसलिए बैठना ही पड़ा। गोष्ठी स्थल भी बहुत शानदार था। कीमती फर्नीचर, बढ़िया ए.सी, सुगंधित वातावरण और साफ-सफाई भी चकाचक।

माला और फूल जैसी औपचारिकताओं के बाद गोष्ठी प्रारम्भ हो गयी। मंच पर लगा बैनर गोष्ठी का विषय दर्शा रहा था देश की प्रगति में थिंक टैंकों की भूमिका।
गोष्ठी में यद्यपि थे तो सब हिन्दी वाले; पर वार्ता अंग्रेजी में हो रही थीं। फिर भी मैं धैर्य से बैठा रहा। शायद यहां कोई हिन्दी में भी थिंकने वाला हो। काफी देर बार एक वक्ता हिन्दी में बोले। उनकी बातें बड़ी व्यावहारिक थीं; पर उनके बाद फिर अंग्रेजी चल पड़ी।

अब मेरा धैर्य जवाब देने लगा था। मैंने मजबूर होकर शर्मा जी को कोहनी मारी – ये सब थिंकर हिन्दी में क्यों नहीं बोलते?
– चूंकि हिन्दी में बोलने और सोचने वाला विचारक हो सकता है, थिंकर नहीं। और यह गोष्ठी थिंक टैंकों की है। तुम्हें यहां इसीलिए लाया हूं कि तुम भी विचारक से उठकर थिंकर बन जाओ।

– पर शर्मा जी, ये सब तो अच्छी हिन्दी जानते हैं, इनमें से कई के लेख मैं हिन्दी पत्रों में पढ़ता रहता हूं। वे लाल कमीज वाले तो दूरदर्शन पर भी आते हैं। फिर भी..?

– हां, तुम ठीक कह रहे हो। हिन्दी आम लोगों की भाषा है। इसलिए अपने विचार सब तक पहुंचाने के लिए ये हिन्दी में बोलते और लिखते हैं; पर यह आम नहीं, खास लोगों की गोष्ठी है। इसलिए यहां अंग्रेजी ही चलेगी।
– लेकिन यदि ये हिन्दी में बोलें, तो क्या कुछ बुराई है?

– हां है। यदि यहां ये अंग्रेजी में नहीं बोलेंगे, तो बाकी लोग समझेंगे कि इन्हें अंग्रेजी नहीं आती। इससे थिंकरों के बाजार में इनकी कीमत गिर जाएगी। अंग्रेजी का ठप्पा लग जाए, तो देश ही नहीं, विदेश में जाने के भी रास्ते खुल जाते हैं।

शर्मा जी विद्वान और अनुभवी व्यक्ति हैं। उनकी व्याख्या सुनकर मैंने अपना सिर हिला दिया।
पर वहां विदेशी परफ्यूम की गंध और ए.सी. की तेज ठंडक से कुछ देर बाद मेरा सिर दुखने लगा। मुझे इन चीजों का अभ्यास नहीं है। मैंने शर्मा जी की ओर देखा कि शायद वे उठने के मूड में हों; पर वे तो गोष्ठी में ध्यानस्थ थे। कुछ थिंकर पर्यावरण की चिन्ता करने वाले थे, तो कुछ बेरोजगारी की। कुछ गरीबों की चिन्ता में बार-बार चाकलेट खाकर बोतलबंद पानी पी रहे थे।

कुछ थिंकर खुद को खेती का विशेषज्ञ बता रहे थे, तो कुछ समाजशास्त्र का। एक-दो थिंक टैंकर रक्षा क्षेत्र के भी थे। सबके पास महंगे मोबाइल फोन थे, जिस पर वे हर दो-तीन मिनट बाद नजर डाल लेते थे। कुछ तो फोन करने या सुनने के लिए बीच में कई बार उठ भी रहे थे। कुछ के पास लैपटाप भी थे, जिसे वे बार-बार खोल और बंद कर रहे थे। उनके हाव-भाव भी उनके टैंक या टैंकर होने की कहानी कह रहे थे।
मैंने एक बार फिर शर्मा जी को कोहनी मारी- ये थिंकर इतने महंगे सभाकक्ष में गरीबी और पर्यावरण की बात कर रहे हैं? इसके लिए इन्हें किसी निर्धन बस्ती में पेड़ के नीचे बैठना चाहिए था।

– नहीं ऐसा संभव नहीं है।
– तो फिर आप इन्हें अपने घर बुला लेते। इतने लोग तो वहां बड़े आराम से बैठ सकते हैं। सबको चाय-नाश्ता मैं करा देता।
– तुम मूर्ख इन ऊंची बातों को नहीं समझोगे। इतने बड़े लोग भला गरीब बस्ती में पेड़ के नीचे बैठेंगे? इनका दिमाग ए.सी. की ठंडक और परफ्यूम की महक में ही चलता है। गली-मोहल्ले में आकर इन्हें बेइज्जती करानी है क्या? वहां तो इनकी कारें मुड़ भी नहीं सकेंगी। ये विचारक नहीं, थिंकर हैं थिंकर।

– लेकिन शर्मा जी, ये लोग कुछ काम-धंधा तो करते होंगे?
– नहीं वर्मा। ये पेशेवर थिंकर हैं। थिंकिंग से ही इनकी रोटी-रोजी चलती है। इसी से इनकी शानदार कार, कोठी और यात्राओं के खर्च निकलते हैं। इसी से इनके बच्चे विदेश पढ़ने जाते हैं।

– तो इनको इसके लिए पैसा कौन देता है?
– इन सबकी अपनी संस्थाएं. फाउंडेशन और एन.जी.ओ. हैं। कुछ को उद्योगपति, कुछ को दूसरे देश, तो कुछ को भारत सरकार पैसा देती है। जो पैसा देता है, ये उसके लिए ही काम करते हैं। ऊंचे पदों पर बैठे लोगों से मधुर संबंध बनाकर ये सरकारी नीतियों का प्रभावित करने का प्रयास करते हैं। बड़े-बड़े अवकाशप्राप्त अधिकारी या उनकी पत्नीयां इनके साथ काम करती हैं। तुम जैसे सामान्य लोगों के लिए इस गोरखधंधे को समझना कठिन है।

– क्या सारे थिंकर ऐसे ही होते हैं?
– नहीं कुछ लोग गंभीरता से देशहित में भी काम करते हैं; पर अधिकांश तो सरकार से या विदेश से आये पैसे को खाने-पीने, घूमने-फिरने और सभा-गोष्ठी में ही बराबर कर देते हैं। दोष इनका भी नहीं है, जब कुएं में ही भांग पड़ी हो, तो जो पानी पिएगा, वह नशेड़ी हो ही जाएगा।
मैंने शर्मा जी से चलने का आग्रह किया; पर वे नहीं माने। झक मार कर मुझे भी बैठना ही पड़ा।

चाय-काफी के बाद अब थिंकिंग का दूसरा दौर चालू हो गया। अब तक तो सब अपनी-अपनी बात कह रहे थे; पर अब परस्पर टोका-टाकी प्रारम्भ हो गयी। हर थिंकर अपनी संस्था के काम को बढ़ा-चढ़ा कर बता रहा था। कुछ चारण और भाट की तरह अपने मालिकों के गुण माने लगे। विदेशी पैसे से धर्मान्तरण और देशद्रोही गतिविधियों में लिप्त संस्थाओं के प्रतिनिधि हिन्दू संगठन और कुछ राज्य सरकारों पर उन्हें परेशान करने का आरोप लगाने लगे।

संचालक महोदय सबको संभालने का प्रयास कर रहे थे। मैंने शर्मा जी से कहा कि वे संयोजक को गोष्ठी समाप्त करने को कहें। अन्यथा थोड़ी देर में ये टैंक और टैंकर आपस में टकराने लगेंगे।

लेकिन शर्मा जी आराम से थे। अत: मैं बाहर आ गया। कुछ देर में सचमुच अंदर की आवाजों का स्वर ऊंचा हो गया।
सभास्थल के बाहर मैंने इन थिंकरों की आलीशान कारों को खड़ा देखा। उनके चालक बैठे ताश खेल रहे थे। सड़क के पार झुग्गी बस्ती में आज कई दिन बाद पानी का टैंकर आया था। लोग डिब्बे और बाल्टियां लिये लड़ रहे थे। महिलाएं सड़क पर खाना बना रही थीं। बच्चे खुले में ही अपने प्राकृतिक कर्म से निबट रहे थे।

यह वीभत्स दृश्य देखकर मैंने सोचा कि ये नामी-गिरानी थिंकर यदि चौबीस घंटे भी इन बस्तियों में बिता दें, तो उन्हें महंगे सभागारों में काजूवाली बरफी खाते और काफी पीते हुए गरीबी पर चर्चा करने की आवश्यकता नहीं रहेगी।
कुछ देर में गोष्ठी समाप्त हो गयी। सभी थिंक टैंकर अपनी कारों में बैठकर चल दिये। कार के शीशे ऊपर तक चढ़े थे, जिससे बस्ती के दृश्य से उनका मूड खराब न हो।

वापसी पर मैंने शर्मा जी से पूछा – गोष्ठी में क्या निर्णय हुआ?
– वही, जो पिछली बार हुआ था कि अगले महीने फिर मिलेंगे।
– अच्छा, फिर यहीं गोष्ठी होगी?

– नहीं, नगर में इससे भी अच्छा एक सभागार और बन गया है। थोड़ा महंगा जरूर है; पर उसके आसपास गंदी बर्िंस्तयां नहीं हैं। सबकी राय थी कि अगली गोष्ठी वहीं होनी चाहिए। पास में ही एक पंचतारा होटल है। वहां से चाय-नाश्ता आने में भी सुविधा रहेगी।
– अगली गोष्ठी का विषय क्या है?

– यह तो पता नहीं; पर तुम्हारा कोई सुझाव हो, तो मैं संयोजक जी को बता दूंगा।
– देश की अवनति में थिंक टैंकरों की भूमिका कैसा रहेगा?
शर्मा जी यह सुनकर मुस्कुरा दिये।

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