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बदलाव की डगर पर पाकिस्तान?

बदलाव की डगर पर पाकिस्तान?

by फीरोज अशरफ
in जनवरी- २०१३, देश-विदेश
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हालांकि पिछले कुछ महीनों से उदारवादी, प्रगतिशील और कट्टरपंथी विरोधी शक्तियां उभर कर सामने आ रही हैं, फिर भी कुल मिलाकर पाकिस्तानी समाज और प्रशासन पर कट्टरपंथी जेहादियों का दबाव बना हुआ है। निडर और साहसी किशोरी मलाला के लंदन में कामयाब आपरेशन के बाद तहरीके तालिबान पाकिस्तान के प्रमुख हकीमुल्लाह महसूद ने पाकिस्तान भर में अपने संगठन के दहशतगर्द सदस्यों को आदेश जारी कर दिया था कि उन मीडिया कर्मियों और मलाला के समर्थकों को निशाना बनाया जाए, जिन्होंने मलाला मामले में जेहादी तालिबानियों की निंदा की और मलाला के समर्थन में जी भरकर चिल्लाए। भय की हल्की सी चादर पाकिस्तान भर में जरुर फैली थी लेकिन निडर, बेबाक और साहसी पाकिस्तानी मीडिया कर्मियों और उदारवादियों ने उन धमकियों और गीदड़ भभकियों पर गंभीरता से नजर नहीं डाली। वैसे भी वे, याने मीडियाकर्मी और उदारवादी एक आतंकित माहौल में जीने के आदी हो चुके हैं। उन्होंने तालिबानी दहशतगर्दो के विरोध में अपनी मुहिम जारी रखी। अब यह मुहिम एक आंदोलन बन गया है।

पाकिस्तानी उदारवादियो और प्रगतिशील तत्वों के साथ कई दिक्कते हैं। उनके कारण वे थकहार कर पीछे हट जाते है या फिर चुपचाप हो जाते है। उनकी खामोशी को कमजोरी समझकर दहशगर्द गुंडे, जिहादियो के नाम पर अपना मतलब साधते हैं। उन्हें रोकने टोकने वाले भी कम संख्या मे होते है। वैसे भी समूची आबादी का विरोध मंचों या सड़कों पर आना संभव नहीं है। उदारवादियों की दिक्कत यह है कि उसकी संख्या कम है। वे बिखरे हुए हैं। उन्हे राजनीतिक दलों या सामाजिक संगठनों का व्यापक समर्थन नहीं है। लड़ने-भिड़ने को उनके पास गोला, बारुद, बंदूक नहींं है। सवाल ही नहीं उठता है कि कोई उन्हें इन गोला बारुद का उपयोग करना सिखाये। वे केवल शब्दों के हथियार चलाते हैं या फिर सड़कों, चौराहों पर प्रदर्शन कर सकते हैं।

फिर भी ध्यान देने की बात यह है कि पाकिस्तानी राजनीतिक दलों में भी, हमारी तरह ही वामपंथी, उदारवादी और प्रगतिशील लोग हैं। लेकिन व्यापकरूप में उसका प्रभाव सीमित है। वे अपनी पार्टी की चौखट को लांघ नहीं सकते हैं। यहां तक कि शीर्ष के बड़े और प्रभावशाली नेताओं ने भी आम जनहित और गरीब मजदूर किसानों के हित में कभी भी जोरदार सशक्त आवाज नहीं उठाई। जब जुल्फिकार अली भुट्टो ने 1966 में अपनी पार्टी बनाम पीपल्स पार्टी आफ पाकिस्तान की बुनियाद डाली तो उन्होंने आम गरीब पाकिस्तानियों के हित में इस्लामी समाजवाद का नारा लगाकर प्रत्येक पाकिस्तानी के लिए रोटी कपड़ा मकान का आकर्षक नारा उछाला। उनकी पार्टी के मेनिफिस्टो और नीति से प्रभावित होकर उन दिनों फैजअहमद फैज जैसी हस्ती के साथ-साथ कई मशहूर उदारवादी लेखकों, कवियों और सामाजिक कार्यकर्ताओं ने पीपुल्स पार्टी का दामन पकड़ा लेकिन चुनावी राजनीति और बदलते हुए हालात में पीपुल्स पार्टी और भुट्टो ने वह लुभावना नारा भुला दिया और उसके बदले में ऐसी नीति अपनाई कि पाकिस्तान ही टूट गया और लाखों लोग मारे गए, बेघर हुए। दुख की बात यह थी कि उन दिनों और फिर बाद में 1971-72 में भुट्टो के पाकिस्तानी शासन पर कब्जा जमाने के बाद भी, जब वह धीरे-धीरे एक तानाशाह की खुली भूमिका निभा रहे थे, तो पार्टी के सारे उदारवादी चुप थे। उन चुप रहनेवालों और भुट्टो के अत्याचार, कुशासन को खामोशी से देखने वालों में फैज अहमद फैज समेत दूसरे कई जाने-माने प्रगतिशील उदारवादी लोग थे। तानाशाह भुट्टो के सामने सभी ने सर झुका दिया। अपनी बेजा, अनैतिक, अलोकतांत्रिक चालों और नीतियों के सामने, किसी जमाने के प्रगतिशील, डेमोक्रेट और उदारवादी जुल्फिकार अली भुट्टो ने अपना चेहरा बदल दिया। उनका समाजवाद रोटी, कपड़ा, मकान, गरीब, मजदूर, किसान हवा में उड़ गए। इतना ही नहीं, भुट्टो ने अपने शासन काल में कराची में एक मजदूर प्रदर्शन पर गोलियां चलाने का आदेश जारी किया। उसमे 70 मजदूर मारे गए थे और कई जख्मी हुये। भुट्टो को उस जमाने मे कातिल भुट्टो कहा जाने लगा था। उन्होंने बलुचिस्तान में फौज की दो विजिन भेज कर हजारों बलुचिस्तानियों को गोलियों से भुनवाया। हजारो बलोच जाने बचाने के लिये पहाड़ी पर चले गए। कुल मिलाकर प्रगतिशील भुट्टो, कातिल भुट्टो बन चुका था। इसीलिए उनकी फांसी पर पाकिस्तान में एक पत्ता तक नहीं खड़का।

जुल्फिकार अली भुट्टो

जुल्फिकार अली भुट्टो की फांसी के वर्षों बाद तक पाकिस्तान में प्रगतिशील और उदारवादी शब्द बेमानी हो गए। लोगों को लेफ्ट, वामदल शब्द पर गुस्सा आता था। दिक्कत तो यह थी, कि भुट्टो के साथ-साथ वली खां जैसे जाने-माने वामपंथी और आम मेहनतकरों, किसानो के नेता समझी जानेवाली हस्तियां भी केवल ‘पठानी’ राजनीति- में ही लगी रही। उन्होंने पाकिस्तानी आवाम के लिए आवाज नहीं उठाई, बल्कि पठानी, बलूचों की ही लाल करते रही।

उधर बलूचों के वामपंथी नेता गौस बख्श बजेंजी, अकबर बुगती और सिंधियो के मज़दूर किसान नेता जाम साकी, पीरों के पीर जी. एम. सैयद हों या कोई और अपने क्षेत्र से बाहर नहीं निकले। अपनी नीति और विचारो में वे सभी वामपंथी नीतियों की बाते ही करते रहे, लेकिन अपनी दीवारों को तोड़कर वे पाकिस्तान के विशाल, जुझारु, मजदूर किसान आंदोलनों से नहीं जुड़े। उन्होंने ‘कौमपरस्ती, एक ही कौम (संप्रदाय) की समस्याओं की बात उठाई। उससे उनपर क्षेत्रीयता का ठप्पा लगा। उन्हे एक घेरे में बंद कर दिया गया। शासकों ने उन्हें पाकिस्तान से अलग,एक छोटे से क्षेत्र का लीडर बता कर उनपर देशद्रोह का ठप्पा लगा दिया। इससे सबसे बड़ा फायदा हुआ उन्हें दबाने, कुचलने का सर्टिफिकेट जो प्रशासन को मिला उसी के बल बूते पर पाकिस्तानी प्रशासन ने, चाहे वह फौजी हो या फिर आम नागरिक, अपने वामपंथी विरोधियो का सफाया कराया।

इस क्रम में बांग्लादेश के संस्थापक निर्माता शेख मुजीब्रुर्रहमान का नाम भी लिया जा सकता है। अंतिम समय तक शेख साहब, पाकिस्तान फेडरल शासन के अंतर्गत अपने छह सूत्रीय कार्यक्रम की स्वीकृति चाहते थे, जिसके अंतर्गत पूर्वी पाकिस्तान (आज का बांग्लादेश) को कुछ अधिक सहूलियतें बनाम स्वयंसत्ता चाहिए थी। उनके साथ, उस समय बांग्लादेश भी कम्युनिस्ट पार्टी तथा दूसरी जनाधार वाली पार्टिया भी थीं। जनरल यहया खाने शेख साहब की मांग पर उन्हें गद्दार, देशद्रोह और जाने क्या क्या कहा। कैद किया। यातनाएं दी। ऐसा आभास दिया जैसे उन्हें फांसी हो जाएगी। ध्यान देने की बात यह है कि बांग्लादेश का, बल्कि पूर्वी पाकिस्तान का वह जनांदोलन पश्चिम पाकिस्तान तक नहीं पहुंच सका। हालांकि उस समय सिंध और बलूचिस्तान और सूबा सरहद मे भी राजनीतिक संकट था। वहां के नेतागण अपने अपने ढंग से आंदोलन चला रहे थे। लेकिन उन सभी का, न तो शेख मुजीब्रुर्रहमान से और न ही एक दूसरे से कोई ताल मेल बैठता था। एक ही उद्देश्य को लेकर चलने पर भी सभी के रास्ते अलग थे। बांग्लादेश की तो भारत पाक जंग का लाभ मिला, सिंध, बलूचिस्तान और सरहद को कुछ नहीं मिला। बल्कि उसके बाद जन भुट्टो ने शासन संभाला तो उनके अत्यचार का निशाना बनना पड़ा इसी तरह बहुत बाद में, जनरल जियाउलहक के फौजी शासन में कराची के दो युवा मुहाजिरों ने ‘मुहाजिर कौमी मुहाज’ नामक एक सशक्त प्रगतिशील राजनीतिक, सामाजिक दल बनाया, तो वह भी कराची महानगर की सीमाओं तक ही सीमित रहा। एम क्यू एम ने 1984-85 से लेकर आज तक पाकिस्तानी सियासत में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई, लेकिन उसने हमेशा गैर मुहाजिरों का पक्ष लिया।

शेख मुजीब्रुर्टहमान

हालांकि उसी कराची में कुल आबादी का तिहाई भाग गरीब, मेहनतकश बलूच, पठान और सिंधी भी आबाद हैं। यह लोग भी मेहनत मजदूरी करके पेट पालते है और बेहद गरीबी और अभाव में जीते हैं। उनकी आबादी में भी पानी, स्वास्थ्य, शिक्षा, ट्रांसपोर्ट और इनके साथ-साथ पुलिस और गुंडों, स्मगलरों का आतंक बना रहता है। एम क्यू एम ने उर्दू बोलने वालों के लिए सारी सुख सुविधाएं और सहूिर्िंलयते बटोरी, लेकिन, अपनी नजरों के सामने मासूम, बेबस और कमजोर कराची के सिंधियो, बलूची और पठानों के लिए कुछ नहीं किया। उल्टा, समय समय पर उन्हें भाषाई और जातीय दंगों के समय सताया भी। यदि वे, याने मुहाजिर कराची के गैर मुहाजिरों से भी हाथ मिलाते तो उनकी धाक कराची से आगे, सिंध बलोचिस्तान और पठानों के सूबे, सूबा सरहद में मी जमती। वे एक राष्ट्रीय दल बनकर राष्ट्र के सामने उमरते। लेकिन वैसा नहीं हुआ। नतीजा यह हुआ कि धार्मिक कट्टरता और संकीर्णता के विरोधी यह सभी लोग, दहशतगर्दो के साथ साथ प्रशासन द्वारा भी सताए जा रहे हैं। पाकिस्तानी सियासत में मांजे हुए सियासदां, खान अब्दुल वली खां (सरहदी गांधी के बेटे), कम्युनिस्ट पार्टी के जाम साकी, जीए सिंध और सिंधु देश की मांग करने वाले जी. एम. सैयद, बलूचों के नेता गौस बख्श बजेंजो, अकबर बुगती, और बांग्ला देश के संस्थापक शेख मुजीब्रुर्टहमान इत्यादि मिलकर एक मिला जुला राजनीतिक मंच बनाते तो वह प्रगतिशील ताकतों का मंच, एक और पाकिस्तान को हमारे सामने पेश करता। एक ऐसे पाकिस्तान को जिसका उद्देश्य होता गरीबों और शोषितों के लिए एक सुखी संपन्न समाज की संरचना। जहां सरहदों पर कश्मीर को लेकर टनो टन बारुद पर देश का धन खर्च नहीं किया जाता। जहां मजहबी जुनूनियों के लिए कोई जगह नहीं होती।

मलाला पर हुए हमले ने एक बार फिर पाकिस्तानी प्रगतिशील और उदारवादी शक्तियों को मौका दिया है कि वे एकजुट होकर तालिबानी दरिंदो का सामना करें। यह एक सुनहरा मौका है। हालांकि अब भी तालिबानी धमकियां जारी है। मलाला समर्थकों को निशाना बनने का डर है, लेकिन उनकी विरोधी शक्तियां के सामने उन्हें हार होगी। वैसे भी आम पाकिस्तानी तालिबानी जिहादियों से तंग आ चुका है। रोज रोज के धमाकों ने उसे आतंकित कर दिया है। वह उससे छुटकारा पाना चाहता है। इसलिए मलाला के समर्थन में चारों ओर से आवाज उठ रही है। जरुरत है कि प्रगतिशील और उदारवादी, तालिबानियों और दूसरे सभी दहशतगर्दों के विरोध में एक जुट हो।

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