26 जनवरी, 2013 को भारतीय गणतंत्र अपने 64 वर्ष पूर्ण करने जा रहा है। 26 जनवरी 1950 से संविधान पर अमल किया जाने लग् और भारत एक लोकतांत्रिक देश बन गया। सन् 1947 के बाद जिन लोगों का जन्म हुआ है उन्हे जन्म से ही लोकतांत्रिक शासन प्राप्त है। लोकतंत्र के पहले का शासन कैसा था? इस शासन में जनता को क्या अधिकार प्राप्त थे? इत्यादि अनेक बातों की जानकारी सामान्य नागरिकों को नहीं होती। एक-दो वाक्यों में कहा जाये तो लोकतंत्र के पहले राजतंत्र था। भारत में सुलतानों का राज था, अंग्रेजों का राज था। इस तरह के शासन में आम नागरिकों को लेखन, भाषण जैसी अभिव्यक्ती की स्वतंत्रता नहीं थी। सामान्यत: ऐसा शासन निर्दयी होता था। राजाओं या सुलतानों के शासन का जो विरोध करता था उसकी हत्या कर दी जाती थी। जो भी राज करनेवाले वाले लोग थे, उन्ही का धर्म आम जनता या प्रजा पर लादा जाता था। सारांश यह कि लोकतंत्र को छोडकर शासन तंत्र के सभी तरीकों में जुल्म और जबरदस्ती ही थी। इस कारण लोकतंत्र में जन्म लेनेवाले हम सभी लोग बहुत भाग्यशाली हैं। हमें उन सभी लोगों के प्रति कृतज्ञ होना चाहिये जो भारत में लोकतंत्र लाये और जिसके लिये उन्होंने बलिदान व त्याग किया।
गणतंत्र का प्राण उसके संविधान में बसता है। इस संविधान का निर्माण, मसौदा समिति के सदस्यों और मसौदा समिति के अध्यक्ष डा. बाबासाहेब आंबेडकर ने किया था। इस संविधान का निर्माण करने के लिये 2वर्ष,11 महीने एवं 17 दिन लगे। 25 नवम्बर, 1949 को संविधान सभा के सामने डा. आंबेडकर ने भाषण प्रस्तुत किया। यह अत्यंत महत्वपूर्ण भाषण था। इसमें बाबा साहब आंबेडकर ने स्पष्ट रूप से बताया था कि हमें हमारे गणतंत्र को चिरायु करने के लिये क्या करना चाहिये। सन् 1949 में संविधान पर कई आपत्तियां उठाई गईं। इनका उत्तर देते समय बाबा साहब ने थॉमस जेफरसन के शब्दों को उधृत किया, जिन्होंने अमेरिका के संविधान का निर्माण करने में अमूल्य योगदान दिया था। जेफरसन कहते हैं कि, ‘हमें प्रत्येक पीढ़ी को एक अलग राष्ट्र मानना चाहिये। ऐसा राष्ट्र जो बहुमत की इच्छा से स्वयं को नियंत्रित करता है, परंतु भावी पीढ़ी को बंधनों में रखने का अधिकार उसे नहीं है। उसी तरह जैसे वह अन्य किसी राष्ट्र के नागरिकों को नहीं बांध सकता।’
भावी पीढ़ी और संविधान
बाबा साहब यह बताना चाहते है कि हम अपने विचार आनेवाली पीढ़ियों पर लाद नहीं सकते। समाजवाद, साम्यवाद, गणतांत्रिक समाजवाद, गांधीवादी समाजवाद, इत्यादि वैचारिक संकल्पनाओं को संविधान के द्वारा भावी पीढ़ी पर थोपा नहीं जा सकता। न बदली जा सकने वाली कोई भी धारा संविधान में जोडी नहीं जा सकती। अगर ऐसा हुआ तो यह समझा जायेगा कि ‘‘यह पृथ्वी मृतकों की है, जीवितों की नहीं।’’ आने वाली पीढ़ी को यह निर्णय करना चाहिये कि उनकी अर्थव्यवस्था कैसी हो। प्रत्येक पीढ़ी को उनके प्रश्नों के हल ढूंढ़ने की स्वतंत्रता मिलनी चाहिये। हालांकि हमारे संविधान ने हमें बहुत स्वतंत्रता दी है। कुछ समय पूर्व तक ‘समाजवादी समाजरचना’ के नारे लगाये जाते थे, परंतु आज कोई भी इनका उच्चारण नहीं करता। आज मुक्त अर्थव्यवस्था और वैश्वीकरण की बात की जाती है। आनेवाले 25 वर्षों के बाद भी यही स्थिती रहेगी या नहीं कहा नहीं जा सकता। नयी परिस्थितियों के साथ नये शब्द प्रयोग किये जा सकते हैं।
बाबा साहब ने इस भाषण में एक प्रश्न भी उपस्थित किया था। उन्होंने पूछा, ‘अगर ऐसा सभी को लगता है कि लोकतंत्र केवल दिखाने के लिये नहीं है, इसे प्रत्यक्ष रुप में भी कायम रहना चाहिये, तो उसके लिये क्या करना होगा?’ उनके इस प्रश्न का उत्तर यह है कि हमारे द्वारा किये जा रहे आंदोलन संविधान में दी गई पद्धतियों के अनुसार ही होने चाहिये। अन्य मार्गों से किये गये आंदोलनों की स्वीकार नहीं किया जायेगा। यह अन्य मार्ग कोई और नहीं अराजकता का है। हमारे देश में माओवादी और नक्सलवादी इसी तरह का संविधान विरोधी कार्य कर रहे हैं। उन्होंने भी दहशद का मार्ग ही अपनाया है। खलिस्तान का आंदोलन भी इसी का एक नमूना है। अण्णा हजारे के आंदोलनों की तुलना उपरोक्त में से किसी से भी नहीं की जा सकती, परंतु वे भी सत्याग्रह और अनशन का मार्ग अपनाकर संसद को फांसने का प्रयत्न करते रहे हैं। यह गांधीवादी मार्ग भी संविधान के अनुरुप नहीं हैं।
बाबा साहब दूसरी बात कहते हैं कि, ‘अगर हमारा गणतंत्र हमेशा एक सा ही रखना है तो हमें व्यक्तिपूजा नहीं करनी चाहिये।’ बाबा साहब ने जॉन स्टुअर्ट मिल का उदाहरण देते हुए कहा कि, ‘अपनी स्वतंत्रता को कभी भी किसी बडे और महान व्यक्ति के चरणों में अर्पण न करें। और न ही कभी इतनी सत्ता और विश्वास उसे दें कि वे आपकी संस्था को ही उलट दे। जिन व्यक्तियों ने ताउम्र अपने देश की सेवा की ऐसे लोगों के प्रति कृतज्ञता दर्शने में कोई आपत्ती नहीं है, परंतु इस कृतज्ञता की भी कुछ मर्यादाएं है। क्या हम बाबा साहब के इस इशारे पर अमल कर पाये?
बडे ही दुख के साथ इसका उत्तर नकारात्मक देना पडता है। पंडित नेहरू के बाद नेहरु घराने की सत्ता देश पर चलने लगी। इंदिरा गांधी, राजीव गांधी, सोनिया गांधी और फिर राहुल गांधी। सत्ता की यही शृंखला देश में चल रही है। सीताराम केसरी कांग्रेस के अध्यक्ष थे। उन्होंने अपनी टोपी सोनिया गांधी के चरणों में रखकर उन्हे कांग्रेस का अध्यक्ष बनने को कहा यह लाचारी और गुलामी की पराकाष्ठा थी। परिवारवाद यह संक्रामक रोग शिवसेना को भी लग गया। नेहरु-गांधी परिवार पर तीक्ष्ण टिप्पणी करनेवाले बाल ठाकरे ने भी अपने दल में परिवारवाद को जन्म दिया। शरद पवार और करुणानिधी का दल भी इसी परिवारवाद का शिकार है। इन सबके लिये नेहरु, पवार या ठाकरे नहीं हम सब जिम्मेदार है। व्यक्तिपूजा और परिवारपूजा हमारे रोम-रोम में बस गई है। हम अभी भी व्यक्ति निरपेक्ष विचारधारा को अपना नहीं सके है। बाबा साहब कहते हैं कि, ‘धर्म में भक्ति निश्चित रुप से मुक्ति का मार्ग है, परंतु राजनीति में भक्ति या व्यक्तिपूजा अवनति की ओर जानेवाला मार्ग है।’
हमारे गणतंत्र को चिरायु करने के लिये तीसरी बात बाबा साहब कहते हैं कि ‘राजनैतिक लोकतंत्र की तरह ही हमें सामाजिक लोकतंत्र भी स्थापित करना चाहिये। लोकतंत्र के तीन सूत्र है- स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व, स्वतंत्रता और समानता को कायम रखने के लिये बंधुत्व होना आवश्यक है। हम सभी भारतीय एक हैं। इसी भावना को बंधुत्व कहते हैं। जातियों के कारण हममें अलग होने की भावना निर्मित होती है।
वे कहते हैं कि, ‘भारत में जातियां हैं। जातियां राष्ट्र विरोधी होती हैं। वे सामाजिक जीवन में भेद उत्पन्न करती हैं। आपस में द्वेष और मत्सर निर्माण करती हैं। हमें अगर सही अर्थों एक राष्ट्र होना है, तो इन सारी मुश्किलों से पार पाना होगा।’
संविधान का दुरुपयोग
क्या हमने इन मुश्किलों पर मात कर दी है? बडे खेद के साथ इसका जवाब नकारात्मक देना पडता है। दलितों पर अत्याचार की घटनायें कम नहीं हुई है। सन 2006 में 33,594 ऐसी घटनायें सामने आई जिनमें दलितों पर अत्याचार किया गया था। शारीरिक हानि पहुंचाने की 4,410 घटनायें और 1,646 घटनायें कुकर्मों की है। जातियों का अंत होने के स्थान पर जातिवाद की भावनायें बढ़ रही हैं। हमारे देश में जातियों के आधार पर कई राजनैतिक दल खडे हो गये हैं। चुनावों का टिकिट देते समय उम्मीदवार की जाति का ध्यान रखा जाता है। मतदाता क्षेत्रों में जातियों के समीकरण बनाये जाते हैं। इन समीकरणों के सिद्धांतो पर भी जोर दिया जाता है। उदाहरणार्थ अहिर, गुर्जर, राजपूत (अजगर), इनमें अगर मुसलमानों को जोड दिया जाये, यह तो मजगर हो जाता है। महाराष्ट्र में मराठा, माली, बंजारी आदि जातियां है। आज सभी जगहों पर जाति प्रमाण पत्र देना आवश्यक हो गया है। जन्म प्रमाण पत्र पर भी जाति लिखवानी पडती है। बाबा साहब ने कहा कि जातियां राष्ट्रविरोधी हैं। जातियों के कारण देश में एकता की भावना निर्माण नहीं हो पाती। हम सब भी उन्हीं जातियों को जीवित रखने का प्रयत्न कर रहे हैं, जिनकी कोई आवश्यकता नहीं है।
इसी भाषण में बाबा साहब ने कहा कि, ‘स्वतंत्रता ने हमें एक बडी जिम्मेदारी सौंपी है।’ ‘हमें’ शब्द का अर्थ आज जो जीवित हैं उनसे भी है और आनेवाली पीढ़ी से भी। इस जिम्मेदारी का एहसास दिलवाने का कार्य परिवार, शिक्षण संस्था, धर्माचार्य, राजनेता, उद्योगपति, व्यापारी, कलाकार इत्यादि सभी लोगों का है। परंतु क्या ये सभी लोग अपनी जिम्मेदारी समझ रहे हैं? निभा रहे हैं? परिवार में बच्चों को क्या सिखाया जाता है? हम सिखाते हैं कि अच्छी शिक्षा प्राप्त करो, डिग्री प्राप्त करो, अपनी कुशलता संपादित करो, खूब पैसा कमाओ, खूब बडा व सुंदर घर खरीदो, गाड़ी खरीदो और चैन से रहो। क्या हम उन्हें यह सिखाते हैं कि अपने आस-पास के क्षेत्र पर भी ध्यान दो। जो वंचित हैं उनके विकास का भी विचार करो। उनकी उन्नती का भी विचार करो। उनके सुख-दुख में शामिल रहो। फिल्मों में काम करने वाली अभिनेत्रियां कहती हैं कि ‘‘हमें किस तरह के वस्त्र पहनने चाहिये यह हमारा व्यक्तिगत विचार है। आप नैतिक पुलिस न बनें।’’ पैसे वालों के बच्चे पूछते हैं कि हम क्या करें, क्या नहीं, किस तरह की पार्टिया करें इत्यादि बातें बताने का अधिकार आपको किसने दिया? ऐसा लग रहा है कि स्वतंत्रता का दूसरा अर्थ स्वैराचार बनता जा रहा है। इन सारी मौज मस्तीयों के लिये अगर मां-बाप, दादी ने पैसे नहीं दिये तो उनका खून करने की घटनायें सामने आ रही हैं। मौज मस्ती के लिये धोखा देनेवाली महिलाओं के कर्म भी सामने आते हैं। अपनी ही बेटी के साथ कुकर्म करनेवाले पिता की खबरें भी आ रही है। इससे साफ जाहिर है कि स्वतंत्रता का अर्थ स्वैराचार ही बन गया है, जिम्मेदारी नहीं।
इन सारी परिस्थितियों में बाबा साहब के दिखाये गये रास्तों पर कौन चल रहा है? इसका उत्तर है इस मार्ग पर चलने वाले लोग हैं राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के स्वयंसेवक। वे व्यक्ति पूजन नहीं, कार्य पूजक है। वे जात -पात के बंधनों को स्वीकार नहीं करते। वे सही अर्थों में जातीमुक्त हैं। सभी प्रकार के कानूनों का पालन करने के लिये वे तत्पर रहते हैं। वे कभी भी कानून को अपने हाथ में लेने का प्रयत्न नहीं करते। उनके परिवार के बच्चे संस्कारित होते हैं। ऐशो-आराम के पीछे वे नहीं भागते। भारत का गणतंत्र चिरायु रखने के लिये यही एक नैतिक शक्ति है।