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दिल्ली आंदोलन- क्या शाश्वत परिवर्तन होगा?

दिल्ली आंदोलन- क्या शाश्वत परिवर्तन होगा?

by अमोल पेडणेकर
in फरवरी २०१३, सामाजिक
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दिल्ली में किसी रात नौ बजे के आसपास एक लड़की पर छ: नराधम अत्यंत पैशाचिक पद्धति से बलात्कार करते हैं और जख्मी अवस्था में उसे रास्ते पर फेंककर चले जाते हैं। आगे के 13 दिन वह लड़की जीवन से संघर्ष करती रहती है और अंतत: उसकी मृत्यू हो जाती है। अत्यंत क्रूर और दिल दहलानेवाली घटना। इस तरह की घटनायें हमारे देश में नाव और गांव बदलकर होती ही रहती हैं, परंतु दिल्ली की इस घटना ने पूरे देश को हिलाकर रख दिया। पूरा देश जाति, धर्म, उम्र इत्यादि के भेदों को भुलाकर अपराधियों को दंड़ देने की मांग को लेकर एकत्रित हो गया। अब बहुत हो चुका, किसी भी अबला के साथ आगे कभी भी ऐसी घटना नहीं होगी जैसी भावनाओं के साथ दिल्ली में तीव्र आंदोलन हुआ। हजारों की संख्या में कालेज के युवक-युवतीयां इस आंदोलन में सहभागी हुए। आंदोलन की तीव्रता के मद्देनजर राष्ट्रपति भवन, प्रधानमंत्री कार्यालय और गृहमंत्रालय की ओर जानेवाले सभी रास्तों को बंद कर दिया गया। इन युवाओं पर दिसम्बर की ठंड़ में पानी के फव्वारे, आंसू गैस और लाठियों की मार की बौछार की गई। कई लोग जख्मी हुए। फिर भी इस आंदोलन की तीव्रता कम नहीं हो रही थी, बल्कि दिन-ब-दिन बढ़ती जा रही थी। ये लोग सरकारी व्यवस्था और बेफिक्र नेताओं के विरोध में अपना रोष व्यक्त कर रहे थे। यह आंदोलन ???दिन तक चला। अपरिचित युवा बिना किसी राजनेता, बिना किसी राजनैतिक दल और बिना राजनीतिक एजेंड़े के एक साथ आ रहे थे। हर किसी के मन में अपराधियों के प्रति रोष था और साथ ही था हिन्दुस्तान की व्यवस्था को बदलने का आक्रोश। भारत ने इससे पहले कभी भी ऐसा नजारा नहीं देखा होगा।

इस आंदोलन ने देश की राजनीतिक व्यवस्था की आंखे तो खोली ही साथ ही भारतीय समाज की ताकत भी दिखा दी। सबसे बड़ा आश्चर्य है आंदोलन में भारी मात्रा में युवाओं की उपस्थिती। पिछले 20-25 वर्षों के आंदोलन का स्वरूप, बहुत अलग था। समाज और देश में उत्तेजक विषयों पर निर्माण हुए आंदोलन धीरे-धीरे राजनैतिक तत्वों के हाथ में जाता था और उस आंदोलन को देखते-देखते राजनैतिक स्वार्थ का रंग चढ़ जाता था। आंदोलन करनेवाले कार्यकर्ताओं का कभी उस आंदोलन पर नियंत्रण नहीं रहता था। परंतु पिछले दो सालों में आंदोलनों के रूप में काफी परिवर्तन आया है। ये आंदोलन मूलत: युवाओं द्वारा चलाये गये आंदोलन हैं। इनमें राजनेता केवल बाहर से देखनेवाले दर्शक रहे हैं।
भ्रष्टाचार, काला धन, गुंड़ागर्दी, महिलाओं पर होने वाले अत्याचार और अब दिल्ली की घटना के विरुद्ध आंदोलन। पिछले दो वर्षों में कई आंदोलन हुए और उनमें युवाओं का सहभाग बढ़ा है। ऐसी एक प्रतिमा बन गई थी कि आज का युवा अपने आसपास घटित होनेवाली घटनाओं के प्रति उदासीन है, नाराज है, अपना करियर, पैसा आदि में मशगूल है और वे सोचते हैं कि राजनैतिक-सामाजिक मुद्दों के खिलाफ आवाज उठाना प्रौढ़ो का काम है। यह केवल प्रतिमा ही नहीं बनी थी ऐसा हो भी रहा था। परंतु अब अचानक युवा देश की महत्वपूर्ण, संवेदनशील मुद्दों पर अपने मत आंदोलन के रूप में प्रगट कर रहे हैं। अभी तक खुशहाल और आत्मलीन समझेजाने वाले युवा देश के विभिन्न आंदोलनों में खुद को झोंक रहे हैं। भारत की युवा पीढ़ी रास्तों पर उतरकर लोकतंत्र से अपनी आत्मा को जोड़ रही है। वे आंदोलन के माध्यम से जाहिर कर रहे है कि वै कैसें भविष्य की अपेक्षा करते हैं। भ्रष्टाचार, कालापैसा, महिलाओं पर होनेवाले अत्याचार आदि मुद्दों पर होनेवाले आंदोलन कहीं मानसून का काम तो नहीं कर रहे हैं? कहीं ये आंदोलन भविष्य में कुछ नया निर्माण कर भारत के संविधान को जिम्मेदार, समझदार और उत्तरदायी बनने में सहायक हो गये तो?

पिछले कुछ सालों में हमने अमेरिका यूरोप और रशिया में इस प्रकार के आंदोलन देखे हैं। हजारों लोग स्थानीय शासन के खिलाफ रास्तों पर उतर आये थे। इसकी शुरुवात कैनड़ा में हुई। ‘ऑक्यूपाई वाल स्ट्रीट’ अर्थात ‘वाल स्ट्रीट पर कब्जा करो’ नाम से न्यूयॉर्क में आंदोलन लोकप्रिय हुआ। कई युवा कई हफ्तों तक न्यूयार्क की सड़कों पर अंगद के पैर के समान टिके रहे। क्या भारत में भी दिल्ली के आंदोलन के माध्यम से इस तरह के आंदोलनों की शुरुवात हो रही है?

दिल्ली की उस दर्दनाक और क्रूर घटना के बाद उठा आंदोलन और जनसमर्थन किसी रचनात्मक पद्धति से नहीं किया गया था। इसके पीछे केवल एक ही तथ्य था कि ‘अब किसी भी तरह का समझौता नहीं किया जायेगा।’ समाज में जड़ें जमाकर बैठा भ्रष्टाचार और राजनीतिक व्यवस्था तथा इस व्यवस्था की निष्क्रीयता से निर्माण होनेवाली विभिन्न समस्याओं से समाज अब हमेशा के लिये छुटकारा चाहता है। उसके लिये आक्रमक भूमिका यही है कि शासन तंत्र और व्यवस्था के विरोध में प्रत्यक्ष रुप से सीना ठोंक कर खड़ा रहा जाये।

भ्रष्टाचार, काला पैसा, अव्यवस्था, बढ़ती गुंड़ागर्दी, बलात्कार आदि घटनाओं की बढ़ती संख्या के कारण मध्यमवर्गीय लोगों और युवाओं के मन में शासनकर्ताओं और राजनेताओं के प्रति अविश्वास की भावना निर्माण हो रही है। आज का युवा नेताओं को न सिर्फ भ्रष्ट मानता है बल्कि भविष्य में उनके हाथों में बागड़ोर देने के लायक भी नहीं मानता। इनके प्रति युवाओं और मध्यमवर्गीयों के मन में जो आक्रोश है वह दिन-ब-दिन विभिन्न घटनाओं के कारण बढ़ रहा है। देश में घटित हो रही विभिन्न घटनाएं इस आक्रोश को हवा देने का काम कर रही हैं। लोगों को एकत्रित करने के लिये सोशल मीड़िया और मीड़िया तो तैयार ही बैठा है। इस तरह के आंदोलनो को अब राजनेताओं की जरूरत नहीं है। नेताओं और राजनैतिक दलों को जानबूझकर दूर रखने का प्रयत्न किया जा रहा है। इन सभी का परिणाम भविष्य में कैसा होगा इसका प्रत्येक स्तर पर विचार होना आवश्यक है। शायद यह भी हो कि युवकों और मध्यमवर्गीयों की नाराजगी से शुरू हुए ये आंदोलन भविष्य में शासन व्यवस्था में बदलाव या सुधार की इच्छा निर्माण कर दें। बदलाव की इच्छा शासन व्यवस्था से ही निर्माण होगी क्योंकि इन आंदोलनो के माध्यम से इसकी जरूरत दिखाई दे रही है। अत: शासन व्यवस्था किसी न किसी माध्यम से बदलाव करती नजर आ रही हैं। प्रधानमंत्री हो, मंत्री हों, संसद हो, विपक्ष हो, सामाजिक कार्यकर्ता हो या आम नागरीक हो सभी लोग अपेक्षित बदलाव करते नजर आ रहे हैं। इनमें कई आप्रिय और नुकीले मोड़ आये परंतु महत्वपूर्ण तह है कि बदलाव स्वीकार करने की चर्चा तो शुरू हुई ।

शासन के विरोध में चलाये गये आंदोलनों के लिये भी यह परीक्षा की घड़ी है। यह देखना होगा कि आंदोलनकारियों के मन में बदलाव की इच्छा मजबूत है या यह रोज के संघर्ष के विरोध में उठा क्षणिक उद्वेग है। इस आंदोलन की सर्थकता तभी सिद्ध होगी जब समाज जिम्मेदार नागरिक के रूप में सामने आयेगा और समाज व्यवस्था को रचनात्मक स्वरूप देने में अपना योगदान देगा। बहुत समय के बाद, शायद स्वतंत्रता संग्राम या 1970 के आपातकाल के बाद देश की जनता में विविध मुद्दों पर असाधारण जागृति दिखाई दे रही है। इस ऊर्जा को संगठित कर एक सकारात्मक केन्द्र की ओर ले जाने के प्रयत्न होना जरुरी है।

परंतु क्या इस जागृति के लिये किसी मासूम पर बलात्कार और उसकी मृत्यु होना आवश्यक है? क्या समाज इतना भावना शून्य हो गया है? क्या समाज जागने के लिये इतना बड़ा बलिदान मांगता है? हमारी संस्कृति स्त्री को देवि का दर्जा देती है। परंतु देवी-देवी करते हुए हम ही उसे बलात्कार और स्त्रीभ्रूण हत्या के माध्यम से उसकी मर्यादा दिखाते हैं। हमारी संस्कृति की रचना कुछ और है और हमारा समाज कार्य कुछ और कर रहा है। इस विरोधाभास को हमने सहज रूप से स्वीकार कर लिया है। इस समाज व्यवस्था को चीरकर, अत्यंत प्रयत्न पूर्वक बंधनों को तोड़कर, स्त्री अपना अस्तित्व निर्माण करने में कामयाब हुई है, परंतु समाज में होनेवाली इन घटनाओं के कारण ड़र लगता है कि कहीं स्त्री फिर से चार दीवारों के भीतर न चली जाये। बलात्कार केवल बाहरी गुंड़े ही करते हैं ऐसा नहीं है। घर में ही कोई रिश्तेदार, परिचित, सुशिक्षित व्यक्ति भी यह कार्य कर सकता है। जिस तरह विकृत मनस्थिति के व्यक्ति घर के बाहर है वैसे ही अंदर भी हैं। इसका उदाहरण भी हम रोज ही देखते हैं। दिल्ली की इस घटना ने यह विषय राष्ट्रपति भवन, संसद भवन से लेकर गली कूचों में और लोगो के दिलों में अत्यंत तीव्रता से पहुंचा दिया है। समस्या कानून मे और शासन तंत्र में है अत: यह मांग की जा रही है कि इसमें परिवर्तन होना चाहिये। परंतु साथ ही समस्या हमारी मानसिकता में भी है। यातायात पुलिस के द्वारा पकड़े जाने पर क्या हम अपनी गलती स्वीकार करते हैं? दंड़ भरकर रसीद लेने की जगह हम हमारी पहुंच बताने लगते हैं। घर और समाज में रहते हुए क्या हमारे मन में स्त्रियों के लिये सम्मान होता है?क्या हम सही आयकर का भुगतान करते हैं? भ्रष्टाचारियों और सामाजिक अव्यवस्था के विरुद्ध सही मायने में जिस नैतिकता की आवश्यकता है क्या वह नैतिकता हमारे मन में है? इन प्रश्नों के उत्तर नकारात्मक ही अधिक होंगे।

भ्रष्टाचार, जेसिका लाल हत्याकांड़, दिल्ली गैंग रेप कांड़ आदि घटनाओं के विरुद्ध हुए आंदोलनों ने समाज को हिला दिया है। परंतु इन आंदोलनों की भी कुछ मर्यादायें हैं। इस तत्कालीन प्रतीकात्मक जागृति से दीर्घकालीन परिवर्तन होना आवश्यक है। यही सही संघर्ष है। स्वच्छ, स्वस्थ और समृद्ध भारत के लिये दिल्ली में संघर्ष होना आवश्यक है। परंतु मानव के मस्तिष्क में फैली विकृतियों का क्या? दिल्ली के आंदोलन में शामिल या अन्य जगहों पर आंदोलन करनेवाले लोग क्या घर लौटने के बाद अपने मन, परिवार, गली, मोहल्ले से दुष्ट प्रवृत्तियों का दमन करने के लिये प्रयत्नशील रहेंगे? इन आंदोलनों को प्रसिद्ध करनेवाला मीड़िया क्या अपनी कार्य पद्धति साफ कर पायेगा? वासाना के कारण किये गये कृत्यों का समर्थन कभी नहीं होगा, परंतु लैंगिग मनोविकृति समाज में क्यों बढ़ रही है क्या इस ओर हमारा ध्यान जायेगा? स्वामी विवेकानंद का एक वाक्य है कि आज की पीढ़ी के होंठो पर जो गीत है वह उसकी तत्कालीन स्थिती दर्शाता है। समाज में ‘शीला की जवानी’ जैसे गीत प्रसिद्ध हो रहे हैं। ‘ड़र्टी पिक्चर’ जैसी फिल्मों को पुरस्कार मिल रहे हैं। पैसा और संपत्ती की भ्रामक कल्पनाओं के लोभ के कारण जीवन पद्धति में आई इन विकृतियों पर क्या हम रामबाण उपाय कर पायेंगे?

साफ-सुथरे, स्वस्थ भारत के निर्माण का स्वप्न देखते हुए आंदोलन करते समय केवल राजनेताओं पर चप्पल फेंककर भ्रष्टाचार, काला पैसा, बलात्कार जैसे दाग नहीं मिटेंगे। व्यवस्था के साथ ही स्वयं में भी परिवर्तन और सुधार करने की आवश्यकता है। दिल्ली की घटना के बाद आये जनजागरण से यह स्पष्ट हो चुका है कि सामान्य आदमी भी थोड़ी सी प्रेरणा मिलते ही क्या कर सकता है। परंतु यह दुर्भाग्य है कि ऐसे जागरण के लिये किसी दामिनी को जान गंवानी पड़ती है। भारत की युवा पीढ़ी द्वारा किये गये आंदोलन ने सभी राजनैतिक दलों को परिवर्तन की कगार पर खड़ा कर दिया है। इस आंदोलन ने यह जरुरत निर्माण कर दी है कि राजनेता संसदीय लोकतंत्र में अपनी उपयुक्तता साबित करें। ये आंदोलन युवा पीढ़ी को क्षणिक उत्तेजना नहीं बल्कि शाश्वत परिवर्तन की ओर ले जाने वाले होने चाहिये।

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