विरोध में कहीं बौना न हो जाए भ्रष्टाचार का मुद्दा

भ्रष्टाचार विषय पर अपने विचार व्यक्त करते हुए प्रा. नंदी ने कहा कि इतने दिन केवल कुछ लोगों की जागीर समझा जाने वाला भ्रष्टाचार अब अन्य पिछड़ा वर्ग, अनुसूचित जाति तथा जनजाति के लोगों तक भी पहुंच गया है। जब तक किसी भी मुद्दे का लोकतांत्रिकीकरण हो रहा है, सभी को अवसर मिल रहा है, तब तक मैं इस गणतंत्र के बारे में आशान्वित हूं। प्रा. नंदी ने अत्यंत उत्तेजक बयान देकर चैनलों तथा समाचार पत्रों के लिए गरमा-गरम मुद्दा ही दे दिया। प्रा. नंदी के बयान को मीडिया तोड़-मरोड़ कर काफी समय तक प्रचारित-प्रसारित करता रहा। मीडिया के इस रवैये के कारण इस बयान ने जातिवाद बनाम भ्रष्टाचार का मुद्दा खड़ा कर दिया। सभी ने प्रा. नंदी के विरोध में आवाज बुलंद कर दी।

प्रा. नंदी के वक्तव्य का समर्थन तो हो ही नहीं सकता, पर उनके विचार को पूरी तरह से खारिज भी नहीं किया जा सकता। प्रा. नंदी के बयान को अगर सामान्यतः सुना गया तो उसमें आपत्ति खड़ी होने की आशंका जरूर नजर आएगी, पर अगर उनके वक्तव्य पर गंभीरता से चिंतन किया गया तो आज देश में जो भयावह स्थिति पैदा हुई है, उसका अंदाजा हो जाएगा। पूरा देश वर्तमान में एक विचित्र स्थिति से गुजर रहा है। सामान्य मानव सुन्न हो गया है। देश में एक के बाद एक करके घोटालों की लंबी शृंखला ही तैयार हो गई है। इस श्रृंखला में देश के कई राजनीतिक दलों के नेता गिरफ्त हैं। राजनीतिक दलों के नेताओं के साथ ही साथ कई प्रशासनिक अधिकारियों का भी समावेश है। भ्रष्ट अधिकारियों तथा राजनेताओं की एक टोली ही देश में तैयार हो चुकी है। जाति, धर्म, पार्टी, प्रांत का भेद भुलाकर मिल-जुलकर भ्रष्टाचार करने का सिलसिला इन दिनों जारी है। वर्तमान में तो भारत में भ्रष्टाचार हम सभी भाई-भाई की तर्ज पर जारी है। भ्रष्टाचार में उच्च-मध्यमवर्गीय लोग जिस तरह से लिप्त हैं, उसी तरह हम इसमें पिछड़ा वर्ग, अनुसूचित जाति, जनजाति के लोगों को भी शामिल हुआ देख रहे हैं। समाज, कानून का किसी के भी चेहरे पर जरा सा भी भय नहीं दिखाई दे रहा है। भ्रष्टाचारी का हंसते हुए जेल में जाना तथा जेल से बाहर आने पर उनके चमचों द्वारा उनका किया जाने वाला जोरदार स्वागत आंखों से देखना भी गंवारा नहीं होता। देश की जनता छोटे परदे पर यह तमाशा देखती रहती है। इन भ्रष्टाचारियों का कोई कुछ नहीं बिगाड़ सकता, इस बात को देश की जनता अच्छी तरह से जान चुकी है, वह भ्रष्टचार से त्रस्त हो गयी है, पर क्या करे, उसे पता है कि भ्रष्टाचार नासूर बन चुका है, अब उसका इलाज करना मुश्किल है। भारतीय लोकतंत्र, जाति और भ्रष्टाचार को केंद्र में रखकर प्रा. नंदी का वक्तव्य वैचारिक दृष्टि देने वाला होगा, यह बात पूरी तरह से सही है, पर पूरे देश की परिस्थिति की ओर दृष्टि दौड़ाने पर इस बात का पता चलता है कि जातिवाद तथा भ्रष्टाचार ये दोनों मुद्दे भारतीय लोकतंत्र के लिए एक बड़ी चुनौती बने हुए हैं।

अपने वक्तव्य के बारे में स्पष्टीकरण देते हुए प्रा. नंदी ने कहा है कि वर्ग तथा वर्ण इस दोहरे विभाजन से ग्रस्त एक अन्याय सहन करने वाले ेसमाज में जहां तीन-चौथाई आबादी को पेट भर भोजन भी नहीं मिलता, ऐसे समाज में अचानक साफ-सुधरी व्यवस्था लाने के लिए कठीन मान लेना भी एक प्रकार का अन्याय ही कहा जाएगा। इसका आशय यह नहीं कि उनकी ओर से किए जाने वाले भ्रष्टाचार पर परदा डाला जाए। भ्रष्टाचार के आरोप में जो दोषी पाए जाते हैं, उन्हें भी अन्य आरोपियोें की तरह ही सजा होनी ही चाहिए। भ्रष्टाचार में भी भी उनकी प्रभावी समानता दिखाई देती है, इस कारण सरकार तथा मीडिया भ्रष्टाचार रूपी चोर की दरवाजे पर नजर रखकर वहां अपना पहरा बढ़ाए।
प्रा. नंदी ने जो विचार व्यक्त किया है, वह विचार अत्यंत चुनौतीपूर्ण था। इस विचार के चुनौतीपूर्ण होने के कारण ही इस विचार के विरोध में बोलना संबंधित जनजाति एवं अनुसूचित जनजाति के नेताओं के लिए मुश्किल हो गया होगा और इसी कारण भीड़तंत्र के माध्यम से प्रा. नंदी के बयान का विरोध किया गया। टी.आर. पी. बढ़ाकर कमाई करने के लिए किसी भी हद तक जाने की प्रवृत्ति वर्तमान में समाचार चैनलों की हो गई है। इस कारण धमाकेदार खबर के रूप में प्रा. नंदी के बयान को बढ़ा-चढ़ाकर समाचार चैनलों में प्रसारित किया गया। प्रा. नंदी के बयान के प्रसारित होते ही कोहराम मच गया, उन नेताओं को यह समझा ही नहीं कि प्रा. नंदी क्या कहना चाहते हैं। दूसरे शब्दों में कहें तो उन्होंने प्रा. नंदी को बयान को समझने की कोशिश ही नहीं की । समाज के शोषित-पीड़ित वर्ग के लोगों को मूल मुद्दे से भटका कर उनके अंदर की संवेदनशीलता का पूरा फायदा इसी तरह का विरोध प्रदर्शित करके उठाया जाता है, लेकिन इसमें सबसे ज्यादा नुकसान इसी शोषित वर्ग को उठाना पड़ता है।

डॉ. बाबासाहेब आंबेडकर ने सत्ताधारी जमात बनो, ऐसा संदेश देश की दलित-शोषित जनता को दिया था। इस समाज के उत्थान के लिए सामाजिक, धार्मिक के साथ-साथ राजनीति की संकल्पना उन्होंने प्रस्तुत की थी, पर वंचित- शोषित, दलित समाज के लिए लढ़ने वाले नेताओं ने इस समाज की किसी भी समस्या का समाधान नहीं किया। शोषित- दलित-पीड़ित समाज की मूल समस्याओं के निराकरण के लिए कोईं भी प्रभावशाली आंदोलन नहीं किया गया। इसके विपरीत अग्रणी नेताओं ने दलित-पीड़ित-शोषित समाज को भावानात्मक गतिविधियों में झोंक कर वातावरण को तनावपूर्ण बनाया और आंदोलन की दिशा ही बदल दी तथा अपना ही भला ज्यादा किया। दलितों के उद्धार का हवाला देकर दलितों के वोट भारी संख्या में प्राप्त किए, बावजूद इसके दलितों-शोषितों की रोटी-रोजी, इज्जत-आब्रू और समाज में दलितों के स्थान के चित्र में काफी खास बदलाव हुआ दिखाई नहीं दे रहा है। एक ओर दलित-शोषित- पीड़ित जनता रोजी-रोटी के लिए मोहताज है तो दूसरी ओर उनके वोटों से विजयी हुए नेताओं ने अपने बड़े- बड़े बंगले खड़े कर लिए। उनके बंगलों के सामने आलिशान कारें खड़ी हो गईं हैं । गले में सोने के भारी-भरकम चेन चमकने लगीं। चुनाव मतलब नोटों की बंडल मिलने की गारंटी ही बन गए हैं। इस पद्धति से किया गया दलित तथा पिछड़े वर्ग के नेताओं का किया गया कल्याण क्या दलित का कल्याण माना जाएगा। ओ.बी.सी, दलित, पिछड़ा-वर्ग समाज से जुड़े नेताओं का भला होने का अर्थ, उस समाज से जुड़े सभी लोगों का भला हो गया, क्या ऐसा मान लिया जाए?

राजनीति में इन नेताओं की मंडली इस भ्रष्टाचार के कारण संभवतः मजबूत होती होगी, पर प्रत्यक्ष रूप में ऐसे नेता सामाजिक गतिविधियों को कमजोर करने में अहम योगदान देते हैं और बाबासाहेब के राजनीतिक वारिस कहलाने वाले अग्रणी लोग अंबेडकर विचारधारा की हत्या करने वाले साबित हुए हैं। वास्तव में वर्तमान में परिस्थिति ऐसी है कि दलित हों या फिर अन्य जाति- जनजाति के नेताओं को जाति सिर्फ सीढ़ी के रूप में चाहिए होती है। जाति के आधार पर सत्ता की प्राप्ति होते ही उनका स्वार्थ पूरा हो जाता है। स्वार्थ के कारण ही उच्च, मध्यम वर्गीय जाति के साथ-साथ भ्रष्टाचार के दलदल अथवा भ्रष्टाचार संबंधित प्रकरण में पीड़ित, दलित, पिछड़े वर्ग से आए हुए लोगों भारी पैमाने पर चर्चाओं में हैं।

सर्वोत्तम तो यह है कि देश में व्याप्त भ्रष्टाचार को पूरी तरह से खत्म किया जाए, क्योंकि इस भ्रष्टाचार के कारण समाज के वंचित वर्ग को सबसे ज्यादा नुकसान हो रहा है। जब तक भ्रष्टाचार पूरी तरह से खत्म नहीं होता, अथवा खत्म होने की उम्मीद नहीं जागती, तब तक देशव्यापी भ्रष्टाचार में दलित, पीड़ित वर्ग को उसका हिस्सा क्यों न मिले, ऐसा प्रश्न तो खड़ा ही होगा। भ्रष्टाचार समाज के सभी वर्ग में व्याप्त है, ऐसे समय भ्रष्टाचार को जातिवाद की ढाल बनना कभी-भी गलत ही साबित होगा। समानता का प्रतीक कहा जाने वाला लोकतंत्र और विषमता की प्रतीक कही जाने वाली जाति व्यवस्था के संघर्ष में भ्रष्टाचार एक मुख्य मुद्दा बनकर सामने आया है।

पिछले दो वर्षोै में भ्रष्टाचार के मुदद्े ने देश को हिला कर रख दिया है। भ्रष्टाचार के विरोध में देश की सामान्य जनता ने अपने मत दर्शाए हैं। इस आंदोलन की सबसे बड़ी विशेषता यह रही कि यह आंदोलन किसी जाति-उपजाति के नेताओं के नेतृत्व में नहीं चलाया गया। भ्रष्टाचार के विरोध में हुए आंदोलन जाति-पांति के बंधन को तोड़कर आगे बढ़ाए जाते रहे, क्योंकि भ्रष्टाचार की कोई जाति नहीं होती, अगर कुछ है तो सिर्फ स्वार्थी प्रवृत्ति। जिन्हें भ्रष्टाचार के विरोध में जनता को जाग्रृत करना चाहिए, वे ज्ञानी, विचारक, साहित्यकार अपने हितों के लिए एक तरह से महाभारत के भीष्म की तरह तटस्थ रहकर तमाशा देखते हैं, किंतु घृतराष्ट्र की तरह आंखें बंद करके अविचार को समर्थन देते हैं, ऐसे समय भान छूटकर ही क्यों नहीं, पर अत्यंत गंभीर माना जाने वाला बयान प्रा. नंदी ने जयपुर लिट्रेचर फेस्टिवल में दिया। इसे मीडिया ने गलत रूप में खुद के फायदे के लिए तोड़-मरोड़ कर प्रचारित किया तथा भ्रष्टाचार जैसे भयानक मुद्दे को जातिवाद की पटरी पर ला खड़ा कर दिया। भ्रष्टाचार देश को दीमक की तरह चाट कर खोखला कर रहा है, इसे जाति-जाति में बांटना, देश को कमजोर करने जैसा ही है। मीडिया के अनावश्यक सक्रीयता तथा प्रा. नंदी के बयान को गलत तरीके से प्रस्तुत करने के कारण भ्रष्टाचार तथा जाति इन दोनों के विरोध में चलने वाले आंदोलन में वैचारिक घालमेल करना जैसा ही माना जाएगा।

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