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पंचर, कपलिंग और टाइमपास लोकतंत्र

पंचर, कपलिंग और टाइमपास लोकतंत्र

by बी.एल. आच्छा
in दिसंबर २०२०, साहित्य
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लोकतंत्र की क्या कहिए। कब पंचर हो जाए। कब तक स्टेपनी साथ दे। कब इंजिन सहमति दे जाए। कब कौन पत्ते फैंट दे। कब कौन तीन पत्ती शो कर दे। कब गुलाम और इक्का मिलकर बादशाह को पंचर कर दे। कब ताश की दुक्की ट्रंप बन जाए। चाय, अखबार और चैनलों में पसरे हुए जनता के दिन इस बहाने कितने लोकतांत्रिक ढंग से कट जाते हैं।

खासी दौड़े जा रही थी बस। अचानक फुस्स्स….की आवाज ने सबको चौंकाया। ड्राइवर ने स्पीड कंट्रोल की। अगला पहिया पंचर जो हो गया। हवा इस कदर निकली, जैसे गठबंधन सरकार से बड़ी पार्टी ने समर्थन वापस ले लिया हो। या कि किसी दल का धड़ ही ढ़ीले नटबोल्ट से दूर छिटक गया हो। अलबत्ता पिछला पहिया होता तो छोटे दल की समर्थन वापसी के बाद भी लोकतंत्र की हवा नहीं निकलती। मगर गणित तो गणित है। हवा, हवा है। यों भी लोकतंत्र में हवा-हवा और लहर-लहर आम हैं। कभी जंतर-मंतर तो कभी कोई बाग। कभी हवाएं थम जाती हैं। अनुमान भी मुश्किल। मगर जीतने के बाद लोग कहते हैं-अंदरूनी लहर थी। याकि सत्ता के गलबंधन में मरोड़ वाली वेल्डिंग थी।

अगला पहिया निकालने के लिए ड्राइवर-खलासी शुरू हुए तो सवारियां आधे चांद सा घेरा बनाकर खड़ी हो गईं। जैसे किसी जमाने में रस्सी से सांप बनाने वाले उस्ताद-जमूरे की डुगडुगी बज गई हो। औजार आए। बोल्ट खुले। स्टेपनी को आगे किया। पंचर पहिए को धकेल कर बस में विपक्ष की तरह बिठा दिया। लोग टुकुर-टुकुर देख रहे थे। जैसे सरकार बनाने के लिए नए गठजोड़ की कवायद में देश की नजरें टिकी रहती हैं। उधर सवारियों का एक ऐसा ग्रुप बन गया, जो बसों के हालात पर टीवी जैसी बहसबाजी कर रहा हो। इधर जनता आशंकित है, कहीं स्टेपनी भी पंचर न हो। अनुमान भी लोकतांत्रिक। आखिरकार किसी छोटे ट्रक को हाथ देकर स्टेपनी चिकित्सा के लिए किसी सुरक्षित रिसोर्ट की तरह पंचर-अस्पताल तक ले जाया गया। इधर सवारियों में बहस मुबाहिसा। नया गठबंधन बनेगा। लोकतांत्रिक अनुमानों में समय कटता गया। आखिर स्टेपनी लौटी। बोल्ट कसे जा रहे थे। कुछ लगे नहीं। कोई बोला- इस बोल्ट को किसी मलाईदार विभाग के नट में फंसा दो तो कसा जाएगा। आखिरकार बोल्ट की अदला बदली से जंग हटी। सवारियां सीट से सटीं।

ये अजूबे बरसों से हो रहे हैं। गठबंधन टूटते रहते हैं। वेल्डिंग टूट जाती है। इंटरलॉक – कपलिंग खुल जाते हैं और आधी गाड़ी पीछे ही रह जाती है। कभी-कभी तो इंजिन ही गाड़ी छोड़कर चल देता है। कभी बयानबाजी में, कभी हल्के विभाग को लेकर। कभी जातियों के वोट बैंकों के गणित में। कभी मुख्य और उप के झगड़ों में। कभी एक ट्रेन में तीन इंजिन लगाकर। कभी ढ़ैया- ढ़ैया शर्तों में। कभी एंटी इनकंबेंसी के खतरों में छह महीने पहले समर्थन वापसी से। कभी मुखिया के माथे एंटी इनकंबेंसी की मटकी फोड़ कर। पर इन्हीं में खोये रहकर दिन कितने लोकतान्त्रिक मजों में कट जाते हैं कि अगला चुनाव सामने आ जाता है।

अभी हम रेलवे के प्लेटफार्म पर खड़े हैं। गाड़ी के डिब्बे जोड़े जा रहे हैं। पर कलकतिया तृण दुरंतो के साथ कलकतियाई वाम लाल रंग के डिब्बे जुड़ नहीं पा रहे। कभी महाराष्ट्र की तर्ज पर केशरिया रंग के ही अलग अलग शेड वाले डिब्बों की कपलिंग में लगी जंग से अलग रहने की मजबूरी। इंजिन लगने का इंतजार। कभी प्रतीक्षा में वैसे ही जैसे सरकारों के बनने की प्रक्रिया। ज्योतिषियों के गणित। पत्रकारों की टोही खबरें और गठबंधन के अनुमान। आखिर इंजन आया तो लोग इंजिन और डिब्बे की कपलिंग के आसपास घेरा बनाकर खड़े हो गये। लाल और हरी झंडी अपना काम कर रही थी। पर कपलिंग की प्रक्रिया और हथौड़े की चोट के साथ बोल्ट कसाई पर जनता नजरें गड़ाए रही।
लोकतंत्र की क्या कहिए। कब पंचर हो जाए। कब तक स्टेपनी साथ दे। कब इंजिन सहमति दे जाए। कब कौन पत्ते फैंट दे। कब कौन तीन पत्ती शो कर दे। कब गुलाम और इक्का मिलकर बादशाह को पंचर कर दे। कब ताश की दुक्की ट्रंप बन जाए। चाय, अखबार और चैनलों में पसरे हुए जनता के दिन इस बहाने कितने लोकतांत्रिक ढंग से कट जाते हैं।

और सरकार बनते ही सरकारी स्टेपनियां इधर से उधर। पुराने निर्णयों की सर्जरी। बरसों से सूखा झेल रहे कुछ खास अब बरसात में भरपूर नहाते हुए। शतरंजी चालों में ढ़ैया घोड़ा और तिरछी चाल वाला ऊंट। महीनों लग जाते हैं पुराने को पलटने में। कई महीने चहेतों की स्थापना में। और फिर से चुनाव आते ही मुफ्त हवाओं के शोर में। जो भी हो इन हवाओं, लहरों, बहसों, गठजोड़ों, प्रशासनिक सर्जरी के पुराने उखाड़वाद और नए के लिए पछाड़वाद में आम नागरिक के दिन लोकतांत्रिक ढंग से कट जाते हैं। लोकतंत्र की यही खूबी है। मुफ्त पानी, बिजली, वाईफाई इतनी बड़ी बात नहीं, जितना टाइमपास के हो हल्ले। ट्रंप आएं तो जश्न और खर्चों के विरोध के हल्ले। कभी रेगिस्तान में भूमि समाधि में राजस्थानी पगड़ी के साथ किसानों के हफ्तों के आंदोलन। कभी मध्यप्रदेश में डूबत की जमीन वाले किसानों की जलसमाधि के आंदोलन। कभी पेड़-पौधों के बजाए मनुष्यों की भीड़ के दिल्लीया बाग। कभी ठहरी हुई सड़कों पर लहराते परचम। कभी संसद में बहसों के ज्वार। कभी सुप्रीम में गुहार। कभी राजभवन में प्रदर्शन। कभी मानेसर के अंगद पांव।

अब यूरोप के देश कितने ठंडे लोकतंत्र हैं। तयशुदा स्थान पर जाओ और प्रदर्शन करो। भारत में तो शादी की बिंदौली भी बिना सड़क जाम किये नहीं निकलती। धार्मिक जलसों का सड़क प्रदर्शन-प्रेम तो सनातन है। जुलूस और रैलियों में दो चार के मरने पर लोकतंत्र सफल हो जाता है। लाव लश्कर के साथ निकलती मंत्रियों की गाड़ियों में अटकी जनता लोकतंत्र की सांसें। सब मुफ्त हो और पेंशन भी मिल जाए तो टीवी की बहस-युद्धों में कटते दिनों में वोट देना कितना सार्थक हो जाता है। पंचर हुए पहिए और टूटते-जुड़ते रेल के डिब्बों, इंजिनों के कपलिंग के बीच यह लोकतंत्र भी कितना मनभावन है।

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