राजस्थानी वीरों की उज्ज्वल परम्परा

सम्राट पृथ्वीराज चौहान युगाब्द 4268 (ईस्वी 1166, वि. 1223) में केवल 11 वर्ष की आयु में गद्दी पर बैठे तथा 26 वर्ष की आयु में उन्होंने वीरगति प्राप्त की। इतनी अल्पायु और पन्द्रह वर्ष के छोटे से काल खण्ड में उन्होंने ऐसे काम किये कि हमारे इतिहास में उनका नाम अमर हो गया। वे अपने समय के अप्रतिम योद्धा, कुशल सेनानायक, अत्यन्त कुशल संगठक, गजब के साहसी, कुशल प्रशासक और इन सब से भी बढ़कर मातृभूमि भारत के अनन्य उपासक थे।

परन्तु यह देश का दुर्भाग्य ही था कि व्यक्तिगत प्रतिष्ठा के लिए देश के शीर्ष पुरुष उस समय राष्ट्र रक्षा की बात भुला बैठे थे, इसलिए कन्नौज का जयचंद तथा गुजरात का भीमदेव सोलंकी (द्वितीय) राय पिथौरा (पृथ्वीराज) को शत्रु मानने लगे। बाध्य होकर पृथ्वीराज चौहान को इन सबसे युद्ध करना पड़ा। इन आपसी युद्धों में भारत की ही सैनिक शक्ति क्षीण हुई।

उस समय दिल्ली-अजमेर क्षेत्र सपालदक्ष कहलाता था तथा उसमें जहाजपुर और नागौर तक का लगभग आधा राजपूताना, उत्तर में थानेश्वर तथा पूर्व में कन्नौज तक का क्षेत्र सम्मिलित था। भारत का तब यह सर्वाधिक शक्तिशाली राज्य था। दिल्ली के अधिपति होने के कारण पृथ्वीराज चौहान भारत सम्राट माने जाते थे। नरनाहर कान्ह, कवि चन्दबरदाई एवं कैमास जैसे उनके सहयोगी थे। प्रचण्ड योद्धा चामुण्डराय उनके सेनापति थे। चामुण्डराय के साथ ही एक से बढ़कर एक विकट योद्धा तुर्क हमलावरों से देश की सीमाओं की रक्षा में सदैव सन्नद्ध रहते थे। ऐसे सहयोगियों की सहायता से ही गजनी के शहाबुद्दीन गोरी को उन्होंने कई बार परास्त किया।

लगातार संघर्षों में सम्राट पृथ्वीराज की सैनिक शक्ति कम हो गयी। संयोगिता स्वयंवर के समय हुए विकट युद्ध में उनके चौंसठ महावीर सामन्त खेत रहे। परिणाम स्वरूप तराइन के मैदान में शहाबुद्दीन गोरी से हुए आखिरी युद्ध में सम्राट की पराजय हुई। शहाबुद्दीन ने भारत-सम्राट को कैद कर उन्हें अन्धा कर दिया।

गजनी में उनके अनन्य मित्र कवि चन्दबरदाई उनसे मिलने आये और दोनों मित्रों ने गोरी के वध की योजना बनायी। चन्द ने शहाबुद्दीन को पृथ्वीराज की आवाज पर लक्ष्य-वेध की कुशलता की जानकारी दी। इस योग्यता की परीक्षा के लिए गोरी ने लोहे के एक बड़े तवे पर चोट करवायी। पृथ्वीराज ने चोट की आवाज पर बाण चला कर तवे को भेद दिया। गोरी ने जोर से शाबाश कहा। उसी समय चन्द ने कहा-

चार बांस चौबीस गज अंगुल अष्ट प्रमाण।
ता ऊपर सुल्तान है मत चूको चौहान॥

पृथ्वीराज चौहान ने गोरी की आवाज पर जो बाण चलाया वह उसके गले के पार हो गया। उसी समय दोनों मित्रों ने कटार से एक-दूसरे का प्राणान्त कर लिया।

रणथम्भौर के राव हम्मीर

अपने हठ के लिए प्रसिद्ध राव हम्मीर देव रणथम्भौर के शासक थे। 14 वीं शताब्दी (ईसा की 13 वीं) में इस क्षेत्र पर चौहानों का अधिकार था । राव जैत्रसिंह के पुत्र हम्मीर ने वर्ष 1258 में राज्य का शासन सम्भाला। हम्मीर उस समय के एक अद्वितीय योद्धा थे।

चौहान हम्मीर देव ने राज्य सम्भालते ही लगभग पांच वर्षों में झालावाड़ तक का प्रदेश विदेशी आक्रमणकारियों से मुक्त करा लिया। खिलजी शासकों को अब चिन्ता होने लगी। जलालुद्दीन खिलजी ने दो बार रणथम्भौर पर आक्रमण किया तथा दोनों बार मात खा कर दिल्ली लौट गया। ईस्वी सन 1266 में अलाउद्दीन दिल्ली का शासक बना। उसे भी रणथम्भौर कांटे की तरह चुभ रहा था। उसको आक्रमण का बहाना भी मिल गया। उसका एक सिपह-सालार भाग कर राव हम्मीर देव की शरण में आ गया। खिलजी ने भगोड़े को सौंपने की मांग की तो हम्मीर देव ने स्पष्ट मना कर दिया। शरणागत की रक्षा करना तो हिन्दू संस्कृति की विशेषता है, फिर हम्मीर तो गजब हे हठी थे। एक बार जो ठान लिया वह ठान लिया, उसे फिर दुनिया की कोई शक्ति बदल नहीं सकती थी। इसलिए जन-मानस में ‘हमीर-हठ’ प्रसिद्ध हो गया। हठों के प्रकार में एक ‘हमीर-हठ’ भी जुड़ गया।

राव हम्मीर वैसे भी तुर्क हमलावरों को देश से बाहर निकालने के लिए कमर कसे हुए थे। अत: अलाउद्दीन को परास्त करने की तैयारियां उन्होंने प्रारम्भ कर दीं। ई. सन 1266 में खिलजी ने एक के बाद एक तीन आक्रमण रणथम्भौर पर किये। हर बार उसकी सेना की दुर्गति हुई। चौथी बार अलाउद्दीन खुद सेना ले कर आया। इस बार अपने सहयोगी के विश्वासघात के कारण हम्मीर की पराजय हुई तथा वे वीरगति को प्राप्त हुए।

अपूर्व देशभक्त वीर दुर्गादास राठौड़

हालांकि दुर्गादास राठौड़ कहीं के राजा नहीं थे, फिर भी उन्होंने अपने कर्तृत्व से जो सम्मान पाया वह दुर्लभ है। वे उत्कृष्ट देश-भक्ति और स्वामिभक्ति से ओत-प्रोत थे। ऐसे अमर व्यक्तित्व का जन्म विक्रम संवत 1665 की श्रावण शु. 14 अर्थात 13 अगस्त 1638 को हुआ था। उनके पिता आसकरण जोधपुर के महाराजा जसवन्त सिंह की सेवा में थे। युवा होते-होते दुर्गादास भी अपनी प्रतिभा के बल पर जोधपुर नरेश जसवन्त सिंह के दरबार में जा पहुंचे। महाराजा ने उन्हें अपने सहायक के तौर पर रखा।

दुर्गादास भारत में मुगलों के शासन से बहुत व्यथित थे। वे चाहते थे कि देश की समस्त हिन्दू शक्तियां एक साथ मुगलों का मुकाबला करें और देश में पुन: हिन्दवी स्वराज्य स्थापित हो जाये। अत: उन्होंने जोधपुर नरेश से आग्रह किया कि हम हिन्दू शक्ति बढ़ायें। मराठे, मेवाड़ तथा मारवाड़ यदि एक हो जायें तो विदेशी सत्ता को देश से खत्म किया जा सकता है।

सन 1673 में अफगानिस्तान में युद्ध के समय जसवन्त सिंह की मृत्यु हो गयी। अब मारवाड़ राज्य के उत्तराधिकारी का प्रश्न उठ खड़ा हुआ। महाराज के दिवंगत होने पर दुर्गादास ने अत्यन्त कुशलता, साहस और वीरता के साथ दोनों रानियों को काबुल से सुरक्षित निकालकर लाहौर पहुंचाया। यहीं मारवाड़ के भावी राजा अजीत सिंह ने जन्म लिया। दूसरी रानी को भी पुत्र रत्न की प्राप्ति हुई पर वह अल्प जीवी रहा। अजीत सिंह के 1 माह के होने पर लाहौर के नूरमहल में ही राजदरबार आयोजित किया गया। यही बालक को मारवाड़ का राजा घोषित कर दुर्गादास स्वयं उसके संरक्षक बने।

लाहौर से दिल्ली आने पर औरंगजेब ने अजीत सिंह को भी षडयंत्र पूर्वक मारने की चेष्टा की पर दुर्गादास ने गोरा टांक के सहयोग एवं त्याग से बालक अजीत सिंह को अत्यन्त चतुराई पूर्वक बचा लिया। इसके बाद दुर्गादास मुगलों से संघर्ष करते हुए शिशु अजीत सिंह को लेकर आबू की और चले गये। मेवाड़ के महाराणा राज सिंह को पत्र लिखकर मारवाड़ की सुरक्षा करने तथा अजीत सिंह को संरक्षण देने का उन्होंने निवेदन किया। महाराणा ने अजीत सिंह को मेवाड़ के राजमहलों में ही रखा और उनकी शिक्षा-दीक्षा की भी व्यवस्था की।

अजीत सिंह के युवा होने तक दुर्गादास ने अजीत सिंह के जीवित होने का रहस्य गुप्त रखा। इसी के साथ वे औरंगजेब की मुगल सत्ता पर शक्ति और युक्ति से प्रहार करते रहे। औरंगजेब के पुत्र अकबर को अपनी ओर कर दुर्गादास ने मुगलों में ही आपसी संघर्ष के बीज बो दिये। अजीत सिंह के युवा होते ही उन्होंने जोधपुर के महाराजा के रूप में उनका राज्याभिषेक किया तथा मुगलों के विरुद्ध खुले संघर्ष की घोषणा कर दी। मुगल सत्ता के पतन में वीर दुर्गादास राठौड़ का योगदान कम नहीं था।

बृजेन्द्र बहादुर महाराजा सूरजमल

जिस समय हिन्दवी-स्वराज्य के रण-बांकुरों से त्रस्त औरंगजेब की अहमदनगर में मौत हुई, लगभग उसी समय मुगलों की सत्ता को सदा के लिए समाप्त करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाले प्रतापी महाराज सूरजमल का जन्म हुआ। सूरजमल राव राजा बदनसिंह की रानी देवकी के पहले पुत्र थे तथा उनका जन्म युगाब्द 4806 (विक्रमी 1764) में अपने ननिहाल कामां में हुआ था। जन्म से ही सूरजमल की तेजस्विता से सभी प्रभावित थे। युवावस्था तक आते-आते वे सुदृढ़ शरीर के साहसी योद्धा हो गये। इसी के साथ कूटनीति के खेल में भी वे निष्णात हो गये।

सन 1750 में दिल्ली बादशाह के मीरबख्शी सलावत खां ने ँकुंवर बहादुर सूरजमल पर आक्रमण कर दिया। सूरजमल ने उसे समर्पण के लिए मजबूर कर दिया। सन्धि में जो शर्तें तय हुईं उनमें से दो शर्तें इस प्रकार थीं-

(1) मुगल सेना पीपल के वृक्ष नहीं काटेगी तथा
(2) मन्दिरों का अपमान नहीं किया जाएगा, न ही किसी देवालय को क्षति पहुंचायी जाएगी।

राव राजा बदनसिंह के निधन के बाद सूरजमल विधिवत भरतपुर राज्य के महाराजा बने। इसके छह माह पश्चात ही अहमदशाह अब्दाली भारत में घुस आया। दिल्ली के बादशाह ने बिना लड़े ही आत्म-समर्पण कर दिया। दिल्ली फतह कर अब अब्दाली ने महाराजा सूरजमल को दबाने का विचार किया। महाराजा सूरजमल ने अब्दाली को समझौता वार्ताओं में उलझा कर संघर्ष टालने की रणनीति अपनायी। इसी समय भरतपुर नरेश ने वह ऐतिहासिक पत्र लिखा जिसमें उन्होंने अब्दाली का मनोबल तोड़ने की कोशिश की तथा उसे चुनौती भी दी। पत्र पढ़ने के बाद डीग, कम्हेर और भरतपुर के सुदृढ़ दुर्गों की ओर बढ़ने की अब्दाली की हिम्मत ही नहीं हुई।

पानीपत में भाऊ सदाशिवराव की हार के बाद महाराजा सूरजमल के राज्य पर खतरा बढ़ गया था, फिर भी इसकी कतई परवाह न करते हुए हिन्दू-कुल-भूषण सूरजमल ने युद्ध से लौट रहे मराठा-सैनिकों को अपने क्षेत्र में शरण दी। उन्होंने अपने राज्य के सारे किले, गढ़ियां, धर्मशालाएं आदि भारतीय सेना के थके-मांदे सैनिकों के लिए खोल दिये। पूरे राज्य में अतिथियों का सत्कार करने की घोषणा करवा दी गयी। युद्ध-क्षेत्र से निकली भाऊ सदाशिव राव की धर्मपत्नी पार्वतीबाई की राज्य के दीवान पं. रूपराम कटारा तथा महारानी हंसिया ने अगवानी की तथा पूर्ण सम्मान के साथ उन्हें रखा।

पानीपत की हार को एक झटके में दूर हटा कर नाना साहब पेशवा ने पचास हजार सैनिकों के साथ नर्मदा नदी पार कर लिया और दिल्ली पहुंच कर अफगानों की सत्ता पूरी तरह समाप्त कर दी। रविवार, 25 दिसम्बर सन 1763 के दिन युद्ध क्षेत्र में गोली लग जाने से हिन्दू-कुल-भूषण महाराजा सूरजमल का निधन हो गया।

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