पधारो म्हारे देस…

राजस्थान क्षेत्रफल की दृष्टि से भारत का सबसे बड़ा राज्य है। इसकी विशालता कई मायनों में सामने आती है । इसके शौर्य का इतिहास विशाल है, इसके मरूस्थल का फैलाव विशाल है, यहां के महल और हवेलियां विशाल हैं और यहां के लोगों के दिल भी विशाल हैं। जैसे ही आप यहां कदम रखते हैं, यहां के लोग बड़े गर्मजोशी से आपका स्वागत करते हैं। ‘अतिथि देवो भवः’ का यहां के लोग अक्षरश: पालन करते हैं, जो उनकी बोलचाल, उनके बर्ताव और उनके अन्दर की मिठास को व्यक्त करता है और इसीलिए जब भी कोई राजस्थानी पधारों म्हारे देस… कहता है तो लोग मुग्ध हो ही जाते हैं।

स्वभाव से इतने मीठे, इतने खुशमिजाज और संकोची स्वभाव होने के बावजूद भी राजस्थानियों की शौर्य गाथा अतुलनीय है और यही इनकी विशालता का प्रमाण है। सदैव विदेशियों से युद्ध करते हुए इन्होंने अपने को बचाये रखा शायद इसलिए ही यहां का बच्चा‡बच्चा अपनी संस्कृतिसे न सिर्फ वाकिफ है, बल्कि उसका जतन करता है और अपनी भावी पीढ़ी को धरोहर के रूप में देता है। यहां के लोग मुख्यत: मारवाड़ी और हिंदी भाषा बोलते हैं। इनकी साहित्यिक रचनाएं भी इन्हीं भाषाओं में हैं, परन्तु हर राज्य की तरह यहां के गांवों में कुछ अपभ्रंश शब्दों के साथ भिन्न‡भिन्न बोलियां बोली जाती हैं । राजस्थानी लोगों के जीवन में रंगों का बहुत महत्व है । इनके पहनावे, खान‡पान, कला सभी में चटख रंगों का समावेश होता है । चटख हरा, गुलाबी, पीला, लाल, नारंगी और नीला रंग यहां के लोगों को विशेष रूप भाता है।

सिर ढंकने के लिए पहनी जाने वाली ओढ़नी और पगड़ी से लेकर पावों की जूती और मोजड़ी तक, सब कुछ इनके पहनावे में शामिल है, जहां पुरुषों के पहनावे में सफेद पगड़ी, अंगरखा, धोती और पैजामा, कमरबंद या पटका मुख्य होते हैं, वहीं महिलाएं मुख्य रूप से घाघरा‡चोली और ओढ़नी पहनती हैं । मोजड़ी या जूती इन दोनों के पहनावे का समान भाग है, इसके लिए ऊंट का चमड़ा इस्तेमाल किया जाता है जो कि बहुत मुलायम होता है । भेड़ और बकरियों का चमड़ा भी इस्तेमाल किया जाता है, इनमें बारीक जरी से कशीदाकारी की जाती है । राजस्थान की मुख्यत: जैसलमेर, जोधपुर, रामजीपुर की मोजड़ियां विश्व प्रसिद्ध हैं ।

राजस्थानी लोग उत्सव प्रिय भी हैं । यहां के त्यौहार और उत्सव राजस्थान के विभिन्न आयामों को दर्शाते हैं । यहां के त्यौहारोंमें मुख्य हैं‡ पुष्कर का मेला, मरूस्थल पर लगने वाला मेला, जयपुर का हाथी उत्सव, जोधपुर का मारवाड़ और गणगौर उत्सव, बीकानेर का ऊंट मेला, उदयपुर का मेवाड़ और बाणेश्वर उत्सव, अजमेर शरीफ का उर्स इत्यादि। ये सभी त्यौहार राजस्थान की समृद्ध संस्कृति को दर्शाते हैं।

राजस्थान की बात करें और उसमें नृत्य तथा गायन शामिल न हो ऐसा हो ही नहीं सकता । राजस्थान के नृत्य किसी को भी उनके लय पर नाचने के लिए उत्साहित कर देते हैं । यहां नृत्य मुख्यत: लोक नृत्य होते हैं जो कि उनके उद्भव तथा परम्पराओं को दर्शाते हैं । ये लोक नृत्य किसी व्यावसायिक नर्तकों द्वारा नहीं बल्कि गांवों में रहने वाले आम लोगों द्वारा ही किया जाता है । सामान्य अभिनय, साहसी शैली के साथ ही रंगीन पहनावा इनके नृत्यों की सुन्दरता को बढ़ाते हैं । यहां के नृत्य में भी रेगिस्तान ही केन्द्र बिन्दु होता है। यहां की नृत्य शैली मेंकलवेलिया शैली, घूमर, चारी, कच्छी‡घोड़ी नृत्य, तेरह थाल आदि प्रसिद्ध हैं ।

महल और हवेलियां अगर इस ‘वीरों की धरती’ का शरीर हैं तो लोक संगीत इसकी आत्मा है । यह संगीत मरूस्थल में रहने वालों की कठिन दिनचर्या को भुलाकर उनमें जीने का उत्साह बढ़ाता है। भारतीय संगीत को समृद्ध करने में राजस्थानी संगीत का ब़ड़ा योगदान है। यहां सुख और दुख दोनों के लिए संगीत है । यहां की कुछ जातियों ने अपना पूरा जीवन ही संगीत को अर्पण कर दिया है । धीली, मिरासी, लांगा, कलावत, रावल, फेदाली इत्यादि जातियां इनमें से ही हैं । इनके गायन में मुख्यत: भक्ति रस होता है । महाराजाओं की शौर्य गाथाएं, कबीरदास, सूरदास, मीराबाई के दोहे गाये जाते हैं। ‘पनिहारी’ यहां की एक गायन शैली है, जिसे राजस्थानी महिलाओं द्वारा वरुण देव को खुश करने और मरु भूमि में बरसात करने गायी जाती है, जिससे इस प्यासी भूमि को राहत मिल सके । यहां का गायन वाद्य यंत्रों के बिना अधूरा है, जो कि मुख्यत: राजस्थान में ही अविष्कारित हैं। सारंगी, एकतारा, मोर्चंग, पुंगी इत्यादि वाद्य यंत्र इनके गायन को और अधिक आकर्षक और मधुर बनाते हैं। लोगों कोएक हाथ से बड़ा नगाड़ा और दूसरे हाथ से डमरू बजाते हुए भी देखा जा सकता है ।

राजस्थानी लोग खाने के भी शौकीन होते हैं। अच्छा खाना बनाने को वे लोग कला मानते हैं । पारम्परिक व्यंजनों के शौकीन लोगों के लिए यहां का लजीज खाना मुंह में पानी लाने वाला होता है । राजस्थानी व्यंजनों का स्वाद एक बार जो इंसान चख लेता है, वह जीवन भर उसे याद करता है । हर राज्य की तरह ही यहां पर भी उपलब्ध सब्जियों और मांस के द्वारा भोजन बनाया जाता है। पानी की कमी के कारण व्यंजनों को पानी की जगह शुद्ध घी, छाछ और दूध में बनाया जाता है । पुराने जमाने में यहां के राजा, महाराजा शिकार के लिए जाते हैं और वह शिकार ही उनका रात्रि‡भोज होता था। राजस्थान की कुछ जातियां शुद्ध शाकाहारी भी हैं, जैसे विष्णोई, माहेश्वरी इत्यादि । शुद्ध घी, आटा, बाजरा, मिर्च और आमचूर राजस्थानी भोजन का मुख्य हिस्सा हैं । यहां के पकवानों में दाल‡बाटी, चूरमा, घेवर, मावा-कचौरी, माल-पुआ और सोहन हलवा लोकप्रिय हैं ।

राजस्थानी कला भी अपने आप में अनूठी है । यहां के शिल्प कला और वास्तु कला का नमूना तो इनके महल और हवेलियां हैं ही। कप़ड़ों पर शीशे और चमकदार गोटा किनारी और लेस लगाकर किया गया काम भी बहुत मनभावन होता है । चटख रंगों का उपयोग यहां भी अपनी अहमियत बनाये हुए हैं । राजस्थान की एक विशेष वस्तु है, जो कि न केवल भारतीयों बल्कि विदेशियों को भी लुभाती है और वह है कठपुतली । लकड़ी से बनी इन कठपुतलियों के माध्यम से जहां बच्चों का मनोरंजन होता है, वहीं बड़ों का मार्गदर्शन भी होता है । पुराने जमाने में गावों के रसूकदार लोग कठपुतली के खेलों की व्यवस्था रात के समय चौपालों पर करते थे । लालटेन की मध्यम रोशनी में चौपालों पर कठपुतली का खेल खूब जमता था । खेल दिखाने वाले टोली बनाकर गावों में जाते थे । इनमें गाने-बजाने वाले, नाचने वाले और मसखरे भी होते थे, जो स्थानीय बोली में लोगों का मनोरंजन करते थे। अब अन्य मनोरंजन के साधन उपलब्ध हो जाने से इनका प्रचलन कम हो गया है, परन्तु सजावट के सामानों के रूप में आज भी इनका उपयोग होता है । राजस्थान की राजधानी जयपुर को ‘पिंक सिटी’ कहा जाता है, इसके नाम में ही रंग है । इस तरह राजस्थान अपने आप में कई रंग लिये हुए है, जो लोग इसके किसी भी रंग के सम्पर्क में आते हैं, वे इसमें सराबोर हुए बिना नहीं रह पाते।
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