हिंदी विवेक
  • Login
  • परिचय
  • संपादकीय
  • पूर्वांक
  • ग्रंथ
  • पुस्तक
  • संघ
  • देश-विदेश
  • पर्यावरण
  • संपर्क
  • पंजीकरण
No Result
View All Result
  • परिचय
  • संपादकीय
  • पूर्वांक
  • ग्रंथ
  • पुस्तक
  • संघ
  • देश-विदेश
  • पर्यावरण
  • संपर्क
  • पंजीकरण
No Result
View All Result
हिंदी विवेक
No Result
View All Result
अंग्रेजी कभी गंवारों की भाषा थी

अंग्रेजी कभी गंवारों की भाषा थी

by सरोज त्रिपाठी
in सामाजिक, सितम्बर २०१३
0

प्रति वर्षानुसार 14 सितम्बर को रस्मी तौर पर हिंदी दिवस मनाया जाता है। सरकारी संस्थानों और हिंदी प्रचार प्रसार की संस्थाओं आदि में ‘हिंदी कीर्तन’ होता है। हर साल हिंदी दिवस आता है, चला जाता है, किंतु हिंदी वहीं खड़ी रहती है। राजभाषा का पद उसके लिए दिवास्वप्न ही बना रहता है। भूमंडलीकरण के जमाने में तो विश्व भाषा अंग्रेजी के सामने राष्ट्रभाषा का जिक्र करना भी गंवारू होने का प्रमाण माना जाता है।

पर इन सब बातों से हमें कतई निराश नहीं होना चाहिए। भारत में आज जो तर्क हिंदी के विरोध में दिए जाते हैं, वे सब तर्क कभी अंग्रेजी के विरोध में इंग्लैण्ड में भी दिए जाते थे। इंग्लैण्ड में वहां का प्रभु वर्ग अंग्रेजी को हेय दृष्टि से देखता था। वह गंवारों की भाषा मानी जाती थी। 1066 ई. में जब इंग्लैण्ड पर फ्रांस का कब्जा हो गया तो वहां की राजभाषा फ्रेंच हो गई। फ्रेंच ही वहां समस्त प्रशासन की भाषा बन गई। सामाजिक दृष्टि से भी उसका प्रचार-प्रसार, रुतबा इसी प्रकार का हो गया जैसा आज भारत में अंग्रेजी का है। समाज का संभ्रांत वर्ग, पूंजीपति, सामंत, शिक्षक, सरकारी अफसर सभी फ्रेंच के रंग में रंग गए। इंग्लैण्ड में उच्च पदों पर वही पहुंच सकता था जो फ्रेंच जानता हो। सरकारी अधिकारियों से मेलजोल उसी का हो सकता था जिसका फ्रेंच भाषा से प्रगाढ़ परिचय हो। फ्रेंच ब्रिटेन के समाज में एक स्टेटस सिंबल बन गई थी। अंग्रेजी वहां केवल निम्न वर्ग, अशिक्षित लोगों, किसानों और मजदूरों आदि की ही भाषा रह गई थी।

इंग्लैण्ड में सामान्य वर्ग के लोगों के लिए अपने बच्चों को फ्रेंच की अच्छी शिक्षा दिला सकना संभव नहीं था। वे उच्च शिक्षा के लिए अपने बच्चों को फ्रांस भेजने में असमर्थ थे। पेरिस की मानक फ्रेंच बोलने वाला संभ्रांत अंग्रेज अपने देश के उन लोगों को अवमानना की दृष्टि से देखता था जो कि इंग्लैण्ड में ही पढ़-लिख कर कामचलाऊ फ्रेंच बोलता था।

1337 से 1453 ई. के शतवर्षीय युद्ध के दौरान 14वीं सदी में शत्रु-पक्ष की फ्रेंच भाषा के प्रति, उनकी संस्कृति के प्रति एक विरोध की भावना इंग्लैण्ड की सामान्य जनता में फैलने लगी। सामान्य जनों ने इंग्लैण्ड की जन भाषा अंग्रेजी को उसका समुचित स्थान दिलाने के लिए संघर्ष शुरू किया। सन 1362 में जब इंग्लैण्ड की न्याय व्यवस्था में अंग्रेजी का प्रयोग कानून द्वारा संभव बनाया गया तो इसका इंग्लैण्ड के संभ्रांत तबके ने भारी विरोध किया। बड़े-बड़े न्यायाधीशों और वकीलों को यह समझ में ही नहीं आ रहा था कि अंग्रेजी भाषा में न्याय प्रशासन कैसे संभव है? उस समय अंग्रेजी में कानून की पाठ्य पुस्तकें नहीं थीं। उस समय इंग्लैण्ड के संभ्रांत तबके के लोग अपनी भाषा में बात करना भी तौहीन समझते थे। ठीक वैसी ही स्थिति आज हमारे देश में है।

फ्रांसीसी शासन की दासता से मुक्त होने के बाद भी इंग्लैण्ड में फ्रेंच भाषा का वर्चस्व बना हुआ था। जिन अंग्रेज सामंतों का शासन इंग्लैण्ड में आया वे पूरी तरह से फ्रेंच भक्त थे। 16वीं शताब्दी में इंग्लैण्ड में अंग्रेजी को उचित स्थान मिलना शुरू हुआ। पर अभी भी ‘कुलीनता’ के दंभ में संभ्रांत तबके के लोग किसी न किसी बहाने फ्रेंच का वर्चस्व ही कायम रखना चाहते थे। वे बाहर की दुनिया से, विदेशों से सम्पर्क रखने के लिए फ्रेंच को जरूरी बता रहे थे। इंग्लैण्ड में 17वीं सदी के प्रारंभ में अंग्रेजी भाषा का विरोध शांत हो पाया और यही गंवारों की भाषा अंग्रेजी आज अंतरराष्ट्रीय सम्पर्क की भाषा मानी जाने लगी है।

फिलहाल हमारे देश की स्थिति यह है कि छोटे से छोटे अरब देशों के राजनयिक हमसे अपनी अरबी भाषा में सारी वार्ता, सारा कार्य व्यापार निपटा जाते हैं, किंतु हमारे राजनयिक इसी चिंता में घुले जा रहे हैं कि वे ये सब कार्य अंग्रेजी के बिना कैसे सम्पन्न कर पाएंगे?
हिंदी को तत्काल राजभाषा के रूप में लागू न करने के लिए एक बड़ा तर्क यह दिया जाता है कि इसके पास ज्ञान-विज्ञान, प्रशासन, न्याय विधि, चिकित्सा आदि की समुचित और समृद्ध शब्दावली नहीं है। अंग्रेजी के पास भी विभिन्न क्षेत्रों की पारिभाषिक शब्दावली अपनी नहीं है। अधिकांश शब्द फ्रेंच या दूसरी भाषाओं से लिए गए हैं। जब इंग्लैण्ड की राजभाषा के रूप में अंग्रेजी का प्रयोग शुरू हुआ उस समय उसके पास भी अपनी शब्दावली नहीं थी। कहा जाता है कि उस समय उनके पास प्रशासन के दो ही शब्द थे ‘किंग’ और ‘क्वीन’। अंग्रेजी ने फ्रेंच से सारे शब्द ज्यों के त्यों ग्रहण किए। गवर्नमेंट, क्राउन, स्टेट, स्टैच्यूट, वार्डन, मेयर, एम्पायर, रॉयल, प्रिंस, प्रिंसेस, मैडम, जस्टिस, क्राइम, एडवोकेट, जज, प्ली, वारंट, प्रॉपर्टी, आर्ट, सूट, पेंटिंग, म्यूजिक, ब्यूटी, कलर, फिगर, इमेज, पोयम, रोमांस, स्टोरी, ट्रेजड़ी, टाइटिल, पेपर आदि नित्य प्रचलित शब्द फ्रेंच से ही अपनाए गए। सामान्य जीवन के ड्रेस, फैशन, गारमेंट, कॉलर, पेटीकोट, बटन, बूट, ब्राउन, टेस्ट, फिश, मटन, टोस्ट, बिस्किट, क्रीम आदि न जाने कितने शब्द अंग्रेजी ने फ्रेंच से ही ग्रहण किए। 1775 में डॉ. जान्सन ने अपने शब्दकोश में सारे विदेशी शब्दों को अंग्रेजी के मानक शब्दों के रूप में स्वीकार कर लिया। इसके बाद उनके यहां यह विवाद ही समाप्त हो गया कि कौनसा शब्द किस भाषा का है। अंग्रेजी में विदेशी शब्दों को अपनाने का क्रम आज तक निरंतर चल रहा है। हिंदी भी संस्कृत और अन्य भारतीय भाषाओं तथा दुनिया भर की भाषाओं की शब्द सम्पदा को अपनी जरूरत के मुताबिक अपना सकती है।

स्वतंत्र भारत के संविधान के अनुच्छेद 343 में संघ की राजभाषा हिंदी और लिपि देवनागरी घोषित की गई है। पर यह दुख की बात है कि संविधान सभा ने इस अनुच्छेद में 15 वर्षों की अवधि तक अंग्रेजी को राजभाषा के पद पर बनाए रखा। इतना ही नहीं, इस बात की भी व्यवस्था की गई कि 15 वर्षों के बाद भी संसद कानून पारित कर इस अवधि को बढ़ा सकती है। इसी अधिकार का इस्तेमाल कर संसद ने 1963 में राजभाषा अधिनियम पारित किया। इसी अधिनियम के परिणामस्वरूप आज तक अंग्रेजी हमारे देश में राजभाषा के रूप में प्रयोग की जा रही है। राजभाषा अधिनियम, 1963 में दो व्यवस्थाएं की गई हैं-

(क) 26 जनवरी, 1965 के पश्चात की हिंदी के साथ-साथ अंग्रेजी का प्रयोग समस्त राजकीय कार्यों के लिए होता रहेगा।

(ख) इस तिथि के बाद भी संसद की कार्यवाही के लिए अंग्रेजी का प्रयोग होता रहेगा।

इतनी स्पष्टता के साथ अनिश्चितकाल के लिए अंग्रेजी को सह राजभाषा का दर्जा प्राप्त करा दिया गया था, किंतु इसके बाद भी देश के कुछ भागों में भाषा के नाम पर उग्र प्रदर्शन होते रहे। विभिन्न स्थानों पर सार्वजनिक सम्पत्ति को अपार क्षति पहुंचाई गई। इन सब दबाओं के कारण और दक्षिण भारत के अहिंदी भाषी राज्यों के दिमाग से यह भय निकालने के लिए कि उन पर हिंदी थोपी नहीं जा रही है, 1967 में ‘राजभाषा संशोधन अधिनियम, 1967’ पारित किया गया। इसमें मुख्य रूप से ये व्यवस्थाएं की गईं-

(क) संविधान लागू होने के 15 वर्ष पश्चात भी अंग्रेजी केंद्र और उस राज्य के बीच व्यवहार की भाषा होगी जिसने हिंदी को राजभाषा घोषित नहीं किया है

(ख) जब कोई भी राज्य जिसकी राजभाषा हिंदी है किसी दूसरे अहिंदी भाषी राज्य से पत्र-व्यवहार करेगा तो उस पत्र का अंग्रेजी अनुवाद संलग्न करना आवश्यक होगा।

(ग) यह स्थिति तब तक लागू समझी जाएगी जब तक संघ के प्रत्येक राज्य की विधान सभा कानून द्वारा हिंदी को अपनी राजभाषा घोषित नहीं कर देता, तथा देश की संसद उपयुक्त दोनों स्थितियों- (क) तथा (ख) की समाप्ति के लिए कानून नहीं बना देती।

इस प्रकार इस संशोधन ने देश के अहिंदी भाषी राज्यों के भय का पूर्णतः निराकरण करने के नाम पर यह व्यवस्था कर दी कि यदि कोई एक राज्य भी चाहे तो हिंदी को सम्पूर्ण देश की राजभाषा बनने से रोक सकेगा।

भारत में हिंदी की संघर्ष कथा इंग्लैण्ड में अंग्रेजी की संघर्ष कथा के समान ही है। परंतु सवाल यह उठता है कि संघषशील राज्य के पश्चात जिस प्रकार अंग्रेजी को गौरवपूर्ण प्रतिष्ठा इंग्लैण्ड में मिल सकी तो क्या हिंदी को भी कभी ऐसा सौभाग्य प्राप्त हो सकेगा? वर्तमान परिस्थितियों में तो इसका उत्तर नकारात्मक ही दिखाई देता है। 1967 के बाद की घटनाएं इस बात की गवाही देती हैं कि भारतीय संसद अब हिंदी को देश की एकमात्र राजभाषा बनाने का कानून शायद ही कभी बना पाएगी।
——————

Share this:

  • Twitter
  • Facebook
  • LinkedIn
  • Telegram
  • WhatsApp
Tags: englishhindi vivekhindi vivek magazineilliterateinternational languagelanguage

सरोज त्रिपाठी

Next Post
मुंबई के विकास में उत्तर भारतीय

मुंबई के विकास में उत्तर भारतीय

Leave a Reply Cancel reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

हिंदी विवेक पंजीयन : यहां आप हिंदी विवेक पत्रिका का पंजीयन शुल्क ऑनलाइन अदा कर सकते हैं..

Facebook Youtube Instagram

समाचार

  • मुख्य खबरे
  • मुख्य खबरे
  • राष्ट्रीय
  • राष्ट्रीय
  • क्राइम
  • क्राइम

लोकसभा चुनाव

  • मुख्य खबरे
  • मुख्य खबरे
  • राष्ट्रीय
  • राष्ट्रीय
  • क्राइम
  • क्राइम

लाइफ स्टाइल

  • मुख्य खबरे
  • मुख्य खबरे
  • राष्ट्रीय
  • राष्ट्रीय
  • क्राइम
  • क्राइम

ज्योतिष

  • मुख्य खबरे
  • मुख्य खबरे
  • राष्ट्रीय
  • राष्ट्रीय
  • क्राइम
  • क्राइम

Copyright 2024, hindivivek.com

Facebook X-twitter Instagram Youtube Whatsapp
  • परिचय
  • संपादकीय
  • पूर्वाक
  • देश-विदेश
  • पर्यावरण
  • संपर्क
  • पंजीकरण
  • Privacy Policy
  • Terms and Conditions
  • Disclaimer
  • Shipping Policy
  • Refund and Cancellation Policy

copyright @ hindivivek.org by Hindustan Prakashan Sanstha

Welcome Back!

Login to your account below

Forgotten Password?

Retrieve your password

Please enter your username or email address to reset your password.

Log In

Add New Playlist

No Result
View All Result
  • परिचय
  • संपादकीय
  • पूर्वांक
  • ग्रंथ
  • पुस्तक
  • संघ
  • देश-विदेश
  • पर्यावरण
  • संपर्क
  • पंजीकरण

© 2024, Vivek Samuh - All Rights Reserved

0