रामजन्म भूमि से आया एक चित्रकार

अयोध्यावासी पंडित किरण मिश्र जब 1980 में मुंबई आये तो मन में दबी हुई इच्छा तो यही लेकर आये थे कि उन्हें चित्रकार बनने का अपना जुनून सच करना है, पर पहली ज़रूरत उनके सामने यहां जमने और रोज़ी-रोटी का जुगाड़ करने की थी। इसी की खातिर गोरखपुर विश्वविद्यालय की अच्छी-खासी नौकरी छोड़ कर आये थे। वहीं से फाइन आर्ट में स्नातक बने थे और आगरा विश्वविद्यालय से मास्टर्स किया था, जिसके बाद गोरखपुर वि.वि में लेक्चररशिप मिल गई थी। पर यूनिवर्सिटी की गंदी राजनीति से मन खट्टा हो गया था। घर में सांस्कृतिक वातावरण था। कवि, साहित्यकार, चित्रकार और अन्य विद्वानों का आना-जाना था। पिताश्री कनक भवन के आचार्य थे और अपने घर के सभी सदस्यों को ललितकलाओं में रुचि लेने को प्रोत्साहित करते रहते थे। इस वातावरण में किरण जी को चित्रकारी के साथ-साथ कविताएं लिखने में भी रुचि हो गई थी। साथ ही वे राम की नगरी अयोध्या में रामकथा फर आधारित ढेरों चित्र भी बना चुके थे, गीतों और भजनों की रचना भी करने लगे, जिसका लाभ हुआ कि जगह-जगह के कवि-सम्मेलनों में भागीदारी करने के निमंत्रण मिलने लगे। उसी सिलसिले में एक-दो बार मुंबई भी आना हुआ। यहां के कवि-सम्मेलनों के आयोजक हुआ करते थे रामरिख मनहर, जिनके आश्वासन और राम के अयोध्यावासी पं.किरण प्रताप मिश्र मुंबई आ गये।

पर संघर्ष कड़ा था, इतना कि चित्रकार बनने वाली चाह दबी ही रह गई और गीतों-भजनों ने ही सहारा दिया। बीच-बीच में चुपचाप चित्र भी बना लेते थे। पर रोटी भजनों-गीतों से ही मिलती थी। बड़ी ऊहापोह की स्थिति थी। पर आय का कोई नियमित साधन न था। काफी जद्दोज़हद थी। मन हुआ कि फिर से गोरखपुर ही लौट जायें। जिस मित्र ने पवई में रखा था, वह भी बाद में अपनी लाचारी का हवाला देकर पीछे हट गया था।

असमंजस में ही थे कि घाटकोपर के एक फुटपाथ पर एक चित्र बेचनेवाले से मुलाकात हो गई। वह चित्र बनवा कर दुबई के किसी शेख को बेचा करता था। उसने किरण जी से कहा कि मैं जो फोटो दूं, उसके आधार पर मेरे लिए चित्र बनाओ। प्रति चित्र बीस रुपये दूंगा। मरता क्या न करता! झट स्वीकार कर लिया। सांताक्रुज़ में उसने एक झोंपड़ी भी दिला दी, स्टूडियो जैसा कुछ, चित्र बनाने के लिए।
उधर कविताई ने भी कुछ रंग दिखाया। कविवर शैल चतुर्वेदी के साथ जोड़ी बन गई। उनके सहयोग से कवि-सम्मेलन मिलने लगे। उनकी फिल्म ‘सरयू तीरे’ की कथा और गीत भी लिखे। दक्षिण की फिल्म ‘लेकिन’ का भी एक गाना मिला। रवीन्द्र जैन के लिए ‘प्यार का सावन’ में भी लिखा।

भजन-लेखन ने भी खूब काम दिलाया। रेकार्ड कम्पनी ‘वीनस’ ने तो जैसे उन्हें गोद ही ले लिया। क्या जगजीत सिंह, क्या अनूप जलोटा, क्या हरिओम शरण, दलेर मेहंदी, तमाम चोटी के गायकों को लेकर एलबम बना डाले। यह अनुबंध 1994 तक चला। फिर धार्मिक सीरियलों में काम मिलने लगा। लता मंगशेकर, आशा भोसले, अनुराधा पोडवाल, उदितनारायण, सोनू निगम, श्रेया घोशाल आदि कौन नहीं, जिसके लिए उन्होंने भजन न लिखे हों?

धार्मिक सीरियलों में ही नहीं, दूसरे सेटकॉम के लिए भी गाने लिखे। बी.आर चोपडा के ‘महाभारत’ से लेकर अभी हाल शुरू हुए एकता कपूर के मैगा ‘महाभारत’ तक या ‘बुद्ध’ तक 40 से अधिक धारावाहिकों के लिए गाने या भजन लिखे। अवधी और भोजपुरी में भी। 30-32 छोटी-बडी 32 फिल्मों के गीत भी लिखे। इस तरह हर ओर सफलता अर्जित करने और अपने करियर की तरफ से निश्चिन्त हो जाने के बाद फिर से चित्र बनाना नियमित रूप से आरम्भ कर दिया है। जितना भी समय मिलता, उसका उपयोग अपनी रुचि का यह काम करने में लगाते हैं।
चित्रकार किरण मिश्र की बात करें तो उनकी पहली चित्र-प्रदर्शनी ललित कला अकादमी, लखनऊ में हुई थी। 1978 में हुई यह प्रदर्शनी हालांकि ग्रुप शो था, पर इसमें उनके काम को पहचान मिली थी। सोलो शो फैज़ाबाद और गोरखपुर में हुए। वाराणसी आदि उत्तरप्रदेश के कुछ स्थानों पर भी सामूहिक प्रदर्शनियों में भागीदारी कर चुके हैं किरण मिश्र। पर तमाम जद्दोज़हद के दौरान मुंबई में अपना काम दिखाने का मौका 2005 में ही मिल पाया। उसके बाद से तो प्राय: प्रति वर्ष किसी-न-किसी मार्के के सोलो या ग्रुप शो में उनके चित्र देखे जाते रहे हैं। अभी हाल अनूप जलोटा आर्ट्स फाउंडेशन के तत्वावधान में सफल वृहद एकल प्रदर्शनी हो चुकी है।

यद्यपि वे भजनों के रचयिता के रूप में जाने जाते हैं, जहां तक आर्ट का सवाल है वे समकालीन कला विधा को ही अपनाते हैं। यह नहीं कि उन्होंने रामकथा पर आधारित तथा अन्य धार्मिक चित्र नहीं बनाये हैं, पर वे केवल धार्मिक चित्रों तक ही अपने को सीमित करके भजन-लेखक की भांति टाइप होना नहीं चाहते। एब्स्ट्रेक्ट, प्रतीकात्मक, आदि सभी कन्टेम्परेरी शैलियों में काम करते हैं। लैंडस्केप और पोर्ट्रेट भी बनाते हैं और सामयिक सरोकारों से जुड़ी हुई पेंटिंग भी करते रहे हैं। पहले सिर्फ जल रंगों और ऑयल कलर में काम करते थे, अब एक्रिलिक की संभावनाओं को जानने के बाद वाटर कलर के अलावा वही माध्यम अपना लिया है।

इस तरह पं. किरण की कला-यात्रा अब पुख्ता जमीन पा चुकी है। पर सफलता के इस सोपान फर भी अपने कला-गुरुओं को भूले नहीं हैं। लखनऊ के डी.पी. धुलिया और वि.वि. के जितेन्द्र कुमार ने तो शुरुआती शिक्षा दी ही थी, आगरा में प्रसिद्ध चित्रकार काम्बोज का सान्निध्य और प्रशिक्षण भी मिला। जितेन्द्र शांति निकेतन में रह चुके थे और काम्बोज बाद में राष्ट्रीय ललित कला के अध्यक्ष बने थे ।
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