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अप्प दीपो भव

अप्प दीपो भव

by ॠषि कुमार मिश्र
in नवंबर -२०१३, सामाजिक
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जीवन में प्रकाश की महत्ता निर्विवादित, सर्वविदित एवं सर्वस्वीकार्य है। जीवन में जो शुभ व कल्याणकारी है, वह सब प्रकाश का स्वरूप है तथा जो अशुभ व अकल्याणकारी है उसे अन्धकार की संज्ञा से अभिहीत किया जाता है। हमारे जीवन में सदैव शुभ ही शुभ घटित होता रहे, इस हेतु हमें निरंतर प्रकाश की साधना करनी पड़ती है।

सूर्य प्रकाश का आदि स्रोत है। किन्तु, वह भी कालचक्र की सीमाओं में बंधा हुआ रात्रिकालीन विवशता के अन्धकार में डूब जाने को अभिशप्त है। यद्यपि, नियति प्रदत्त अन्धकार से अनवरत् संघर्ष करता हुआ, वह उषा की प्रथम किरणों के माध्मम से, अन्धकार पर अपनी विजय की घोषणा करता हुआ, क्षितिज के निरभ्र कोने से प्रति दिन उदित भी होता है। सूर्य का दैनिक उदय-अस्त हमें आश्वस्त करता रहता है कि अन्धकार और प्रकाश के संघर्ष में जीत सदैव प्रकाश की ही होती है।

अब तक उपलब्ध वैज्ञानिक शोध हमें यही बताते हैं कि सृष्टि का प्रारम्भ अन्धकार के गति में उत्पन्न प्रकाश के महाविस्फोट की घटना से हुआ है। उससे पूर्व सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड एक घनीभूत अन्धकार का पिंड़ मात्र था। जानकारों का यह भी कहना है कि सृष्टि का अन्त भी ब्रह्माण्ड के पुन: निबिड़ अंधकार में डूब जाने के रूप में ही घटित होगा। मनीषियों ने सृष्टि के प्रारम्भ से अन्त तक चलने वाले अन्धकार व प्रकाश के संघर्ष और उसमें प्रकाश की विजय को एक भौतिक घटना नहीं, जीवन की एक अनिवार्य शर्त के रूप में देखा है। सृष्टि में जीवन की व्याप्ति प्रकाश की उपस्थिति मात्र है। अत: उन्होंने इस संघर्ष को जीवन-मरण का प्रश्न मानकर न केवल प्रकाश के पक्ष में खड़े रहने वरन् प्रकाश की निस्तर जीत होती रहे, इस हेतु सबको अपनी अपनी भूमिका भी सुनिश्चित करने का संदेश दिया है। जीवन में प्रकाश बना रहे इसकी चिन्ता मनुष्य मात्र को करनी होगी। सबको प्रकाश का पहरूआ बनकर जीना होगा। अनन्तकाल तक प्रकाश का संतरण होता रहे इसके लिए अपना उत्तराधिकारी चुनने की चिन्ता भी हमें करनी होगी। वैसे ही जैसे कविवर रवीन्द्रनाथ ठाकुर की एक कविता में, आसन्न रात्रि की बेला में सूर्य चिन्तित दिखायी देता है कि उसके अस्तोपरान्त, प्रकाश वहन के दायित्व का संवहन कौन करेगा? सूर्य की इस चिन्ता का निवारण करने हेतु संकल्पित मिट्टी का छोटासा दिया उठ खड़ा होता है तथा रात्रि के अन्धकार से लड़ने का गुरूतर भार अपने लघु कंधों पर उठा लेता है। कहना न होगा कि अपने उस पूर्वज दीप की प्रक्रिया से उद्भाषित दीप वंश की सहस्र करोड़ दीप ज्योतियां सूर्य की प्रकाश संतरण परम्परा का अखण्ड निर्वहन कर रही हैं। किन्तु अन्धकार केवल बाहर नहीं होता। हमारे भीतर भी अन्धकार होता है। बाहरी अन्धकार से तो दीपक लड़ लेगा। लेकिन हमारे भीतर काम, क्रोध, लोभ, मोह, अत्याचार, अनाचार एवं अनेकानेक अन्य दुष्युवृत्तियां का अन्धकार जड़े जमाये बैठा है। उससे कौन लड़ेगा? इस भीतरी अन्धकार को मिटाने के लिए ही वैदिक ऋषि का निर्देश है – ‘अप्प दीपो भव’ अर्थात अपने दीपक स्वयं आप बनो। हृदय में अंतरदीप प्रज्ज्वलित करो। दीपज्योति का आध्यात्मिक ग्रहण होते ही जान एवं विवेक का ऐसा आलोक हृदय में फूटता है कि मनुष्य के अंतर की सम्पूर्ण संकीर्णता, कट्टरता और हिंसा की जड़ता तत्क्षण तिरोहित हो जाती है। मनुष्य के हृदय में ज्योतित आंतरिक प्रकाश फिर उस तक सीमित नहीं रह सकता। आत्म अर्जित प्रकाश की आलोक रश्मियों का प्रवाह एक हृदय से दूसरे हृदय में होने लगता है। दीपावली के दीपों की तरह। एक दीपक से असंख्य दीपक प्रज्ज्वलित होने लगते हैं। एक आलोक पर्व सम्पन्न होने लगता है। महात्मा बुद्ध अपने आर्पित सत्व को अपने हृदय में कहां रोके रख सके? बुद्ध का बुद्धत्व करूणा का अजस्र प्रवाह बनकर क्या आज तक करोड़ों मनुष्यों के हृदयों को आलोकित नहीं कर रहा?

इसी प्रकार भगवान महावीर का अहिंसा का दर्शन और गांधी का सत्याग्रह क्या सिर्फ उनके जीवन तक सीमित रह सका? दीपक स्वयं अपना प्रकाश ग्रहण करने के लिए नहीं जलता है। उसकी सार्थकता तो दूसरों का पथ आलोकित करने में है। अपने नीचे पसरे अंधकार को सहकर भी दीपक संसार को आलोकित करता है। राम, कृष्ण, ईसा मसीह, बुद्ध, सुकरात, गांधी जैसी विभूतियों का उदय अपने-अपने युग में एक प्रकाश पुंज के रूप में हुआ जिनके दिखाये मार्ग पर चलकर उनके अनुयायियों को अपने अंधकारों को पहचानने का माद्दा और उससे लड़ने का हौसला मिलता है। जबकि इन विभूतियों का स्वयं का जीवन दीपक के नीचे पलने वाले अन्धकार की भांति सर्वथा कंटकाकीर्ण रहा। उनका जीवन नन्हें दिये की त्यागोत्सर्ग पूर्ण प्रकाश यात्रा ही था।

भारत का सम्पूर्ण आध्यात्मिक व दार्शनिक चिन्तन प्रकाशोन्मुखी है। सारा भारतीम वाङ्मय ‘तमसोमा ज्योतिर्गमय’ की प्रकाश-चेतना से अनुप्राणित है। प्रकाश के प्रति यह प्रणम्य भाव भाषा, जाति, धर्म व पंथ की दीवारों को तोड़कर सम्पूर्ण मानवता को निवेदित है। फिर क्या कारण है कि ‘ज्योति-कलश’ के उत्तराधिकारी होते हुए भी हमारा जीवन अन्धकारमय होता जा रहा है। प्रकाशपर्व ‘दीपावली’ पर इस बात पर विमर्श होना चाहिए। अन्धकार मिटाने की पहली शर्त अन्धकार की पहचान है। पहचाने जाने के भय से ही अंधकार के पैर डगमगाने लगते हैं और उसके भाग खड़े होने का उपक्रम प्रारंभ हो पाता है। वस्तुत: हमने अंधेरे की प्रतीति खो दी है और अपने अंधेरों को ही उजाले के रूप में पहचानने लगे हैं। रोशनी के नाम पर अंधेरे का खेल खेलने के कारण हम अपनी प्रकाश-चेतना ही खो बैठे हैं। दूसरों को कुछ देने के स्थान पर, छल से दूसरों का स्वत्वहरण हम व्यवहारिकता समझ बैठे हैं। छल का खेल अंधेरे में ही हो सकता है। छल के साथ-साथ अंधेरे का साम्राज्य गहराता जा रहा है। दूसरों का फंसाने के लिए हम जो जाल फैलाते हैं, अन्त में उसी जाल में हम स्वयं फंस जाते हैं। आरती केा दिये से पड़ोसी का घर जलाने के फेर में हम अपना घर भी जलने से नहीं बचा सकते। ऐसा करने से अंधेरा अजेय हो जाता है। आज हमारे जीवन में ऐसा हो रहा है उसका कारण है धन व भौतिकता को अधिक महत्व देना। भौतिक संसाधनों की होड़ में व्यक्ति, संस्थाएं यहां तक कि सरकारें भी अत्माचारी, हिंसक और भ्रष्टाचारी बन गई हैं। अब हमारी गर्दनें त्याग, तपस्या, आदर्शी व मानवीय मूल्यों के समक्ष नहीं, सत्ता व सम्पत्ति के सामने झुकती हैं। हमने अपने दैनिक क्रियाकलापों में मनुष्योचित व्यवहार को तिलांजलि दे दी है। गरीबों व वंचितों को देखकर हमारे मन में करुणा का नहीं, जुगुत्सा का भाव जागृत हो जाता है। शिक्षा, चिकित्सा एवं न्याय जैसे मानवीय पेशों में भी आर्थिक भ्रष्टाचार व्याप्त हो गया है। जमीन-जायदाद के लिए बेटे बाप का कत्ल कर रहे हैं। संसाधनों की लूट-खसोट की वजह से कुछ लोग पंचसितारा होटलों की मौजमस्ती में मशगूल हैं। जबकि करोड़ों लोगों को दो जून की रोटी भी नहीं मिल पा रही है। सत्ता के शीर्ष पर बैठे लोग अत्याचार और भ्रष्टाचार के खिलाफ आवाज उठाने वाले को राजद्रोही मानकर उन्हें तरह-तरह से प्रताड़ित करने में लगे हैं। इस प्रकार अंधकार का सहस्रबाहु हमें पूरी तरह से जकड़े हुए हैं। अंधेरा अगर हजार-हजार बांहों से हमें जकड़े हुए है तो उससे मुक्ति का प्रयास भी हमें हजारों दिशाओं से करना होगा। दीपावली के हजार-हजार दीपों से अमावश्या की काली अंधेरी रात भी जगमगाने लगती है। तभी तो सूर्यमानु गुप्त अपने एक शेर में आवाहन करते हैं –

‘बरस रहा है अंधेरा हजार शक्लों में।
छंटेगी रात, चरागों में आओ ढल जायें॥’

राष्ट्रीय जीवन में दीपयज्ञ ऐसे ही सम्पन्न होता है। ‘अप्प दीपो भव’ ऐसे ही दीपयज्ञों का आहुति मन्त्र है। दीपोत्सव की सार्थकता भी अंधेरा मिटाने की चेतना बन जाने में है।
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