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तिब्बती अस्मिता के प्रतीक दलाई लामा

तिब्बती अस्मिता के प्रतीक दलाई लामा

by सरोज त्रिपाठी
in नवंबर -२०१३, सामाजिक
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चौदहवें दलाई लामा तेनजिन ग्यात्सो तिब्बत के आध्यात्मिक गुरू हैं। तिब्बतियों के लिए वे समूचे तिब्बत के प्रतीक हैं। वे तिब्बत की भूमि के सौंदर्य, उसकी नदियों, झीलों की पवित्रता, उसके आकाश की पुनीतता, उसके पर्वतों की दृढ़ता और उसके लोगों की ताकत के प्रतीक हैं। शांति, अहिंसा और हर सचेतन प्राणी की खुशी के लिए काम करना दलाई लामा के जीवन का बुनियादी सिद्धांत है। तिब्बत की मुक्ति के लिए 1959 से अहिंसक संघर्ष जारी रखने वाले दलाई लामा को 1989 का नोबल शांति पुरस्कार प्रदान किया गया। उनके शांति संदेश, अहिंसा, अंतर धार्मिक मेल-मिलाप, सार्वभौमिक उत्तरदायित्व और करूणा के विचारों की मान्यता के रूप में 1959 से अब तक उनको 60 मानद डॉक्टरेट, पुरस्कार सम्मान आदि प्राप्त हुए हैं। उन्होंने दुनियाभर में सफर करके अपने वचनों और शिक्षा को जगह-जगह फैलाया और शांति पर जोर दिया है। उन्होंने 50 से अधिक पुस्तकें भी लिखी हैं।

चौदहवें दलाई लामा का जन्म 6 जुलाई 1935 को उत्तर-पूर्वी तिब्बल के ताकस्तेर क्षेत्र में रहने वाले एक किसान परिवार में हुआ था उनका बचपन का नाम ल्हामों थोंडुप था। तिब्बती परंपरा के अनुसार दो साल की उम्र में ल्हामों थोंडुप की पहचान 13 वें दलाई लामा के अवतार के रूप में की गई। तिब्बती बौद्ध धर्म कर्म-विपाक सिद्धांत को मानता है। इसके मुताबिक सामान्य मनुष्यों को उनके इस जन्म के कर्मों के अनुसार ही मृत्यु के बाद दूसरा जन्म मिलता है किंतु दलाई लामा अपने भावी जन्म के बारे में स्वेच्छा से निर्णय कर सकते हैं। दलाई लामा की मृत्यु के लगभग दो साल बाद इसकी खोज की जाती है कि दलाई लामा का पुनर्जन्म कहां हुआ है।

दलाई लामा की खोज के बाद उन्हें तिब्बत की राजधानी ल्हासा में लाया गया। छह वर्ष की अवस्था में उनकी मठवासीय शिक्षा प्रारंभ हुई। 23 वर्ष की उम्र में सन् 1959 में वार्षिक मोनलम, प्रार्थना उत्सव के दौरान उन्होंने जोखांग मंदिर ल्हासा मं अपनी फाइनल परीक्षा दी। उन्होंने यह परीक्षा ऑनर्स के साथ उत्तीर्ण की और उन्हें गेशे डिग्री यानी बौद्ध दर्शन में पीएच. डी. प्रदान की गई।

सन् 1949 में तिब्बत के पड़ोसी देश चीन में क्रांति हुई। इसके एक साल बाद चीन ने तिब्बत पर हमला कर दिया। 6 या 7 अक्टूबर 1950 को चीनी सेना ने जिन्शा नदी पार की और 19 अक्टूबर को पूर्वी तिब्बत के राज्यपाल के मुख्यालय चामदो पर कब्जा कर लिया। तिब्बत सरकार ने चीन सरकार से बातचीत के लिए अपने प्रतिनिधियों को पेइचिंग भेजा। 23 मई 1951 को तिब्बती प्रतिनिधियों और चीनी सरकार ने 17 सूत्रीय एक समझौते पर हस्ताक्षर किए। इस समझौते के तहत तिब्बत में चीनी सैनिकों की मौजूदगी और पेइचिंग के शासन को मंजूरी दी गई। तिब्बत सरकार में इस समझौते पर मतभेद था। पर अंतत: अक्टूबर 1951 तिब्बत सरकार ने भी इस समझौते को औपचारिक मंजूरी दे दी। इसके कुछ ही दिनों बाद चीनी सेना ने शांतिपूर्वक तिब्बत की राजधानी ल्हासा में प्रवेश किया।

तिब्बत के समक्ष चीनी हमले के महान संकट को देखते हुए मात्र 15 वर्ष की आयु में ही दलाई लामा को तिब्बत का राष्ट्राध्यक्ष बनाकर उन्हें सारे अधिकार दे दिए गए। इस तरह 15 वर्ष की अल्पायु में ही 60 लाख तिब्बती जनता के राष्ट्राध्यक्ष बन गए। इसके बाद से ही उनके जीवन में उथल-पुथल की शुरूआत हो गई। तिब्बत में चीन के बढ़ते हस्तक्षेप के कारण दलाई लामा को बहुत छोटी उम्र में ही कई तरह की मुसीबतों का सामना करना पड़ा।

7 नवंबर 1950 को भारत के तत्कालीन उपप्रधानमंत्री और गृहमंत्री सरदार पटेल ने तिब्बत मामले पर प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू को ऐतिहासिक पत्र लिखा। सरदार पटेल ने पत्र में लिखा – ‘चीन सरकार ने हमें अपने शांतिपूर्ण उद्देश्यों के आडंबर में उलझाने का प्रयास किया है। मेरा यह मानना है कि चीन हमारे राजदूत के मन में यह विश्वास कायम करने में सफल रहा है कि चीन तिब्बत की समस्या को शांतिपूर्ण ढंग से सुलझाना चाहता है। चीन की अंतिम चाल मेरे विचार से कपट और विश्वासघात जैसी ही है। दुखद बात यह है कि तिब्बतियों ने हम पर विश्वास किया है, हम ही उनका मार्गदर्शन भी करते रहे हैं और अब हम उन्हें चीनी कूटनीति या चीनी दुर्भाग्य से बचाने में असमर्थ हैं।’ उन्होंने दो टुक शब्दों में लिखा – ‘चीन की कुदृष्टि हमारी तरफ वाले हिमालयी इलाकों तक सीमित नहीं है, वह असम के कुछ महत्वपूर्ण हिस्सों पर की नजर गडाए हुए है।’ पत्र में पंडित नेहरू को चेतावनी देते हुए सरदार पटेल ने आगे लिखा – ‘मेरे विचार से अब ऐसी स्थिति आ गई है कि हमारे पास आत्मसंतुष्ट रहने या आगे -पीछे सोचने का समय नहीं है। हमारे मन में यह स्पष्ट धारणा होनी चाहिए कि हमें क्या प्राप्त करना है और किन साधनों से प्राप्त करना है।’

इस तरह सरदार पटेल ने 1950 में ही पं. नेहरू को आगाह कर दिया था कि चीन भावी शत्रु हो सकता है और वह हमारे दरवाजे तक पहुंच चुका है। यदि उसी समय प्रधानमंत्री नेहरू ने सरदार की चेतावनी को गंभीरता से लिया होता तो 1962 के भारत-चीन युद्ध में देश को पराजय और शर्मिंदगी न झेलनी पड़ती।

सन् 1950 में तिब्बत पर चीनी कब्जे के बावजूद कई वर्षों तक आंतरिक मामलों में दलाई लामा का शासन चलता रहा। केवल चामदो और उसके आसपास के इलाकों पर ‘चामदो मुक्ति समिति’ का शासन रहा। इस इलाके पर 1950 में चीनी सेना ने कब्जा कर लिया था। तभी से यह इलाका दलाई लामा के नियंत्रण से बाहर रखा गया था। शेष तिब्बत में दलाई लामा सरकार की स्वायत्तता अधिकांश मामलों में बरकरार रहने दी गई। तिब्बत के पारंपारिक आर्थिक और सामाजिक ढांचे में चीन ने कोई दखलंदाजी नहीं की। 1950 में तिब्बती स्वायत्त क्षेत्र से सटे पूर्वी खाम क्षेत्र में तिब्बती मिलिशिया ने चीन सरकार से प्रेरित होकर भूमि सुधार अभियान शुरू किया। बौद्ध मठों और सामंत वर्ग की भूमि को किसानों में वितरित करने के लिए उस पर सरकार ने कब्जा कर लिया। भूमि सुधारों के लिए चीनी सरकार तिब्बती समाज में अमीर वर्ग और बौद्ध मठों के सत्ता के आधार को समाप्त कर देना चाहती थी। इसके विरोध में 1956 में बौद्ध भिक्षुओं के नेतृत्व में विद्रोह छिड़ गया। यह विद्रोह पूरे तिब्बत में फैल गया। विद्रोह 1956 से 1959 तक जारी रहा। चीनी सेना को तिब्बत से भगाने के लिए गुरिल्ला युद्ध शुरू हो गया। ल्हासा पर फिर से कब्जे के लिए चीनी सेना ने अभियान शुरू किया। तिब्बत धार्मिक मान्यताओं और परंपराओं का देश है। यहां के लोग लड़ाई-झगड़ा और हिंसा में विश्वास नहीं करते। इसके बावजूद तिब्बत की अपनी सेना थी, जिसमें करीब 10 हजार के लगभग सैनिक थे। पर तिब्बती सेना के पास न तो चीन से मुकाबला करने लायक हथियार थे और न ही तिब्बत की सेना उनके मुकाबले संख्या में थी। स्थिति की गंभीरता को समझते हुए 17 मार्च 1959 को दलाई लामा ने ल्हासा छोड़कर भारत जाने का निर्णय लिया। तिब्बत की सेना दलाई लामा के काफिले को भारत भागने के लिए सुरक्षित रास्ता देने में सफल रही। 17 मार्च को दलाई लामा सुरक्षित भारत पहुंच गए। चीनी और तिब्बती सेना में 19 मार्च को लड़ाई शुरू हुई। मगर दो ही दिनों में तिब्बती सेना ने घुटने टेक दिए।

चीनी सेना ने 1959 के तिब्बती राष्ट्रीय आंदोलन को बेरहमी से कुचल दिया। दलाई लामा की निर्वासित सरकार के मुताबिक इस युद्ध में लगभग 86 हजार लोग मारे गए। अंतत: 28 मार्च 1959 को चीनी सेना ने तिब्बत की राजधानी ल्हासा पर फिर से नियंत्रण कायम करने की घोषणा की। दलाई लामा और चीनी सरकार दोनों ने 1950 के 17 सूत्री समझौते को रद्द कर दिया। चीन सरकार ने स्थानीय तिब्बती सरकार को भंग कर दिया। इस तरह स्वतंत्र तिब्बत का अस्तित्व मिट गया। वह विशाल चीनी साम्राज्य का अंग बन गया और उसकी दक्षिणी सीमा भारत की उत्तर सीमा को छूने लगी।

दलाई लामा हिमाचल प्रदेश के धर्मशाला शहर में भारत के सम्माननीय अतिथि के रूप में पांच दशक से ज्यादा समय से रह रहे हैं। फिलहाल धर्मशाला चीन से निर्वाचित तिब्बतियों का शहर और घर है। 1960 से धर्मशाला निर्वासित तिब्बती सरकार का मुख्यालय भी है। भारत में रहते हुए दलाई लामा तिब्बत के सुलझाने के लिए सतत प्रयत्नशील हैं। उन्होंने संयुक्त राष्ट्र में तिब्बत के मुद्दे को सुलझाने के लिए अपील की। संयुक्त राष्ट्र महासभा द्वारा इस संबंध में 1959, 1961 और 1965 में तीन प्रस्ताव भी पारित किए जा चुके हैं। 21 सितंबर 1987 को अमेरिकी कांग्रेस के सदस्यों को सम्बोधित करते हुए दलाई लामा ने पांच सूत्री शांति योजना रखी। ये सूत्र हैं-1. समूचे तिब्बत को शांति क्षेत्र में परिवर्तित किया जाए। 2. चीन उस जनसंख्या स्थानांतरण नीति का परित्याग करे जिसके द्वारा तिब्बत के अस्तित्व पर खतरा पैदा हो रहा है। 3. तिब्बती लोगों के बुनियादी मानवाधिकार और लोकतांत्रिक स्वतंत्रता का सम्मान लिया जाए। 4. तिब्बत के प्राकृतिक पर्यावरण का संरक्षण व पुनरुद्धार किया जाए और तिब्बत को परमाणु हथियारों के निर्माण और परमाणु कचरे के निस्तारण स्थल के रूप में उपयोग करने की चीन की नीति पर रोक लगे। और 5. तिब्बत की भविष्य की स्थिति और तिब्बत तथा चीन के लोगों के संबंधों के बारे में गंभीर बातचीत शुरू की जाए। वे पूरी दुनिया में भ्रमण कर तिब्बत के मसले और विश्व शांति की जरूरत के बारे में जागरूकता फैलाते रहते हैं। अपने व्याख्यानों में वे इस बात पर जोर देते हैं कि आज के समय की चुनौति का सामना करने के लिए मनुष्य को सार्वभौमिक उत्तरदायित्व की व्यापक भावना का विकास करना चाहिए। हम सबको यह सीखने की जरूरत है कि हम न केवल अपने लिए कार्य करें बल्कि पूरी मानवता के लिए कार्य करें। मानव अस्तित्व की वास्तविक कुंजी सार्वभौमिक उत्तरदायित्व ही है। यह विश्वशांति प्राकृतिक संसाधनों के समवितरण और भविष्य की पीढ़ी के हितों के लिए पर्यावरण की उचित देखभाल का सबसे अच्छा आधार है। दलाई लामा का मूल संदेश है – प्रेम, करूणा और क्षमा आवश्यकता हैं, विलासिता नहीं है। उनके बिना मानवता जीविंत नहीं रह सकती।

दलाई लामा ने अपने जीवन के 75 साल पूरे कर लिए हैं। 29 मई 2011 का दलाई लामा ने एक कानून पर हस्ताक्षर किए। इस कानून से औपचारिक तौर पर उनका राजनीतिक अधिकार -लोकतांत्रिक ढंग से चुने गए नेता को हस्तांरित हो गया। इसके साथ ही तिब्बत के 368 वर्षों की वह परंपरा खत्म हो गई जिसके तहत दलाई लामा तिब्बत के आध्यात्मिक तथा राजनीतिक प्रमुख होते थे। अब दलाई लामा तिब्बतियों के महज आध्यात्मिक प्रमुख रह गए हैं।

चीन सरकार ने तिब्बत पर कब्जे के बाद तिब्बत में तिब्बतियों की आबादी का अनुपात कम करने और हान नस्ल के चीनी लोगों को नौकरी देने के लिए 1978 में पश्चिमी चीन विकास योजना शुरू की। अब लगभग तीन लाख हान चीनी तिब्बत में रहते हैं। इनमें दो तिहाई हान तिब्बत की राजधानी ल्हासा में रहते हैं। जबकि वहां तिब्बतियों की आबादी महज एक लाख है। बड़ी संख्या में चीनी इन सरकारी पदों पर काबिज हैं। ल्हासा से तिब्बत के दूसरे सबसे बड़े शहर शिकात्जे तक लेन लाइन बन चुकी है। इसके अतिरिक्त दो लेन वाले चिकने हाइवे भी हैं। नेपाल सरकार ने चीन से आग्रह किया है कि वह ल्हासा-शिकात्जे रेल लाइन को आगे बढ़ाते हुए काठमांडु से जोड़ दे। चीन सरकार ने नेपाल से वादा भी किया है कि शिकात्जे से नेपाल की सीमा तक करीब 400 किलोमीटर रेल लाइन पर काम होगा। फिलहाल ल्हासा से नेपाल से लगी चीन सीमा खासा तक 750 किलोमीटर लंबी सड़क है। खासा से वाहनों के जरिए 12 घंटे के भीतर काठमांडु पहुंचा जा सकता है। कभी यहां भारत से लौटने वाले भिक्षु पैदल या खच्चरों पर ही पहाड़ी दर्रों को पार करते थे और बौद्ध ज्ञान का प्रसार करते थे। अब तिब्बत की शांत, ठिठुरन भरी बंजर, बर्फीली पहाड़ियों का चेहरा बदला हुआ लगता है। कभी अगरबत्तियों की महक और लामाओं के मंत्रोच्चार से गूंजती इन पहाड़ियों पर आज कल-कारखानों और एक्सप्रेस वे और हाइवे पर दौड़ते वाहनों का धुआं और इनकी चिल्लपों हावी हो गई है। आज इन पहाड़ियों से निकलने वाली सुरंगों और राजमार्गों ने उनके जीवन में अशांति पैदा करने के साथ -साथ नई लालसा भी जगाई है।

तिब्बत के भीतर सतत विद्रोह की आग सुलगती रहती है। 10 मार्च 2008 को तिब्बतियों ने 1959 के विद्रोह की 59 वीं वर्षगांठ पर गिरफ्तार भिक्षुओं और भिक्षुणियों की रिहाई की मांग को लेकर विरोध प्रदर्शन किया। चीनी पुलिस ने प्रदर्शनकारियों पर अश्रु गैस छोड़ी और गोलियां चलाईं। विरोध प्रदर्शन अंतत: हिंसक हो गया। तिब्बतियों ने ल्हासा में हान चीनियों की दुकानें जला दीं। सरकारी मीडिया के मुताबिक 18 चीनियों की हत्या कर दी गई। यह विद्रोह आंतरिक तिब्बत, गान्सू और खिचुआन प्रदेशों में भी फैल गया। विद्रोह को कुचलने के लिए पांच हजार सैनिकों को लगा दिया गया। रिपोर्ट के मुताबिक सेना ने 80 से 140 तिब्बतियों को गोलियों से भून दिया और 2,300 से ज्यादा तिब्बतियों को गिरफ्तार कर लिया। तिब्बत में यह विद्रोह उस समय हुआ, जबकि चीन सरकार 2008 ओलिंपिक खेलों के आयोजन की तैयारी कर रही थी। तिब्बतियों के दमन की गूंज पूरी दुनिया में सुनाई दी। कई विदेशी नेताओं ने ओलिंपिक के उद्घाटन समारोह में हिस्सा नहीं लिया। ओलिंपिक मशाल धावकों को पूरी दुनिया में हजारों मानवाधिकार कार्यकर्ताओं के विरोध प्रदर्शन का सामना करना पड़ा।
सन् 2009 से तिब्बत में चीन के छह दशकों के शासन के विरोध में तिब्बतियों के आत्मदाह की घटनाएं बढ़ती जा रही हैं। फरवरी 2009 से अब तक लगभग 120 तिब्बती आत्मदाह कर चुके हैं। चीन सरकार ने आत्मदाह करने वालों को अपराधी और आतंकवादी घोषित कर रखा है। सरकार इन घटनाओं के लिए दलाई लामा को जिम्मेदार मानती है।

हर साल दर्जनों तिब्बती अपनी जान हव्येली पर रखकर सैकड़ों किलोमीटर दुर्गम हिमालयी रास्ते को लांघकर चीनी सुरक्षाकर्मियों से बचते-बचाते भारत में धर्मशाला आते हैं। इन शरणार्थिंयों में कई बच्चे भी होते हैं। शरणार्थी तिब्बतियों के भारत आगमन का यह सिलसिला तब तक जारी रहेगा जब तक उन्हें मुक्ति नहीं मिल जाती। चीन दलाई लामा को अलगाववादी मानता है जबकि दलाई लामा तिब्बत के लिए ज्यादा स्वायत्तता की मांग करते हैं। तिब्बत की निर्वासित सरकार के प्रधानमंत्री लोबसांग सांगे के मुताबिक वे चीन की सार्वभौमिकता या भौगोलिक अखंडता को चुनौती नहीं देते। वे चीन के भीतर जेनुइन स्वायत्तता चाहते हैं। जनवरी 2010 में तिब्बत की निर्वासित सरकार और चीन सरकार के बीच बातचीत हुई। पर चीन की सरकार निर्वासित सरकार की स्वायत्तता की मांग को छिपी आजादी की मांग मानती है। चीनी कम्युनिस्ट पार्टी की 18 वीं राष्ट्रीय कांग्रेस के बाद चीन सरकार ने तिब्बत पर अपने फोकस को फिर से ताजा कर दिया है। निर्वासित सरकार के कुछ प्रतिनिधियों को ऐसा लगता है कि चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग तिब्बत और दलाई लामा के प्रति नरमरुख अख्तियार करेगी, लेकिन निकट भविष्य में इसकी कोई संभावना नजर नहीं आती।

तिब्बत के मुद्दे पर दलाई लामा के समर्थन में विश्व स्तर पर आवाजें बुलंद होती जा रही हैं। चीन इन आवाजों को खामोश नहीं कर सकता। अब वह जमाना लद चुका है जब किसी देश में वहां के आंदोलनों की खबर दुनिया में नहीं पहुंच पाती थी। आज तो मामूली सुई गिरने की खबर भी पूरी दुनिया को पता हो जाती है। आज तिब्बत राष्ट्र अस्तित्व में नहीं है। तिब्बत की निर्वासित सरकार को दुनिया का कोई भी देश मान्यता नहीं देता। इसके बावजूद तिब्बती जनता आजादी की मशाल को प्रज्वलित किए हुए हैं।
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