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वनवासी कल्याण आश्रम

वनवासी कल्याण आश्रम

by डॉ. प्रसन्न सप्रे
in दिसंबर -२०१३, संस्था परिचय
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वनवासी समाज राजनैतिक, सामाजिक, ऐतिहासिक व भौगोलिक कारणों से आज पिछड़ा हुआ दिखता है। स्वतंत्रता मिली थी, तब अंग्रेजों ने भारत को अनेक टुकड़ों में बांटने का तय किया था जिसके लिए उन्होंने भारत में राज्य स्थापना के बाद से ही प्रयास प्रारंभ किए जो राजनैतिक, प्रशासनिक, शैक्षणिक, कानूनी आदि विविध नीतियों के माध्यम से होता रहा। तद्नुसार जनजाति समाज सभी दृष्टि से पिछड़ जाए और शेष समाज से कटा रहे ऐसे प्रयास किए। इसके तहत उन्होंने जनजातीय क्षेत्र में विशेष रूप से ईसाई मिशनरियों को मतांतरण करने के लिए प्रोत्साहित किया। फलस्वरूप कुछ क्षेत्रों में बड़े पैमाने पर जनजाति समाज ईसाई हो गया। स्वतंत्रता के समय आज के नागालैंड, मिजोरम, मेघालय और छोटा नागपुर के कुछ पठारी क्षेत्रों में काफी संख्या में ईसाई फैल गए। मिशनरियों ने अपने अपेक्षित लक्ष्यों की पूर्ति हेतु उन्हें संगठित किया था। वास्तव में ये ईसाई मिशनरी साम्राज्यवादियों के एजेंट थे। स्वतंत्रता मिलने पर उपर्युक्त क्षेत्र में मिशनरियों ने राष्ट्रविभाजक मांग खड़ी कर दी। सारे क्षेत्र को अशांत, अस्थिर और हिंसात्मक बना दिया था।

मध्यप्रांत व बरार प्रांत के मुख्यमंत्री पं. रविशंकर शुक्ल ने जशपुर में मार्च 1948 में ऐसी स्थिति का सामना स्वयं किया था। श्री र. के. देशपांडे, जो शासकीय सेवा में इस क्षेत्र में बाद में आए थे, ने इस स्थिति से मार्ग निकालना सफलता से प्रारंभ किया। कार्य करने में न केवल बाहर से, परंतु शासन की ओर से भी 1950 से बाधाएं आने लगीं। परंतु वनवासी समाज को उन्होंने देखा था, जाना था, आकलन व अनुभव भी उन्होंने कर लिया था। अत: आपने शासकीय सेवा से मई 1952 में त्यागपत्र दिया और सामाजिक कार्य का प्रारंभ जशपुरनगर में करने का संकल्प कर लिया। वनवासी समाज तब सभी क्षेत्रों में अत्यधिक पिछड़ा, उपेक्षित, गरीब, अशिक्षित रह गया था। मानों अपनी सामाजिक अस्मिता भुला बैठा था। शेष समाज भी वनवासी समाज को, अंग्रेजों की शिक्षा और अन्य नीतियों के कारण अपने से भिन्न व पृथक मानता था। इस स्थिति में बदलाव लाना अति आवश्यक था। वनवासी समाज अपनी पहचान पुन: हिंदू के रूप में करते हुए शैक्षिक, आर्थिक, सामाजिक आदि सभी क्षेत्रों में समुन्नत हो जाए, शेष समाज भी जनजातीय समाज को अपना अभिन्न अंग मानते हुए समरसता के भावों की पुष्टि हो ऐसा व्यवहार करे यह आवश्यक था। इसी लक्ष्य की प्राप्ति के लिए दि. 26-12-1952 को जशपुरनगर में मा. श्री बालासाहब देशपांडेजी एवं श्री मोरूभैया केतकर ने कल्याण आश्रम की नींव रखी।

वटवृक्ष के छोटे से बीज में विराट रूप धारण करने की अपार शक्ति होती है। वैसे ही इस छोटे से बीजरूप कार्य में विराट रूप धारण करने की असीमित शक्ति निहित थी। समय के साथ जशपुर में ही कार्य के कई आयाम विकसित होते गए। प्रारंभ में शाला व छात्रावास ही थे, परंतु फिर आर्थिक विकास, स्वास्थ्य, सामाजिक व सांस्कृतिक जागरणार्थ संगठन, खेलकूद, हितरक्षा आदि विभिन्न आयामों का कार्य भारत के सभी जनजातीय क्षेत्रों में फैल गया। हजारों की संख्या में शालाएं, श्रद्धा जागरण केंद्र, खेलकूद केंद्र, ग्रामीण स्वास्थ्य केंद्र, कृषि व उद्योग विकास केंद्र, ग्राम समितियां आदि स्थापित हो गई हैं। महिलाओं की ओर भी ध्यान देकर उन्हें इस विराट राष्ट्रीय विकास कार्य में सम्मिलित किया गया है। युवा की ओर तो विशेष रूप से ध्यान दिया जाता है। इतना ही नहीं तो आज पचासों ग्रामों को आदर्श रूप से विकसित करने का प्रयास प्रारंभ हो चुका है। वनवासी समाज अपनी परंपरागत पहचान पर गौरवान्वित हो ऐसे सामाजिक व सांस्कृतिक स्तर पर भारतभर में प्रयास चल रहे हैं। इसके कारण ही वनवासी समाज जागृत होकर राष्ट्रीय दृष्टिकोण से समरसता के भावों से सराबोर होने लगा है। शहरी समाज भी वनवासी समाज को अपनाने लगा है, उनके विकास में आनेवाली बाधाओं को दूर करने के लिए विशेष प्रयास करने लगा है। हजारों की संख्या में नागरिक पुरूष व महिलाएं, डॉक्टर, वकील, समाजसेवी, व्यापारी, उद्योजक, कृषक आदि इस कार्य में अपना समय दे रहे हैं, तन-मन-धन से सहयोग दे रहें हैं। वनवासी समाज अब शहरों में आतिथ्य प्राप्त करते हैं, तो नागर समाज वनवासी ग्रामों में आतिथ्य प्राप्त करते हुए सेवा भी कर रहे हैं। मात्र इतना ही नहीं तो वनवासी समाज के हितों की सभी प्रकार से रक्षा हो इसके लिए भी विशेष रूप से ध्यान दिया जा रहा है। हजारों प्रकल्पों के माध्यम से नागालैंड से गुजरात और हिमालयीन क्षेत्र से दक्षिण के तटों तक यह कार्य हो रहा है। स्वाभाविक ही है कि वनवासी क्षेत्र में सुखद परिवर्तन की बयार चलने लगी है। हां, यह सच है कि इस सुखद बयार का अनुभव हमारा कार्य जिस जगह पर पहुंच गया है वहीं पर हो सकता है। संपूर्ण जनजातीय क्षेत्र में ऐसा ही अनुभव आए इसके लिए हमें अपने कार्य और कार्य क्षेत्र को काफी अधिक विस्तृत करना आवश्यक है। हम आशा कर सकते हैं कि समाज का जितना ही अधिक सहयोग प्राप्त होता जाएगा उतनी ही शीघ्रता से लक्ष्य की पूर्ति हो सकेगी। इस ओर सभी का ध्यान जाना आवश्यक लगता है।

वनवासी कल्याण आश्रम को कार्य करते हुए साठ वर्ष हो चुके हैं। प्रारंभिक 16-17 वर्षों तक सिर्फ जशपुर क्षेत्र में ही कार्य था। कार्य करते हुए अनुभव लिया, समाज में परिवर्तन हो सकता है इस पर विश्वास बैठा। अगले दस वर्ष थोड़े से अन्य जिलों में भी कार्य फैलाया और उसका अनुभव लिया। इस बार मध्य-प्रदेश के अतिरिक्त बिहार और उड़ीसा में कार्यानुभव में आया कि नगर का जागृत तबका इस कार्य की ओर आकृष्ट होता है और सहयोगी भी होता है। इन अनुभवों के आधार पर ही 1977 में कार्य को अखिल भारतीय स्वरूप देने का निश्चय किया गया। पांच-सात वर्षों में ही प्राय: हर प्रांत में कार्यारंभ हो गया। जो इने-गिने प्रांत रह गए थे वहां पर भी पिछले लगभग पंद्रह वर्षों से कार्य चल रहा है। यह कार्य जो निरंतर चल रहा है, फैल रहा है, उसके कारण समाज में होनेवाले परिवर्तनों का संक्षेप में थोड़ासा क्यों न हो, उल्लेख करना आवश्यक है।

उत्तर पूर्वांचल के वनवासी क्षेत्रों में स्वयं को हिंदू, भारतीय, इंडियन कहना भी कुछ वनवासी लोग पसंद नहीं करते थे। परंतु इनमें से अपने परिचित एक सज्जन को 1981 में कल्याण आश्रम के एक पांच दिवसीय अखिल भारतीय कार्यकर्ता अभ्यास वर्ग में लाया गया। वे समाज में मान्यताप्राप्त व प्रतिष्ठित व्यक्ति थे। आते ही श्री देशपांडेजी को कहा कि मैं हिंदू नहीं हूं। वे पांच दिन वर्ग में रहे। चलनेवाले कार्यक्रमों का गहराई से अवलोकन, अध्ययन किया, सहभागी भी हुए। जाते समय उन्होंने श्री देशपांडेजी को कहा ‘पता नहीं क्यों, परंतु मुझे अब लगता है कि मैं भी हिंदू हूं। आप हमारे क्षेत्र में कार्य करने के लिए कार्यकर्ता को भेजिए। मैं पूरा सहयोग दूंगा।’ उस क्षेत्र में तुरंत ही एक कार्यकर्ता को भेजा, जिसने अनेक बाधाओं के बीच से मार्ग निकालते हुए आश्रम की जड़ें जमाईं। यह नागालैंड की घटना है।

महाराष्ट्र में अपने छात्रावास के छात्र के मन में संकल्प उठा कि ग्राम के अभावग्रस्त जीवन में परिवर्तन लाना है। आश्रम के कुछ नागरिक कार्यकर्ताओं ने सहयोग देना प्रारंभ किया। जिस गांव के अधिकांश लोग छह मास शहरों की ओर पलायन करते थे वहां पर स्वावलंबन, श्रमयज्ञ, योजनाबद्ध संगठित रूप से कार्य करना आदि के माध्यम से आस-पास की वीरान पहाड़ियां व जमीन वृक्षों से हरी-भरी हो गई। चार-पांच मास बहने वाला नाला बारहों मास बहने लगा। खेती व बागवानी होने लगी। पीने के पानी की बारहों मास व्यवस्था हो गई। इतना ही नहीं तो बागवानी से प्राप्त टमाटर का सॉस आदि बनाकर शहरों में बेचा जाने लगा। सभी को काम मिला। शहरों की ओर पलायन होता था, वह रूक गया। यह गांव है नगर जिले का ढगेवाड़ी। अब ऐसे अन्य कई गांव हो गए हैं और हो रहे हैं। धुले जिले का ग्राम बारीपाड़ा अंतरराष्ट्रीय ख्याति प्राप्त कर रहा है।

यह 2001 के दशक की बात है। इसके बीस वर्ष पूर्व उत्तर पूर्वांचल के विभिन्न जनजातीय समाज, जिनकी संख्या 110 से अधिक है, का परस्पर में सौहार्दपूर्ण वातावरण में मिलना नहीं होता था। अपितु कई बार आपसी संघर्ष भी हो जाता था। यह कभी-कभार अभी भी होता है। यह साम्राज्यवादी विघटनकारी शक्तियों के एजेंटों द्वारा होता है। परंतु वनवासी कल्याण आश्रम द्वारा गुवाहाटी में लगभग चालीस जनजातीय युवाओं का तीन दिवसीय शिविर आयोजित हुआ। लगभग तीन हजार युवा एकत्रित हुए। एक दिन शाम को गुवाहाटी के नागर परिवारों ने अपने साथ में कुछ लोगों का खाना साथ में लाया। शिविर के 2-3 युवाओं के साथ प्रत्येक नागरिक परिवारों ने उनके साथ बैठकर भोजन किया। एक दिन शाम को अपनी परंपरागत पोषाकों को पहनकर ये सारे युवा गुवाहाटी के रास्तों पर शोभायात्रा के रूप में अनुशासित रूप से देशभक्तिपूर्ण नारों को लगाते हुए निकले। ऐसा उत्साहपूर्ण और अनुशासित ‘मोर्चा’ नागरिकों ने इसके पहले कभी नहीं देखा था। सभी अचंभित थे कि यह अनुशासित और शांतिपूर्ण शोभायात्रा क्या सचमुच ही जनजातीय युवाओं की ही है? अस्तु।

ऐसे तो अनेक प्रकार के उदाहरण दिये जा सकते हैं। परंतु एक सीमा से अधिक लिखना संभव नहीं है। हम केवल इतना ही कहना चाहते हैं कि जहां-जहां पर वनवासी कल्याण आश्रम का प्रवेश होता है, वहां-वहां वनवासी-समाज को तुरंत अनुभव में आता है कि यह हमारी संस्था है, यह हमारे धर्म-संस्कृति की रक्षा में और हमारे हित की चिंता व रक्षा में कार्य करनेवाली संस्था है अत: इसको हम स्वयं पूरा सहयोग देंगे। ऐसी भावना रहने के कारण कल्याण आश्रम का कार्य शीघ्रता से जड़ें पकड़ लेता है। बड़ी संख्या में नगर के बंधु-भगिनी भी सहयोग देने के लिए तत्पर हो जाते हैं। इतना बड़ा कार्य है, परंतु शासन से आर्थिक सहयोग नहीं लेते। जो भी सहयोग उनका है वह नगण्य है। सारा सहयोग समाज से प्राप्त होता है। हम आशा करते हैं कि शेष क्षेत्र में भी हमारा कार्य कुछ ही वर्षों में पहुंच जाएगा। भारत को विकसित, शक्तिशाली और आदर्श राष्ट्र के रूप में विश्व के समक्ष प्रस्तुत करने में वनवासी समाज भी अपनी समर्थ भूमिका निभाने लगेगा।
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