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चौथे स्तंभ की भूमिका पहचाने

चौथे स्तंभ की भूमिका पहचाने

by अमोल पेडणेकर
in जनवरी -२०१४, सामाजिक
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31 दिसम्बर की रात और 1 जनवरी की सुबह, साल बदलने के इस मोड़ पर सारा संसार आनंदोत्सव मनाता है। इस पूरे उत्सव के पीछे केवल आनंद होता है, ऐसा नहीं कहा जा सकता। पिछले पूरे साल में देश में जिस तरह का वातावरण था उसे देखते हुए तो बिलकुल नहीं कहा जा सकता। बीते साल महिलाओं की प्रताड़ना, समाज में होते अपराध और प्रसार माध्यमों में बढ़ता दुर्व्यवहार इत्यादि कई नकारात्मक बातें सामने आयीं। इसी वजह से 2013 समाप्त होने के बाद 2014 की शुरुआत में मन में यह प्रश्न उठता है कि हमने इस साल में क्या पाया? इसका उत्तर ढूंढ़ते हुए हमारे विचार आकर रुकते हैं प्रसार माध्यमों की घटनाओं की ओर। पिछले पूरे साल में या उससे भी पहले भारत के गणतंत्र का चौथा स्तंभ कहे जानेवाले इस क्षेत्र ने भारतीय जनता के सामने जिस प्रकार की गैर जिम्मेदार वृत्ति का प्रदर्शन किया है वह चिंताजनक है।

हम प्रसार माध्यमों की ओर समाज के आइने के रूप में देखते हैं। अदृश्य या दृश्य प्रतिबिंब देखकरा पढ़कर हम देश और समाज को समझने का प्रयत्न करते हैं। परंतु देश और समाज का अच्छा-बुरा प्रतिबिंब दिखानेवाले प्रसार माध्यमों को भी हम किस तरह से देखें, यह भी अब महत्वपूर्ण प्रश्न बन रहा है। बीते हुए 2013 के फ्रेम में यह तस्वीर हमें कैसी दिखाई देती है? इस प्रश्न का उत्तर ढू़ंढने के लिये शायद 2013 की फ्रेम बहुत छोटी पड़ जाये, परंतु अगर इस कालावधि को थोड़ा बढ़ा दिया जाये, पिछले दो वर्षों में प्रसार माध्यमों में घटी घटनाओं की ओर ध्यान दिया जाये तो कुछ बातें जरूर स्पष्ट होंगी। पाठकों का ध्यान इसके बिगड़ते हुए संतुलन की ओर जरूर जायेगा।

मुंबई में प्रवास करने के दौरान एक ऑटोरिक्शा के पीछे लिखी मार्मिक पंक्तियां कुछ इस प्रकार थीं।

जब होनी सर पर आती है।
गति, मति सब मिट जाती है।
खंदक खाई जहां हो।
वहीं पर ले जाती है॥

यह पंक्तिया पढ़ते समय अचानक ‘तहलका’ के तरुण तेजपाल की याद आ गई। वासना के अंधेपन में तहलका के सम्पादक को उस व्रतस्थ पत्रकार क्षेत्र की गौरवशाली परंपरा का भी स्मरण नहीं रहा जिसका वह प्रतिनिधित्व कर रहा है। लेखनी और पत्रकारिता के दम पर ही हमारा लोकतंत्र आज तक जीवंत है। इस पावन और पवित्र परंपरा वाले पेशे पर तरुण तेजपाल जैसे लंपट पत्रकार के कारण धब्बे जरूर पड़ गये हैं।

पत्रकारिता के उत्थान के लिये ही अपना अवतार हुआ है ऐसा मानकर उसने ‘पोल-खोल’ और ‘सनसनीखेज’ पत्रकारिता की। मैंने एक बहुत महान कार्य किया है, इस प्रकार की नैतिकता का भाव तरुण तेजपाल ने निर्माण किया, परंतु कुछ चुनिंदा लोगों तक ही इस नैतिकता को सीमित रखनेवाले तरुण तेजपाल ने पी. वी. नरसिंहराव की अल्पमत की सरकार बहुमत में कैसे आई? प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने परमाणु करार के मुद्दे पर सरकार को बचाने के लिये किन बातों कों अपनाया? जैसे मुद्दों को बेपर्दा करने का साहस नहीं दिखाया। पुरोगामी नैतिकता का रक्षक कहलाने वाले तेजपाल की ‘नैतिकता’ विशेषतापूर्ण थी। अपने आप को पुरोगामी कहलवाने वाले तेजपाल का चरित्र भी दरार पड़े आइने की तरह है। अपनी सहकारी पत्रकार के साथ उन्होंने जो दुर्व्यवहार किया उससे यह साफ जाहिर होता है। कोहराम मचानेवाले साधन और यंत्र तेजपाल जैसे लोगों के पास हैं जिनका उपयोग करके वे दूसरों के दुर्व्यवहार सभी के सामने लाते हैं, परंतु तेजपाल जैसे लोगों के द्वारा किये जानेवाले पापों और दुष्कृत्यों का क्या? प्रत्येक व्यक्ति के चरित्र और पवित्रता की जांच करनेवालों की जांच कौन करेगा?

पिछले साल राडिया केस के सामने आने पर बहुत बवंडर मचा था। राजनैतिक दलाल और कार्पोरेट लाभार्थियों के लिये यह मामूली केस था, परंतु अनेक पत्रकारों के पैरों के तले से जमीन खिसक गई थी। पत्रकारिता के क्षेत्र में भी अब ‘फिक्सर’, ‘मैनेजर’ वृत्ति वाले लोग घुस रहे हैं। नीरा राडिया प्रकरण के कारण अब यह सिद्ध हो चुका है। पेडन्यूज, नीरा राडिया प्रकरण, कैश फॉर व्हाट प्रकरण, अनेक प्रकार के स्टिंग आपरेशन्स के कारण पत्रकारिता की विश्वसनीयता पर प्रश्नचिन्ह लग गया है। नीरा राडिया की कार्पोरेट दलाली, तेजपाल के स्टिंग आपरेशन और महिला सहकर्मी के साथ दुर्व्यवहार आदि के कारण पत्रकारिता को जैसे रोग लगने लगा है। ‘मिशन’ के रूप में की जानेवाली पत्रकारिता ‘व्यावसायिक’ पत्रकारिता की ओर मुड़ रही है यह सत्य है, परंतु ‘व्यावसायिक पत्रकारिता’ और ‘मूल्यहीन पत्रकारिता’ को एक ही तराजू में तौलना गलत होगा। व्यावसायिक पत्रकारिता करते हुए भी मूल्यधारक पत्रकारिता की जा सकती है। इसमें वाचक-दर्शक केन्द्र बिंदु होते हैं, परंतु बाजार प्रेरित पत्रकारिता में वाचक-दर्शक केन्द्र स्थान पर न होने का दृश्य साफ नजर आ रहा है। अत: अगर समय रहते ही हम नींद से नहीं जागे तो यह माध्यम गर्त में चला जायेगा। भारतीय प्रसार माध्यमों का भविष्य राडिया, तेजपाल जैसे कार्पोरेट दलालों, लंपट और आपराधिक हाथों में चला जायेगा और तब तक बहुत देर हो चुकी होगी। पत्रकार पत्रकारिता ही करें, अगर व्यवसाय करना है तो पत्रकारिता छोड़ दें। दोनों एक साथ करने की अगर सोचेंगे तो या तो………होगा या वह रास्ता सीधे जेल की ओर जायेगा।

पहले लोगों की ऐसी मानसिकता थी कि अखबार में प्रकाशित हुआ है या इलेक्ट्रानिक मीडिया ने दिखाया अत: वह सही ही होगा। इससे पत्रकारिता पर एक विश्वास प्रकट होता था। विश्वास कांच की तरह होता है। अगर इसमें एक बार दरार पड़ जाये तो फिर से जोड़ा नहीं जा सकता। व्यक्तियों की तरह ही व्यवसाय और व्यवस्था के रूप में पत्रकारिता पर भी यही नियम लागू होता है। हमारा भारत देश लोकतांत्रिक देश है। भारत के लोगों को पत्रकारिता के संदर्भ में जो विश्वास या अविश्वास है, उस पर लोकतंत्र निर्भर है। कानून बनानेवाली संसद, उसे अमल में लानेवाली नौकरशाही और कानून की रक्षा करनेवाली न्यायपालिका ये तीनों लोकतंत्र के स्तंभ हैं। हमारे देश में यह तीन स्तंभ पत्रिकारिता पर निर्भर हैं। अत: पत्रकारिता पर लोगों का विश्वास होना लोकतंत्र का महत्वपूर्ण घटक है। प्रसार माध्यमों को इसलिये ही लोकतंत्र का चौथा स्तंभ कहा जाता है। ऐसे में प्रसार माध्यमों द्वारा समय रहते चौथे स्तंभ के रूप में अपनी भूमिका समझना आवश्यक है। अगर ऐसा नहीं हुआ तो प्रसार माध्यम चाहे जितना विकास कर लें, परंतु कोई भी बड़ा सामाजिक बदलाव करने में वे अपनी निर्णायक भूमिका नहीं निभा सकेंगे। कुछ अखबारों को अपवाद स्वरूप अगर छोड़ भी दिया जाये तो प्रकाशित होनेवाले लेख, समाचार, साक्षात्कार, टीवी कवरेज, चर्चासत्र ‘पेड’ या ‘मेनेज’ किये हुए होते हैं। ये सब बिक्री और टीआरपी बढ़ाने के लिये किये गये स्टंट होने का शक अब सामान्य वाचकों और पाठकों के मन में आने लगा है।

राडिया और तरुण तेजपाल जैसे नैतिकता का बुरखा ओढ़े हुए विषयांध संपादकों का उदाहरण एक सबक की तरह ही है। प्रसार माध्यमों के क्षेत्र में जो घटित हुआ और हो रहा है वह केवल एकाध समूह में हो रहा है, ऐसा समझना गलत होगा। यह हिमनग का छोटा सा दृश्य भाग है।

पत्रकारिता के क्षेत्र में अनेक महिलाओं ने पुरुषों की बराबरी से काम किया है। इस क्षेत्र में पत्रकार महिला है या पुरुष है इससे ज्यादा फर्क नहीं पड़ता। उस व्यक्ति की काम के प्रति निष्ठा महत्वपूर्ण होती है। महिला होने के कारण किसी घटना का समाचार या किसी व्यक्ति का साक्षात्कार नहीं मिला, ऐसा कभी नहीं हुआ। भारतीय पत्रकार क्षेत्र में महिलाओं को दुय्यम दर्जा देने के उदाहरण बहुत जादा नहीं हैं, परंतु साफ-सुथरे तरीके से चलनेवाले इस कार्य में तरुण तेजपाल जैसे संपादक ने जहरीला विष घोल दिया है। पत्रकारिता के क्षितिज पर चमकनेवाली अनेक महिलाओं का तरुण तेजपाल ने अनादर ही किया है।
यह सब घटित होते समय वाचकों और दर्शकों की भावनाओं का पता चलता है। प्रसार माध्यम किन बातों पर गौर करें इसके साथ ही यह भी आवश्यक है कि समाज भी प्रसार माध्यमों की किन-किन बातों पर गौर करें। पक्षपातपूर्ण स्टिंग आपरेशन करके एक तरफा हो-हल्ला मचानेवाले, ‘विशेष’ पक्षों के संदर्भ में मौन रहनेवाले, लंपट तेजपाल जैसे पत्रकार को इसी समाज ने सिर पर बिठा रखा था। गुणगान करनेवाले समाज को इस बात का ध्यान नहीं रहा कि वह क्या कर रहा है। इतना ही नही अब भ्रष्टाचार के मामले ढूंढने के काम में भी आम लोग आक्रमण करने लगे। आर्थिक लाभ को ध्यान में रखकर कई आर. टी. आई. कार्यकर्ता निर्माण होने लगे। माध्यम भी सही-झूठ का ध्यान न रखते हुए उनके पीछे लगने लगे। इस तरह एक नवीन चित्र फिलहाल समाज में दिखाई दे रहा है।

पत्रकारिता क्षेत्र में ‘सनसनीखेज’ या ‘पोल-खोल’ जैसी अनावश्यक घुसपैठ को स्वीकृति न मिले इस पर राष्ट्रपति अब्दुल कलाम के द्वारा दिया गया वक्तव्य आज सही होता दिखाई दे रहा है। उन्होंने कहा था कि, ‘भले ही कुछ समय के लिये सनसनीखेज समाचार बिकें, परंतु स्पष्ट रूप से भविष्य में पत्रकारिता का अनादर ही होगा। असली पत्रकारिता साहस और सत्यता की वाहक होती है और प्रेरक तथा अनुकरणीय भी होती है।’

हिंदी पत्रकारिता के आद्यजनक स्वर्गीय बाबूराव पराडकर ने 1925 के वृंदावन साहित्य सम्मेलन के संपादकों के एकत्रीकरण में भाषण करते हुए कहा था कि ‘आनेवाले समय में अखबार निकालना और उसे सफलतापूर्वक चलाना धनाढ्य लोगों या सुसंगठित कंपनियों के ही बस में होगा। अखबार सर्वांग रूप से सुंदर होंगे और उनका आकार बड़ा होगा। छपाई अच्छी होगी। मनोरंजक और ज्ञानवर्धक चित्रों की उसमें अधिकता होगी। विविध तरह के लेख होंगे, परंतु इतना सब होने के बावजूद भी अखबार निष्प्राण होंगे क्योंकि इन अखबारों का ध्येय देशभक्त, धर्मनिष्ठ, मानवतावादी इत्यादि गुणों वाले संपादक ने निश्चित नहीं किया होगा। इसके विपरीत इस तरह का गुण संपन्न पत्रकार संपादक की कुर्सी तक नहीं पहुंच सकेगा।’ स्वर्गीय पराडकर ने 1925 में भविष्य की पत्रकारिता के स्वरूप के बारे में जो भी भाष्य किया था वह बिलकुल सटीक था, इसमें किसी का भी नकारात्मक मत नहीं होगा।

अब्दुल कलाम और स्व. पराडकर के वक्यव्यों की भूमिका से किसी पत्रकार से अगर यह पूछा गया कि ‘व्यावसायिक पत्रकारिता का क्या अर्थ है?’ तो वह हमेशा का रटारटाया जवाब देगा कि ‘अभी तक की जानकारी के अनुसार और विश्लेषण के द्वारा देश की जनता को सक्षम करना, समाज को जागृत करना, समाज प्रबोधन करना और लोगों को ज्ञान से समृद्ध करना।’, परंतु क्या भारत की जनता इस उत्तर को स्वीकार करेगी? क्योंकि पिछले कुछ वर्षों से अखबारों की शक्ति को लेकर, राजनैतिक उपयोग को लेकर पत्रकारिता क्षेत्र के संदर्भ में जनता की नकारात्मक भूमिका निर्माण होती दिखाई दे रही है। इस नकारात्मक दृष्टिकोण का परिणाम भी वैसा ही है। प्रसार माध्यमों में काम कर रहे लोगों के द्वारा एक मुद्दा ध्यान देने योग्य है कि अखबार और प्रसार माध्यम भले ही उत्पाद हो, परंतु उनकी ओर व्यावसायिक दृष्टिकोण से देखना गलत होगा। परंतु दुर्दैव से हमारे यहां प्रसार माध्यमों में काम करनेवाले लोग प्रसार माध्यमों को उत्पाद समझकर उसके ‘विक्रय’ के लिये सनसनीखेज तत्वों का आधार लेते हैं, परंतु नष्ट होनेवाली वनसंपदा, दूषित हो रहा पर्यावरण, कुपोषण के कारण अपना पहला जन्मदिन भी न मना सकने वाले लाखों बच्चे इत्यादि बातों की ओर जितना ध्यान दिया जाना चाहिये उतना नहीं दिया जाता। सनसनीखेज खबरों के अलावा आने वाले संकटों की समय रहते जानकारी देना भी प्रसार माध्यमों का कर्तव्य है। व्यावसायिक निष्ठा के कारण यह सब होता दिखाई नहीं दे रहा है।

अब तो ऐसी आशंका व्यक्त की जाने लगी है कि पत्रकारिता लोगों के लिये ‘वॉचडॉग’ या ‘जागृति’ लाने वाली संस्था है, इस बात को भी लोग नकारने लगेंगे। यह खतरे की घंटी है। इस घंटी को प्रसार माध्यमों द्वारा सुनने और अपनी कार्यपद्धति में सुधार करने की अत्यावश्यकता है। अन्यथा प्रसार माध्यम अपनी विश्वसनीयता तो खोयेंगे ही साथ ही लोकतंत्र के तीन स्तंभों की तरह चौथा स्तंभ भी अंदर ही अंदर कुरेदने के कारण धीरे-धीरे कमजोर हो जायेगा।

जब होनी सर पर आती है।
गति मति सब मिट जाती है।
खंदक खाई जहां हो।
वहीं पर ले जाती है।

यह संदेश एक रिक्शावाला अपने फलक के माध्यम से फैलाता है, परंतु समाज प्रबोधन का बीड़ा उठानेवाले अखबार और प्रसार माध्यम यह भूलते जा रहे हैं। अखबार चलाना कुछ लोगों के लिये सनसनी खेज आयवाला साधन होगा, परंतु पत्रकारिता एक कर्तव्य है और उसके लिये विचलित हुए बीना कठिन साधना करके, पत्रकारिता को व्रत समझकर चलनेवाले और इस पेशे के प्रति आदर भाव बढ़ानेवाले भी कई पत्रकार हैं, इसमें कोई दो राय नहीं है। इनके योगदान के कारण ही यह पत्रकारिता निरंतर चल रही है। इस बात का ज्ञान तरूण तेजपाल जैसे पत्रकारों को जल्दी ही होना चाहिये। जहां खंदक है, खाई है अर्थात गर्त है वहां समाज के संवर्धन की परंपरावाली पत्रकारिता को ले जाने से ये लोग परावृत्त हों, यही नववर्ष के प्रारंभ में शुभकामनाएं।

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