युग बदला, सिर्फ सत्ता नहीं

यह कहना भी कम लगता है कि इतिहास रचा गया। वास्तव में ऐसा लगता है कि 1857 की भारतीय फौज 157 साल बाद जीती और अंग्रेजों की काली छाया से मुक्ति मिली। यह केवल सत्ता परिवर्तन नहीं बल्कि राजनीतिक-शैली, छन्द और भाषा का परिवर्तन है। भ्रष्टाचार और अहंकार की राजनीति के विरूद्ध दशकों से जनता के मन में जो गुस्सा ठहरा हुआ था, वह मोदी पर भरोसा करके फट पड़ा। यह जन-विद्रोह का चरम है जिसने संविधान के ढांचे में लोकतंत्र की मर्यादा रखी और अन्तत: देश पर बोझ बने नेहरू-गांधी परिवार की जमींदारी को उखाड़ फेंका। इन लोगों ने देश और जनता को अपने पिछवाड़े की फसल समझ लिया था। बस मीडिया मैनेज कर लो, पैसा फेंक दो, विज्ञापन दे दो, तो लोग खुश हो जाएंगे। कांग्रेस का अहंकार तो प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के अपमान में भी झलका। छोटे से राजकुमार ने उनका हर बार अपमान किया। भ्रष्टाचार पर खामोशी रखी, सत्ता के दो केन्द्र बनाए, अपने लोगों के गलत कामों को नजरअन्दाज कर दिया, विपक्षी पर व्यक्तिगत आघात किए, गालियों और चरित्र हनन की राजनीति की। नतीजा क्या निकला? जनता ने जो फैसला किया यदि अब भी वे उससे सबक नहीं सीखेंगे तो ईश्वर भी उनकी रक्षा नहीं कर पाएगा।

मोदी रूस के पुतीन, अमरीका के ओबामा और चीन के शिनजिंनपिंग से बड़े अंतर्राष्ट्रीय महत्व के नेता बनेंगे। न केवल राष्ट्रीय परिदृश्य में बदलाव आयेगा और सेना, सरहद तथा सामान्य जन की रक्षा और सम्मान बढ़ेगा बल्कि सबसे पहली वरीयता होगी अर्थव्यवस्था को सुधारना तथा रूपये की कीमत को मजबूत बनाना। सकल घरेलू उत्पाद की दर को 8 प्रतिशत तक पहुंचाने का कठिन काम सामने है। देश के निर्माण सेक्टर की स्थिति बेहद नाजुक है। छोटे-बड़े उपकरण चीन से आयात करने पड़ रहे हैं। इसलिए इस सेक्टर को मजबूत बनाने की बड़ी जिम्मेदारी है। शिक्षा के क्षेत्र में सामान्य जन की पहुंच को सुगम बनाना और श्रेष्ठता के मानक स्थापित करना अगर एक चुनौती है तो उतनी ही बड़ी चुनौती है कृषि क्षेत्र में किसान को उपज का बेहतर मूल्य दिलवाना तथा सिंचाई के साधन सब जगह पहुंचाना। पेयजल हो या ग्रामीण विद्युतीकरण, सड़कें या रेलमार्ग, एक प्रकार से मोदी को पूरे देश का ही नवनिर्माण करने के काम में जुटना पड़ेगा।

हर प्रकार के आघात और झूठ का मोदी के विरूद्ध इस्तेमाल किया गया लेकिन अंतत: जन भावनाओं की विजय हुई और मोदी दुनिया के तमाम लोगों को आश्चर्यचकित करते हुए एक ऐसे नायक के रूप में उभरे जिनके उभार से भारतवर्ष पृथ्वी पर शक्तिशाली एवं स्वाभिमानी राष्ट्र के रूप में उभर कर आयेगा।

इन चुनावों में गालीगलौज़, अपशब्द, अभद्रता, तीखे तेजाबी कटाक्ष बढ़ गये और जो नेता हमेशा अपने अहंकार तथा त्योरियां चढ़ाकर बात करने के लिये जाने जाते रहें हैं, वे विनम्रता की प्रतिमूर्ति बनकर यह बता रहे थे कि आम जनता के लिये उनके दिल में हमेशा से कितना दर्द रहा है। अचानक दल बदलकर जीतने वालों की ओर वे तमाम तथा कथित ‘तोपें’, ‘बंदूकें’, जैसी दिग्गज नेता कहे जाने वालें आतुरता से दौड़ पड़े है और इस कारण पुराने नेताओं और कार्यकर्ताओं में एक असमंजस भी था कि आकाश से उतरें इन लोगोें को कैसे साथ में लिया जाये, जिन्हें दल की जमीनी वास्तविकता से और विचारधारा से सरोकार नहीं रहा है।

लेकिन सबसे रोचक पक्ष उन सेकुलरों का रहा जो देश में सेकुलरवाद की तथाकथित आखिरी आशा बचाने के नाम पर घोर संप्रदायिक एवं जातिवादी लामबंदी में जुट गये। अब सेकुलर होने का अर्थ यह सामने आया है कि मुसलमानों से कहा जाये कि वे थोड़ा कॉम्युनल हो जायें और जत्थाबंद होकर किसी पार्टी की नीतियों या कार्यक्रमों के आधार पर नहीं बल्कि एक उस व्यक्ति के विरुद्ध वोट डालें जो उनकी निगाह में उनके सेकुलरवाद का सबसे बड़ा शत्रु हो गया है। दुनिया में शायद भारत ही ऐसा देश होगा जहां घनघोर संप्रदायिक लोगों तथा मजहबी नेताओं से राजनीतिक समर्थन मांगना सेकुलरवाद का प्रमाणपत्र मान लिया जाता है। विभिन्न समाचारपत्रों और चैनलों पर मुस्लिम मतदाताओं को उकसाने और उन्हें एक व्यक्ति के विरुद्ध वोट डालने के लिये घेरा जाता रहा। मजेदार बात है कि ये काम वे लोग कर रहे हैं जो आज तक सेकुलरवाद के गद्दी नशीन आयातुल्ला बने हुए थे। बात-बात पर मोमबत्तियां जलाना, हिन्दू आतंकवाद के जुमले गढ़ना, पाकिस्तान से बार-बार अपमानित और रक्तरंजित होते हुए भी ट्रेक-2 डिप्लोमेसी के मायाजाल में करांची, लाहौर और इस्लामाबाद की तरफ अमन की पाखंड यात्रायेें करना, अखबार, चैनल और अन्य मीडिया में गुलाग और साइबेरियां बनाकर सुनिश्चित करना कि नरेन्द्र मोदी और हिन्दुत्व समर्थकों के बारे में कुछ भी सकारात्मक न प्रसारित हो, कहीं भी इन हिन्दुत्व समर्थकों को राजकीय कार्यक्रमों में या तो आमंत्रित न किया जाये या उन्हें सम्मान न मिले-जिनकी खासयितेें रहीं हैं, वे आखिरी कोशिश के उस भयावह दौर में आ गये थे, जहां हार से बचने के लिये कुछ भी करना और किसी भी सीमा तक जाना जायज मान लिया जाता है।

इनके लिये कोई गंदगी-गंदगी नहीं, साम्प्रदायिक फिरकापरस्ती अब इनका सेक्युलर रक्षा कवच है और पराजय को शालीनता से स्वीकार न करते हुए अभद्रता से अस्वीकार करना इनके मन की बौखलाहट बताता है।

पूरा चुनाव एक नेता की जीत-हार का मामला जैसा बना दिया था। आर्थिक विकास, भ्रष्टाचार, गरीबी, महिला सशक्तीकरण, सरहद की सुरक्षा और सैनिक का सम्मान हमारे मुख्य मुद्दे होने चाहिये थे। इनको उठाया भी गया लेकिन भ्रष्टाचार, महंगाई और आर्थिक विकास की स्थिति पर चर्चा से कतराकर हिन्दु-मुस्लिम तथा गुजरात के दंगों पर राष्ट्रीय बहस को घसीट लाने से किसे राहत मिली और किसे लाभ हुआ?

प्रियंका गांधी के लिये भारत और विश्व परिवार तक ही सीमित है। वरना वे राहुल के अलावा किसी और कांग्रेसी नेता की सहायता के लिये एक चुनाव प्रचार के लिये क्यों नहीं गयीं? वे बार-बार कहतीं हैं- और यह बात अवश्य कहनी चाहिये कि बड़ी भद्रता और परिपक्वता से बात रखती हैं कि कभी मेरे पिता की आलोचना की जाती है तो कभी मेरे भाई की। पर वे कांग्रेस द्वारा नरेन्द्र मोदी के विरूद्ध छेड़े गये घटिया व्यक्तिगत आक्रमण पर खामोश रहती हैं। शुरूआत किसने की थी? ज़हर की खेती, नपुंसक, हिटलर जैसे शब्द किसने इस्तेमाल किये?

यह उस प्रभुताशाली अति धनिक वर्ग की मानसिकता है जो दूसरों की आलोचना करना अपना हक मानता है लेकिन अपनी आलोचना करने वालों को देश का दुश्मन बना देता है। इनके लिये इनका अस्तित्व देश के अस्तित्व से बड़ा होता है। दूसरों की बात छोड़ दीजिये। कांग्रेस के जो सबसे सफल गैर खानदानी प्रधानमंत्री हुए, जिन्होंने आर्थिक सुधारों की शुरूआत की, उन नरसिंह राव को चुनाव प्रचार में एक बार भी याद नहीं किया गया और न ही उनके आर्थिक सुधारों की मनमोहन सिंह ने चर्चा की। यानी जो खानदान का नहीं वो सफल होते हुए भी इनका नहीं हो सकता।

लोकतंत्र भद्रता का संविधान है, अराजक अपशब्दों का अपशगुन नहीं। जिसे अपनी शक्ति पर भरोसा है, वह कभी भी दूसरे पर घटिया वार नही करेगा। शत्रु के विरूद्ध भी ओछे शब्दों का उपयोग नहीं करेगा। जो अटल जी की पाठशाला में पढ़े हैं, वे यह जानते हैं।

वे यह जानते हैं कि आज नरेन्द्र मोदी चुनाव के पहले ही इसलिए जीते हुए लगते थे क्योंकि उनकी बातों के दम से जनता को भरोसा मिलता है। पाकिस्तान भी उनकी बातों से बौखलाया हुआ है क्योंकि उसे लगता है कि मोदी वाली दिल्ली दबकर समझौता नहीं करेगी। पहली बार किसी नेता ने चीन और पाकिस्तान दोनों को चेतावनी देने की हिम्मत दिखाई, पहली बार किसी ने कश्मीर के हिन्दुओं पर जेहादी साम्प्रदायिक अत्याचार की बात उठाई और पहली बार किसी नेता के व्यक्तित्व ने चुनावों के परिदृश्य को ही अपनी उपस्थिति से बदल दिया।

एक बात और है कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की शाखा में शिक्षित और संस्कारों में दीक्षित दो प्रचारक भारत के प्रधानमंत्री बने हैं। एक थे अटल बिहारी वाजपेयी जिन्होंने भारतीय राजनीति में नये कीर्तिमान स्थापित किये और दूसरे प्रचारक हैं नरेन्द्र मोदी जो नये मानक स्थापित करेंगे।

जो इस केसरिया ज्वार के समर्थक हैं वे भी बहुत बड़ी महत्वकांक्षाएं कुछ संयम के साथ पोटली में बांधे रखें। चुनौतियां बढ़ने ही वाली हैं, कम नहीं होगी और बाहर की अपेक्षा भीतर की चुनौतियां, अपेक्षाओं की सुनामी के खतरे और निजी सपनों की गठरियों के द्वेष-विद्वेष 16 मई के बाद का रास्ता कठिनतर ही बनाने वाले हैं। लेकिन जो पिछले दस वर्षों के विश्वस्तरीय एकजुटता के घृणामूलक आघातों, आक्रमणों एवं दंशप्रहारों की सतत् अग्नि परीक्षा पार करते हुए काशी विश्वनाथ की नगरी का अभूतपूर्व आशीर्वाद लेने में सफल हो गया वह आगे क्योें न सफल होगा? तय केवल इतना है कि बडी जात वालों के अहंकार को तोडने का सिलसिला एक नये मुकाम तक पहुंचा है और जिन्हें हर जगह, हर प्रकार से अस्पृश्य माना जाता रहा अब वे ही लालकिले से तिरंगा फहराने बढ रहे हैं। यह भी एक वैचारिक जाति तोडक आन्दोलन का नया पक्ष है। स्वीकार कर लीजिये।

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