कांग्रेस मुक्त भारत दल

‘कांग्रेस मुक्त भारत दल’ की संचालन समिति वाले कई बार वहां गए, पर राहुल बाबा से भेंट नहीं हुई। इससे उनका निश्चय और द़ृढ़ हो गया कि जब बाबा देश को ‘कांग्रेस से मुक्त’ कराने में इतनी रुचि ले रहे हैं, तो चाहे एक महीना लगे या एक साल, पर अध्यक्ष हम उन्हें ही बनाएंगे, किसी और को नहीं।

कोई भारत को धार्मिक देश कहता है, तो कोई सांस्कृतिक। कोई इसे अर्थप्रधान बताता है, तो कोई बलप्रधान। कोई सांप और सपेरों का देश कहता है, तो कोई ज्ञानियों का; पर मेरी विनम्र राय इस बारे में बहुत स्पष्ट है कि ‘मेरा भारत महान’ एक राजनीति प्रधान देश है। यहां कितने राजनीतिक दल हैं, शायद चुनाव आयोग को भी ठीक से पता नहीं होगा। हर चुनाव से पहले नए दल बनते और बिगड़ते हैं। इस हिसाब से भारत को राजनीतिक दल की बजाय राजनीतिक दलदल वाला देश कहना शायद अधिक ठीक रहेगा।

आप पूछेंगे कि ये दल बनते और बिगड़ते कैसे हैं? तो हर दल में कई तरह के नेता होते हैं। दूसरे शब्दों में कहें, तो नेताओं के जमघट को ही राजनीतिक दल कहते हैं। नेताओं के पास विचारधारा हो या नहीं; पर एक ठोस विचार जरूर होता है। और वह है, किसी भी तरह, किसी को भी छोड़कर या जोड़कर, धमकाकर या पटाकर, हाथ जोड़कर या पैर पकड़कर, सिर पर चढ़कर या सिर तोड़कर.. सत्ता की मलाई में थोड़ी भागीदारी करना। बस इसी के लिए ये दल बनते और बिगड़ते हैं।

राजनीतिक दल के लिए और कुछ हो न हो, नेताओं का होना बहुत जरूरी है। दोनों एक-दूसरे के पर्याय हैं। दोनों का अस्तित्व एक-दूसरे पर ही निर्भर है। जैसे जल से कमल और कमल से जल की शोभा होती है। ऐसे ही नेता और दल एक-दूसरे की शोभा बढ़ाते हैं।

कुछ नेता छोटे होते हैं और कुछ बड़े। कुछ बैठे होते हैं और कुछ खड़े। कुछ नेता लेटे भी होते हैं। किसी ने लिखा है, “ये बड़े बाप के बेटे हैं, जब से पैदा हुए हैं लेटे हैं।” कुछ खानदानी नेता इतने बड़े होते हैं कि उन्हें देखने के चक्कर में टोपी ही गिर जाती है। कुछ इतने छोटे और गहरे होते हैं कि दूरबीन से ही दिखाई देते हैं।

लेकिन एक दल में इतने नेताओं को समायोजित करना भी बड़ी समस्या है। पहले तो एक अध्यक्ष, दो उपाध्यक्ष, एक महामंत्री, तीन मंत्री, कोषाध्यक्ष और चार-छह सदस्य मिलकर दल को चला लेते थे; पर आजादी के बाद देश की जनसंख्या तेजी से बढ़ी। उसी अनुपात में दल और नेता भी बढ़े। ऐसे में इतने नेताओं को काम में लगाना एक कठिन बात हो गई।

ये समस्या किसी एक दल की नहीं थी। छूत के रोग की तरह सब जगह यह बीमारी तेजी से फैल रही थी। अत: राजनीतिक विरोध के बावजूद सभी दलों के बड़े नेताओं ने मिलकर इसके लिए रास्ता निकाला। अध्यक्ष, महामंत्री और कोषाध्यक्ष तो एक रखना संस्थागत मजबूरी ठहरी; पर उसके आगे कौन रोकता है? इसलिए हर दल की केन्द्रीय समिति में 25-30 उपाध्यक्ष, 40-50 मंत्री और सौ से ऊपर सदस्य होने लगे। फिर संसदीय बोर्ड, स्टियरिंग कमेटी, पोलित ब्यूरो और मार्गदर्शक मंडल बने। राजनीतिक दल न हुए शंकर जी की बारात हो गई, जहां सृष्टि में पाया जाने वाला हर तरह का प्राणी उपस्थित था।

लेकिन समस्या फिर भी समाप्त नहीं हुई। क्योंकि अब भी बहुत से नेता बच रहे थे। उनमें से कई दोधारी तलवार जैसे थे। जिन्हें काम दें, तो मुसीबत; और न दें, तो परेशानी। नेता जी की गाड़ी पर कोई नामपट न हो, तो फिर वो नेता कैसा? पार्टी में बनाए रखने के लिए सबको खुश करना भी जरूरी था। इसलिए सभी दलों के संकटमोचक नेता फिर बैठे। चिंतन और मंथन शुरू हुआ।
कहते हैं कि चार समझदार लोग सिर जोड़कर बैठें, तो समाधान निकलता ही है। अत: एक रास्ता और खोजा गया। इसके अनुसार हर दल में डॉक्टर और वकील, महिला और छात्र, व्यापारी और कर्मचारी, मदारी और जुआरी, दलाल और अपराधी, अल्पसंख्यक और अति अल्पसंख्यक, किसान और मजदूर, अनुसूचित जाति और जनजाति, शिक्षित और अशिक्षित, अमीर और गरीब..जैसे कई मोर्चे बनाए गए। यह तो गनीमत थी कि पशु-पक्षी वोट नहीं देते, अन्यथा उनके लिए भी मोर्चे बन जाते। फिर चीन और अमेरिका से लेकर कुस्तुन्तुनिया जैसे देशों के लिए प्रकोष्ठ बने। सैकड़ों नेता इन मोर्चों और प्रकोष्ठों में समायोजित हो गए।

लेकिन नेताओं की संख्या मानो ‘शैतान की आंत’ हो गई, जो खत्म होने का नाम ही नहीं ले रही थी। कितनों को भी काम में लगाएं, फिर भी कुछ न कुछ नेता बच ही रहे थे। आखिर पार्टी के बड़े नेताओं ने हाथ जोड़ दिए कि अब जो बचे हैं, वे प्रतीक्षा करें, उन्हें अगले साल समायोजित करने का प्रयास करेंगे।

इससे बाकी बचे नेता भड़क गए। यदि उनके नाम के साथ कोई ‘पूंछ’ नहीं होगी, तो अगले चुनाव में उन्हें कौन पूछेगा? उन्होंने बड़े नेताओं पर खूब गुस्सा निकाला; पर इसके सहारे भी कब तक बैठे रहते? अत: ऐसे ‘बेरोजगारों’ ने अलग से एक बैठक की।
बैठक की अध्यक्षता जिसने की, वे दो बार लोकसभा, तीन बार विधान सभा और चार बार पंचायत चुनाव में जमानत गंवा चुके थे। गहन चिंतन के बाद निष्कर्ष ये निकला कि चूंकि अब कोई दल हमें काम देने को तैयार नहीं है, इसलिए हम अपना एक अलग दल बनाएंगे।

दल के नाम के बारे में कई विचार आए। अंतत: यह निश्चय हुआ कि इन दिनों देश भर में ‘कांग्रेस से मुक्ति’ की हवा चल रही है। इसका लाभ उठाने के लिए दल का नाम ‘कांग्रेस मुक्त भारत दल’ रखा जाए। यह भी तय हुआ कि इस अभियान में सबसे प्रभावी भूमिका इन दिनों राहुल बाबा निभा रहे हैं। असम से लेकर बंगाल, केरल और तमिलनाडु तक उन्होंने इसके लिए जो पसीना बहाया है, उसका कोई मुकाबला नहीं है। इससे पहले कि कांग्रेस वाले उन्हें अध्यक्ष बनाएं, हम उन्हें अपने दल में ये जिम्मेदारी दे दें।

पर राहुल बाबा तो वहां थे नहीं। अत: दल की संचालन समिति ने उनसे मिलकर यह आग्रह करने का निश्चय किया। शाम को वे उनके घर पहुंचे, तो दरबान ने यह कहकर दरवाजे पर ही रोक दिया कि बाबा इस समय अपने कुत्तों से खेल रहे हैं। उन्हें कांग्रेस वालों से ही मिलने की फुर्सत नहीं है, आपसे तो वे क्या मिलेंगे?

‘कांग्रेस मुक्त भारत दल’ की संचालन समिति वाले कई बार वहां गए, पर राहुल बाबा से भेंट नहीं हुई। इससे उनका निश्चय और द़ृढ़ हो गया कि जब बाबा देश को ‘कांग्रेस से मुक्त’ कराने में इतनी रुचि ले रहे हैं, तो चाहे एक महीना लगे या एक साल, पर अध्यक्ष हम उन्हें ही बनाएंगे, किसी और को नहीं।

चलते-चलते: अभी-अभी पता चला है कि संचालन समिति के आग्रह पर राहुल बाबा ने ‘कांग्रेस मुक्त भारत दल’ का अध्यक्ष पद स्वीकार कर लिया है। बधाई हो।

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