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नथुराम गोडसे को जिंदा रखना कांग्रेस की मजबूरी

नथुराम गोडसे को जिंदा रखना कांग्रेस की मजबूरी

by अमोल पेडणेकर
in अक्टूबर-२०१६, व्यक्तित्व, सामाजिक
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गांधी हत्या का झूठा लांछन संघ पर मढ़ने का खेल पंडित नेहरू से लेकर राहुल गांधी तक चल ही रहा है। क्योंकि, गोडसे को जिंदा रखना कांग्रेस की मजबूरी है। गोडसे को संघ की वैचारिक पहचान से जोड़ना कांग्रेस की अनिवार्यता बन गई है। इसी कारण कांग्रेस के साथ अन्य हिंदू-विरोधी लोग समस्त हिंदुत्ववादी विचारधाराओं को आरोपी के कठघरे में खड़ा करने का निरंतर प्रयास करते हैं।

राहुल गांधी आखिर पलट गए। उनकी यह बंदरकूद संघ पर उनके बचकाने आरोप को लेकर है। उनका आरोप था कि गांधीजी की हत्या संघ के लोगों ने की है। महाराष्ट्र के विधान सभा चुनावों के दौरान भिवंडी में हुई एक सार्वजनिक सभा में उन्होंने यह बयानबाजी की थी। उनका यह बयान चूंकि संघ की प्रतिष्ठा पर आंच लाने वाला था, इसलिए भिवंडी के वरिष्ठ कार्यकर्ता राजेश कुंटे ने राहुल गांधी के खिलाफ मुकदमा दायर किया था। अदालत ने राहुल को इस बयान पर कड़ी फटकार लगाई और फर्माया कि या तो इस बयान को लेकर वे माफी मांगे अथवा मुकदमे को झेलने के लिए तैयार रहे। इस फटकार के बाद उनमें गैरमौजूद भाषाविद् अचानक अवतीर्ण हुआ। अपने भाषण में अपने दो शब्द भी न जोड़ने वाले और प्राप्त लिखित व याद किया भाषण पढ़ने वाले राहुल गांधी ने भाषा की बाल की खाल उखाड़ना शुरू किया। उन्होंने कहा, ‘मैंने कब कहा कि गांधीजी की हत्या संघ ने की है? मैंने यह कहा कि गांधीजी की हत्या संघ के कुछ लोगों ने की है?’ इस बंदरकूद के बाद अदालत से बाहर आते ही मीडिया को बाइट्स देते हुए उन्होंने कहा कि ‘मैंने अपना बयान नहीं बदला है। मैं अपने हर शब्द पर कायम हूं।’ राहुल गांधी के भाषण का आपत्तिजनक वाक्य, अदालत में दिया गया जवाब तथा अदालत के बाहर मीडिया के समक्ष किया गया बयान इन तीन तरह की बंदरछलांगों ने भारतीय जनता का काफी मनोरंजन ही किया है। राहुल गांधी की इस उछलकूद से साबित हो गया है कि वे वाकई कांग्रेस के नेता हैं और सुविधानुसार सिद्धांतों को बदलने, इस उंगली की थूक उस उंगली पर करने, व्यक्तिगत स्वार्थ साधने में लगे रहने की कांग्रेस नेताओं की संस्कृति उनमें भी उसी तरह मौजूद है।

राहुल गांधी की प्रचार सभा में, अदालत में और अदालत के बाहर जो शाब्दिक कसरतें चल रही हैं इससे चावी भरी गुड़िया की तरह दूसरों के इशारों पर चलने वाले की क्या हालत होती है इसका राहुज गांधी के रूप में अनुभव पूरे देश को हो रहा है। देश के इतिहास, वर्तमान की कोई जानकारी न रखने वाले और केवल किसी घराने में जन्म लेने के कारण नेता के रूप में फुदकने की राहुल गांधी की अभिलाषा स्वयं उन्हें ही संकट में डाल रही है। लिखकर दिया गया और याद किया गया भाषण ठोक देने पर अदालत में सज़ा होने की नौबत आ सकती है इसका बेहतर उदाहरण तोताराम राहुल गांधी है।

सर्वोच्च न्यायालय ने राहुल गांधी को फटकार लगाई है कि ‘गलत बयान देने पर माफी मांगे अन्यथा मुकदमा झेलने के लिए तैयार रहें।’ इससे स्पष्ट है कि आधा फैसला तो अदालत पहले ही दे चुकी है। फिर भी उधार का जोश लेकर राहुल गांधी एवं कांग्रेस की मंडली अक्ल के तारे तोड़ रहे हैं। वे कहते हैं कि, ‘हम अदालत में राहुल गांधी का बयान सही है, यह साबित कर देंगे।’ 131 वर्ष की ऐतिहासिक कांग्रेस फिलहाल सशक्त नेतृत्व के अभाव और घरानेशाही के चक्रव्यूह में फंसी होने के कारण अब नेतृत्वशून्य अवस्था में है। फलस्वरूप, इतनी प्रदीर्घ परम्परा रखने वाली कांग्रेस का नेतृत्व अज्ञानी, इतिहास की शून्य जानकारी रखने वाले, अपरिपक्व, पैतृकता के कारण आगे बढ़ाए गए नेताओं के हाथ में पहुंच गया है। इसी कारण इस तरह का ढुलमुल नेतृत्व राजनीति में अपने पैर जमाने के लिए संघ पर हमेशा झूठे एवं बेबुनियाद आरोप तुच्छ स्वार्थवश करते रहता है। यह एक तरह से राजनीतिक, सामाजिक पाप ही है और राहुल गांधी को इस पाप की सजा भारतीय जनता चुनावों में एक तरह से दे ही चुकी है। राहुल गांधी ने संघ को महात्मा गांधी की हत्या से जोड़ कर एक तरह से राजनीतिक आत्महत्या ही की है। कांग्रेस के उपाध्यक्ष राहुल गांधी के इस छिछोरेपन व अज्ञान के कारण 2014 के लोकसभा चुनावों में कांग्रेस को शर्मनाक पराजय झेलनी पड़ी। कांग्रेस का स्वरूप एक क्षेत्रीय दल जैसा भी नहीं रह गया है।

महात्मा गांधी की हत्या का दोष संघ पर मढ़ कर संघ को बदनाम करने का तरीका पंडित नेहरू से लेकर राहुल गांधी तक सभी छोटे-बड़े कांग्रेस नेताओं ने अपनाया है। पंडित नेहरू ने तो संघ को कुचल देने की ठान ली थी। वे कहते थे, ‘हम संघ को कुचल देंगे।’ गांधीजी की हत्या में किसी तरह का सम्बंध न होते हुए भी उसे संघ पर ढकेलने की दृष्टि से उन्होंने संघ पर पाबंदी लगा दी थी। लेकिन पुलिस जांच, अदालती जांच और सुनवाई में संघ का दूर-दूर तक भी कोई सम्बंध सिद्ध नहीं हो सका। इसी कारण संघ पर पाबंदी उठानी पड़ी थी। लेकिन इसके बावजूद कांग्रेस नेता, वामपंथी विचारकों एवं अन्य विरोधियों को संतोष नहीं हुआ था। संघ को इस भीषण मामले में लपेटने की कोशिश खत्म नहीं हुई थी। 1966 में तत्कालीन प्रधान मंत्री इंदिरा गांधी ने गांधी हत्याकाण्ड की जांच के लिए सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश जे.एन.कपूर के जांच आयोग की पुनः नियुक्ति की। संघ को कुचल देने का सपना देखने वाले पंडित नेहरू को अपने जीवनकाल में जो सिद्ध करना संभव नहीं हुआ, उस नेहरू के सपने को पूर्ण करने के लिए उनकी कन्या इंदिरा गांधी ने कपूर आयोग गठित कर संघ पर गांधी हत्या का दोष मढ़ने का फिर एक बार प्रयास किया। कपूर आयोग ने अपनी रिपोर्ट में निष्कर्ष दिया कि, “संध का गांधी हत्या से अथवा उससे जुड़े किसी मामले से कोई सम्बंध नहीं है। गांधीजी की हत्या के बाद संघ पर पाबंदी लगाई गई। इसलिए यह न माना जाए कि गांधीजी की हत्या संघ के लोगों ने की है। तत्कालीन सरकार जो मान रही थी, वह गलत था।” इस आयोग की जांच से भी गांधीजी की हत्या से संघ का कोई सम्बंध नहीं था, यही बात उजागर हुई है।

गांधीजी की हत्या के मामले की जो जांच की गई, न्यायालय में जो मामला चला, फिर आयोग गठित कर पुनर्जांच की गई लेकिन इन सभी में संघ का किंचित भी सम्बंध दिखाई नहीं दिया। वैसा वह मामूली भी साबित हो जाता तो नेहरू, इंदिरा गांधी और संघ विरोधी लोग संघ को बदनाम करने, संघ खत्म करने और कुचल देने का अवसर किंचित भी नहीं खोते। इन सब बातों के बावजूद अपने राजनीतिक स्वार्थ के लिए, दुष्टतापूर्वक गांधी हत्या का संघ से सम्बंध जोड़ने की उबकाई कांग्रेसियों को आए बिना नहीं रहती। कांग्रेस को लगभग यह शौक ही जड़ा है। आम भारतीय का मन क्षुब्ध हो इस तरह की घटनाओं में गांधी हत्या का शुमार है। अतः जिस घटना से समाज मन क्षुब्ध हो, ऐसी घटना के लिए संघ को जिम्मेदार ठहरा कर संघ को लोकक्षोभ का बलि चढ़ाना संघ-विरोधियों का प्रिय शौक रहा है। लेकिन ये सारे प्रयास असत्य पर आधारित होने तथा दृष्टबुद्धि से प्रेरित होने के कारण कभी सफल नहीं हुए हैं।

गांघी हत्या को लेकर नथुराम गोडसे की निश्चित क्या भूमिका थी, उसके विचार क्या थे इसकी अपेक्षा गोडसे की यह करतूत निश्चित रूप से निंदनीय ही थी, इसे समझना चाहिए। विचारों का मुकाबला विचारों से ही किया जाना चाहिए। भारतीय जनमानस मूलतया लोकतंत्र का पक्षधर है। इस तरह की हिंसा इस जनमानस को किसी भी स्थिति में स्वीकार नहीं होती। इसीलिए नथुराम गोडसे ने महात्मा गांधी पर गोलियां चलाईं, यह बात भारतीय जनमानस किसी तरह सहन नहीं कर सकता। भारतीय समूह-मन की मानसिकता अच्छी तरह से जानने वाले चालाक राजनीतिज्ञ इसी कारण भारतीय जनसमूह को अस्वस्थ करने के लिए गांधी हत्या का लांछन संघ पर लगाने का निरंतर प्रयास करते रहते हैं। वास्तव में नथुराम गोडसे खत्म हुआ एक पुराना अध्याय है। उसे आज कुरेदने की कोई आवश्यकता भी नहीं है। जब कभी संघ परिवार का कोई सामाजिक, राजनीतिक व अन्य क्षेत्रों में कार्य जनमानस पर प्रभावी होने लगता है तब ये सारी संघ-विरोधी लोग महात्मा गांधी का विषय कुरेद कर निकालते हैं और उसका सम्बंध संघ से जोड़ने का झूठा प्रयास करते हैं। किसी तरह का सबूत न होने के बावजूद संघ, भाजपा पर गांधीजी के हत्यारे की मुहर लगा देते हैं और भारतीय जनमानस का बुद्धिभेद करने की कोशिश करते हैं।

नरेंद्र दाभोलकर, कलबुर्गी एवं पानसरे की हत्याएं हुईं। गली-मुहल्ले से लेकर दिल्ली तक सभी संघ-विरोधी संघ के नाम से फौरन चिल्लाने लगे। प्रत्यक्ष जांच होने पर सचाई अलग ही सामने आई। अब आम जनता को इन संघ-विरोधियों के चिल्लमपो, आरोपों, संघ को बदनाम करने के प्रयत्नों की इतनी आदत हो चुकी है कि अब ऐसे बयानों का लोगों पर किंचित भी असर नहीं होता। फिर भी गांधी हत्या का दोष संघ पर मढने का खेल चल ही रहा है। गोडसे को जिंदा रखना कांग्रेस की मजबूरी है। गोडसे को संघ की वैचारिक पहचान से जोड़ना कांग्रेस की अनिवार्यता बन गई है। इसी कारण हिंदू-विरोधी लोग समस्त हिंदुत्ववादी विचारधाराओं को आरोपी के कठघरे में खड़ा करने का निरंतर प्रयास करते हैं। यह बड़ा आसान रास्ता है। गोडसे से लेकर सावरकर, फिर सावरकर से फिसलते हुए संघ और संघ-परिवार पर उलट कर अगला मकाम भाजपा होता है। इस तरह कांग्रेस, वामपंथी, तथाकथित सेक्युलर व संघ-विरोधियों की बौद्धिक यात्रा अंतिम पड़ाव पर पहुंचती है। गांधी हत्या मामले में अदालत का फैसला, तर्क, सबूतों का विचार ये स्वार्थी तत्व नहीं करते और करेंगे भी नहीं।

सत्ता हथियाने के लिए चाहे जो करने के लिए तैयार कांग्रेसी, कुछ भी हो परंतु संघ, भाजपा, हिंदुत्व के नाम पर चिल्लाने वाले वामपंथी और प्रबोधन के नाम पर टीआरीपी और बिक्री बढ़ाने वाले शातिर प्रचार माध्यम जानबूझकर लोगों का बुद्धिभेद कर रहे हैं। राहुल गांधी ने जब गांधी-हत्या का आरोप संघ पर किया तब बड़े-बड़े अक्षरों में और बढ़चढ़कर राहुल के बयान को छापने व जारी करने वाले अखबार एवं चैनल अब राहुल गांधी के पलट जाने पर छोटी-सी खबर किसी कोने में दे देते हैं। राहुल गांधी के पलट जाने का उनके हिसाब से कोई महत्व नहीं है या गांधी-हत्या से संघ का सम्बंध नहीं है यह बताने की ईमानदारी उनमें नहीं है? कुछ भी हो किंतु संघ का विरोध करने की ही इन लोगों ने ठान रखी है।

कांग्रेसियों का महात्मा गांधी के प्रति स्नेह एवं नथुराम गोडसे का तिरस्कार कितना दिखावटी है इसका अनुभव समय-समय पर आ चुका है। गांधीजी और अहिंसा इन दोनों बातों को कांग्रेसी कब की तिलांजलि दे चुके हैं। गांधीजी के विचारों के प्रभाव के कारण साठ साल तक सत्ता भोगने वाली कांग्रेस ने गांधी-विचार कब से कचरे के कोने में ढकेल दिए हैं। गांधीजी के सपनों का भारत, स्वदेशी का आग्रह, ग्राम विकास, स्वयंपूर्ण भारत जैसे विषयों को किसने तिलांजलि दी? गांधीजी की हत्या को लगातार पूंजी बनाने वाले कांग्रेस के लोगों ने ही न? कांग्रेस की वैचारिक हत्या किसने की, कांग्रेस ने ही न? वास्तविकता की धरातल पर आकर विचार करें तो दिखाई देगा कि गांधीजी ने भारतीय संस्कृति, जीवन-मूल्य हमारे समाज में कायम करने की ताउम्र कोशिश की। ये सारे मूल्य कांग्रेसी सुविधानुसार भूल चुके हैं। लेकिन, संघ और संघ- विचार से प्रेरित हजारों उपक्रमों में भारतीय संस्कृति के ये तत्व कायम करने का प्रयास हजारों संघ कार्यकर्ता समर्पित भाव से कर रहे हैं। स्वदेशी, समरसता, सेवा, स्वच्छता, अहिंसा जैसे अनेक तत्वों को संघ लागू कर रहा है। इससे जनमानस में भारतीय मूल्य कायम करने का प्रयास संघ स्वयंसेवक विविध क्षेत्रों में कर रहे हैं।

संघ एवं गांधीजी हमेशा एक-दूसरे के विरोध में रहे, यह जानबूझकर पैदा किया गया भ्रम निर्मूल कर देना चाहिए। रा.स्व.संघ के आद्य सरसंघचालक डॉ.हेडगेवार का भी गांधीजी को विरोध नहीं था। 1934 में वर्धा में संघ शिविर में गांधीजी आए थे। गांधीजी ने संघ को प्रखर राष्ट्रवादी संगठन के रूप में विशेष रूप से संबोधित किया था। गांधीजी के असहयोग आंदोलन में डॉ.हेडगेवार भी सहभागी हुए थे। संघ को गांधी राष्ट्रपिता के रूप में स्वीकार नहीं थे, संघ को गांधीजी के कुछ सिद्धांत मान्य नहीं थे, फिर भी वे संघ के लिए प्रातः-स्मरणीय हैं। गांधीजी के त्याग, सामान्य जीवन, सेवाभाव एवं समर्पित कृतिशील उच्च आदर्श आदि बारे में संघ को सदैव आदर ही रहा है। 1946 में एक संघ शिक्षा वर्ग में श्री गुरुजी ने उनका विश्व-वंदनीय के रूप में उल्लेख किया था। वास्तविकता यह है कि नथुराम गोडसे आरंभ में कांग्रेस का कार्यकर्ता था। बाद में वह कुछ दिन संघ में था। संघ की नीतियां स्वीकार न होने से संघ का त्याग करने की बात उसने कही थी। बाद में वह हिंदू महासभा में गया। गांधीजी की हत्या के समय हिंदू महासभा नगण्य दल था। इसलिए हिंदू महासभा पर पाबंदी लगाना कांग्रेस के राजनीतिक हित में नहीं था। ऐसी स्थिति में इस घटना का राजनीतिक लाभ उठाने के लिए भविष्य में विशाल वटवृक्ष बनने की संभावना वाले संघ को कुचल देने की कुटिल साजिश पंडित नेहरू एवं उनके गिरोह ने रची और इस हत्या का लांछन संघ पर मढ़ दिया। संघ पर पाबंदी लगाई। गांधी हत्या का दाग संघ पर मढ़ कर संघ को बदनाम करने का विफल प्रयास पंडित नेहरू से लेकर राहुल गांधी तक सब ने किया है। कांग्रेस के अध्यक्ष रहे सीताराम केसरी ने भी संघ पर आरोप लगाए और उन्हें अंत में उन्हें माफी मांगनी पड़ी। अर्जुन सिंह ने भी इसी तरह का आरोप लगाया था। उन्हें जीवनभर अदालत की सीढ़ियां चढ़नी पड़ीं। कम्यूनिस्ट नेता एवं प्रसिद्ध स्तंभकार ए.जी.नूरानी ने ‘स्टेट्समैन’ में संघ के बारे में इसी तरह का लेख लिखा था। उन्होंने भी माफी मांगी थी। अब राहुल गांधी की बारी आई है।

चाहे चुनाव हो अथवा राष्ट्रीय हित का कोई मामला हो विकास, जनहित के किसी तरह के भी मुद्दे इन लोगों के पास न होने पर उन्हें संघ या संघ परिवार से सम्बंधित भाजपा को एक झूठी घटना में लपेटने के लिए नथुराम गोडसे याद आता है। फिर गांधी हत्या का झूठा आरोप लगाया जाता है। इन लोगों को ‘ये गांधी के हत्यारे’, ‘मुंह में राम, बगल में नथुराम’ कहने की आदत ही लग चुकी है। देश की जनता का बुद्धिभ्रम करते हुए संघ याने भीषण करतूतें करने वाला संगठन जैसी बातें जानबूझकर फैलाने का लगातार प्रयास किया जाता है। कांग्रेस के इतिहास के अज्ञानी युवराज राहुल गांधी को भी यह बचकाना आदत लग चुकी है। हिटलर के प्रचार मंत्री गोबेल्स का सिद्धांत था कि ‘लगातार झूठ बोलते रहने से वह भी सच माना जाता है’। इस सिद्धांत का कांग्रेस के नेता जानबूझकर उपयोग कर रहे हैं। मानो गांधी-हत्या कोई दुधारू गाय है। जब चाहे तब उसका अपने स्वार्थ के लिए दोहन ये लोग करते रहते हैं। यह उनकी प्रवृत्ति बन चुकी है।

इस सारे मामले से यह स्पष्ट होता है कि, संघ-विरोधी भारतीय न्याय-प्रणाली, संविधान एंव इतिहास के बारे में किस तरह का दृष्टिकोण रखते हैं। राहुल गांधी का यह मामला अब अदालत में पहुंच चुका है। अदालत को अब यह बात ध्यान में लेनी चाहिए कि गांधी हत्या के संदर्भ में संघ पर निरंतर कीचड़ उछाले जाने से ये लोग केवल संघ की ही बदनामी नहीं करते, बल्कि भारतीय न्याय-प्रणाली के बारे में अविश्वास का माहौल भी पैदा करते हैं। इसलिए इस मामले में एक बार अंतिम फैसला हो ही जाना चाहिए। शाब्दिक कवायतें, पहले पीछे हट जाना और अदालत के बाहर आते ही अपनी तिरछी पूंछ दिखाने वाले कांग्रेसियों की चालाकी के झांसे में न्यायालय को नहीं आना चाहिए। चिकनी-चुपड़ी भाषा का उपयोग कर राहुल गांधी या अन्य लोग अदालत एवं भारतीय जनता का दिशाभ्रम कर रहे हों तो इस मामले को एक बार अंतिम रूप से निपटा ही दिया जाना चाहिए। इन लोगों के झूठ, जनता का दिशाभ्रम करने की प्रवृत्ति, एक रष्ट्रभक्त संगठन को बदनाम करने की साजिश को उखाड़ फेंकना चाहिए। सत्य समाज के समक्ष आना ही चाहिए, इसलिए इस झूठे, अज्ञानी युवराज को अदालत में खींचकर इस विषय पर ध्यान केंद्रित करने के लिए महाराष्ट्र के भिवंडी के स्वयंसेवक राजेश कुंटे का अभिनंदन! जिन पर इन कांग्रेसी लोगों ने गांधी हत्या का दोषारोपण मढ़ा उन्होंने ही गांधी-विचार जीवित रखने के लिए लगातार प्रयास किए हैं। रा. स्व. संघ का कार्य सब के समक्ष है। राष्ट्रभक्ति का संस्कार देकर नागरिकों के निर्माण करना संघ-कार्य का मुख्य उद्देश्य है। इसी संघ के संस्कारों से पूर्व प्रधान मंत्री अटल बिहारी वाजपेयी, वर्तमान प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी निर्माण हुए हैं। उनके विचारों से देश आज सभी स्तरों पर विकास का नेतृत्व कर रहा है। इसी तरह लाखों, करोड़ों लोग संघ-विचारों से प्रेरित होकर समाजसेवा का कार्य कर रहे हैं। सत्य की विजय तो अंत में हमेशा ही होती है और इस मामले में वह होगी ही!
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