सांप्रदायिक राजनीति की विभीषिका

सांप्रदायिक राजनीति की विभीषिका पर शोधोपरांत प्रोफेसर डॉ. अलकेश चतुर्वेदी द्वारा लिखित एवं इतिहास संकलन समिति महाकौशल प्रांत द्वारा प्रकाशित पुस्तक “सांप्रदायिक राजनीति का इतिहास”, वर्तमान बदलते परिद़ृश्य में जनमानस के लिए अमूल्य निधि के रूप में उपलब्ध है। पुस्तक में 1857 के प्रथम स्वाधीनता संग्राम के उपरांत द्वि-राष्ट्रवाद के जन्म तथा अंग्रेजों की भूमिका का विशद् विश्लेषण किया गया है, तथा राष्ट्रीय आंदोलन एवं विभाजन के परिप्रेक्ष्य में सांप्रदायिक राजनीति के भयावह खेल एवं षड्यंत्र का साक्ष्यों के आधार पर बेबाकी से खुलासा किया गया है। कांग्रेस के जवाहर लाल नेहरू और मुस्लिम लीग के मुहम्मद अली जिन्ना के साथ उनके प्रमुख साथियों ने किस प्रकार केवल शक्ति और सत्ता की प्राप्ति के लिए राष्ट्र और स्वराज्य की हत्या का षड्यंत्र रचकर विभाजन कराकर राष्ट्रद्रोह किया है तथा हिंदू-मुस्लिम की एकता को खंडित कर मानवता को शर्मसार किया है और गांधी जी के हिंद स्वराज के सपने को चकनाचूर किया है और किस तरह उनको ठगा है, इन सब तथ्यों को डॉ. अलकेश चतुर्वेदी ने साक्ष्यों के साथ उपलब्ध कराया है।

पुस्तक में इस भ्रांत तर्क को झुठलाया गया है कि कांग्रेस के कारण अंग्रेज देश छोड़कर गये। दरअसल गांधी जी द्वारा प्रस्तावित भारत छोड़ो आंदोलन विफल हो गया था। इस आंदोलन की सारी बागडोर क्रांतिकारियों के हाथ में चली गई और सारे देश में विप्लव की ऐसी लहर दौड़ा कि अंग्रेज थर्रा उठे। गांधी जी की अहिंसा विफल हुई। पुस्तक में भारत के उच्च वर्ग की भी चर्चा है जो अपनी सुख-सुविधा, उन्नति से कुछ अधिक नहीं सोच पाते। वे 70-75 वर्ष पूर्व के लाहौर, कराची, कलकत्ता, मुम्बई में रहने वाले सम्पन्न बंधुओं जैसे ही भ्रम में जी रहे हैं। नेताओं को कोसना, अपने से निम्नवर्गीय बंधुओं के प्रति उपेक्षा रखना, आक्रामक जेहादी उग्रता से मुंह चुराना, मिशनरी ढोंग के प्रति आदर दिखाना, अपनी सद्भावना, जैसे निरंतर यह दोहराने पर कि, सभी धर्म एक हैं, झगड़े तो कुछ राजनीतिबाज कराते हैं। राजनीति में धर्म नहीं आना चाहिए आदि पर भरोसा रखना और अपने धंधे पानी में लगे रहना। इसी प्रवृत्ति से देश टूटा और लाखों मारे गए तथा करोड़ों बेघर शरणार्थी हुए। भारतीय समाज के लिए यह भी सत्य प्रतीत होता है कि जो समाज अपना इतिहास भूल जाता है वह स्वयं इतिहास बन जाता है।

इस विडम्बना पर भी चर्चा है कि भारत के मुसलमानों ने तो खिलाफत जैसे आंदोलन का भार स्वयं ओढ़ लिया और स्थान-स्थान पर जाकर अपनी छाती पीटते रहे और कहते रहे कि इस्लाम खतरे में है जबकि तुर्की ने खिलाफत को ठोकर मारकर उसे अपने देश से ही निकाल बाहर किया। अन्य सभी मुस्लिम देशों ने तो अपने पास तक फटकने भी नहीं दिया और उसे एक घिनौनी वस्तु समझा, जबकि भारत में तो राष्ट्रीय नेताओं ने उसे तन-मन-धन से समर्थन किया और इसी की परिणिती में मोपला दंगे हुए। इसी को कहते हैं, बेगानी शादी में अब्दुल्ला दीवाना। मोपला में अंग्रेजों से हारने के बाद कुंठित मोपलों ने निश्चिंत बैठे हिंदुओं पर अपना क्रोध उतारा क्योंकि उनकी द़ृष्टि में भारतीय उतने ही काफिर हैं जितने कि अंग्रेज। भारतीय, जो हिंदू मुस्लिम भाई भाई और अल्लाहो अकबर की मीठी लोरियों में सोए हुए थे, सरलता से मोपला आक्रोश के शिकार हो गए। अल्लाहो अकबर वास्तव में देश भर में खिलाफत आंदोलन का नारा बन चुका था, गांधी जी उसे भारत माता की जय से भी बढ़कर बताया करते थे।

पुस्तक में भारत विभाजन के संदर्भ में पाकिस्तानी इतिहास दर्शन पर भी चर्चा है। पाकिस्तान में प्रकाशित 3 पुस्तकें प्रमुख हैं, इनमें प्रो. अजीज अहमद के अनुसार जिन्ना हिन्दू मुसलमानों के मात्र वकील थे, न कि नेता। जब उन्होंने नेता बनने की कोशिश की तो मुस्लिमों ने उन्हें अस्वीकार कर दिया। जिस दिन उन्होंने महात्मा गांधी के समान एक इतिहास पुरुष बनने की अपनी व्यक्तिगत महत्वाकांक्षा की पूर्ति के लिए मुसलमानों का अनुयायी बनना स्वीकार किया, मुसलमानों ने उन्हें सिर माथे पर बिठाकर कायदे आजम बना दिया। नवनिर्मित पाकिस्तान का राष्ट्रपिता बनने के बाद जब उन्होंने पाकिस्तान को सेक्युलरिज़्म के रास्ते पर धकेलने की कोशिश की तो पाकिस्तान में वे उपेक्षित हो गये, अकेले पड़ गये, यहां तक कि उन्होंने अपने आखिरी दिनों में अपने चिकित्सक के सामने दुखी स्वर में कहा कि, पाकिस्तान का निर्माण मेरे जीवन की सबसे बड़ी भूल थी।

पुस्तक में अंग्रेजों और मार्क्सवादियों के विद्रुप चेहरों एवं उनके भ्रामक लेखन को भी क्षत-विक्षत किया गया है, ताकि भावी पीढ़ी सांप्रदायिक राजनीति की विनाश लीला एवं परिणाम की सच्चाई से परिचित होकर सतर्कता के साथ राष्ट्र की एकता एवं अखंडता के लिए सांप्रदायिक शक्तियों का दमन करने में सक्षम बने। गौरतलब है कि स्वतंत्रता के उपरांत सत्तारूढ़ दल ने अपने शासनकाल में कम्युनिष्टों से मिलकर सांप्रदायिक राजनीति को पल्लवित एवं पुष्पित किया है, जिसका खामियाजा अब हम भुगत रहे हैं, जिसका उन्मूलन हम सभी को मिलकर करना होगा अन्यथा रामधारी सिंह दिनकर जी ने कहा है :-
“समर शेष है नहीं पाप का भागी केवल व्याध, जो तटस्थ हैं, समय लिखेगा उनके भी अपराध”

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