विपरीत दिशाए

गांव बचपन में ही छूट गया था लेकिन भइया भाभी के कारण रिश्ता नहीं टूटा था। कुछ वर्षो तक तो वहां आना जाना नियमित रूुप से होता रहा, परन्तु पत्नी और बच्चों की अनिच्छा के कारण इधर कुछ वर्षो से बिल्कुल समाप्त हो गया था। बच्चे सभी महानगर में पले बढे; यहा के मोहल्लों और सडकों से आये गये, इस कारण उन्हे गांव की तुलना में शहर ही अपना ज्यादा लगता था।

वैसे महानगर में उसकी भी अब एक पहचान बन चुकी थी। आस-पास के लोग उसे भी उसी शहर का मानने लगे थे। शायद इसी कारण उसे कभी कभार भ्रम हो जाता कि उसका भी किसी गांव से रिश्ता है।

मित्रों ने कई बार सलाह दी कि अब तो यही कोई फ्लैट आदि लेकर बस जायें, लौटकर गांव क्या जायेंगे! उधर पत्नी और बच्चे कुछ दिनों से जिद कर रहे थे कि बगल में मकान बन रहा है उसी में से एक फ्लैट ले लिजिए। बडे बेटे ने रहस्य भी खोला कि मैं और मम्मी उसे दख आये है, आप केवल हां कर दे, बाकी दौड भांग मैं खुद कर लूंगा।

पत्नी और बच्चों की जिद्द के आगे पचंम लाल का दिल पिघल गया। फ्लैट लेने का मन बना लिया। मित्रों और शुभचिन्तकों से भी सलाह मांगीतो सभी ने शहर में ही स्थायीरुप से बसने की राय दी। गांव और शहर की सुविधाओं के तुलनात्मक आंकडे भी प्रस्तुत किये। कुछ मित्रों ने अति उत्साह में यंहा तक कह दिया कि गांव भी कोई रहने की जगह है।जब सभी की राय महानगर के पक्ष में हो गयी तो बहुमंजिली इमारत के एक फ्लैट की बात तय हुयी। पंचमलाल के एक-दो मित्रों ने फ्लैट खरीदने के लिए बैंक से बात की। सहयोग का आश्वासन मिलने के बाद प्रारम्भ में अपनी चार लाख की पूंजी की आवश्यकता महसूस हुयी। कोई भी बैंक कर्ज वर्ज तभी देगा जब अपने पास भी कुछ हो।

प्रश्न था कि चार लाख कहां लाये जायें। थोडी बहुत रकम होती तो बात और थी। फंड से भी तो इतनी रकम पूरी नहीं हो सकती थी। एक ही रास्ता दिखाई पड रहा था। वह था गांव की अपने हिस्से की जमीन बेंच कर पैसा लाया जाये। पत्नी ने तो पहले ही यही सलाह दी थी। पहले तो उसकी सलाह पंचमलाल को अच्छी नहीं लगी थी परन्तु अब वही सलाह ही पसंद भी आई। जब गांव लौटना ही नहीं तो वहां की जमीन रखने से क्या फायदा। यही सोचकर गांव में रह रहे अपने दो चार परिचितों को पत्र लिखा। गांव के कुछ नवधनाढ्यों को अपनी स्थिती सदृढ करने के लिए अच्छा मौका लगा। पंचमलाल के हिस्से की जमीन खरीदने का प्रस्ताव उनके पास भिजवा दिया। पत्र के द्वारा बात पक्की हो गयी तो पंचमलाल ने गांव आने की सूचना अपने बडे भाई के पास भिजवा दिया।

गांव पहुंचते ही पंचमलाल के भाई-भतीजे ने खुले दिल से उनका स्वागत किया। भाभी ने देवर के लिए विशेष पकवान बनाये। बहुत दिनों बाद दोनों भाई एक साथ भोजन करने बैठे तो भाभी को पुरानी बातें याद हो आयीं। बोली -‘आज दोनों भाइयों को एक साथ देखकर कितना अच्छा लग रहा है।…. भगवान करे ऐसा अवसर बार बार आये।’ भाभी कुछ ज्यादा ही भावुक हो गयी थी। पंचमलाल से सवाल किया -‘देवरानी को साथ नहीं लाये हो?’

पंचमलाल अभी तो गांव आये ही थे। बडे भाई से ठीक बात भी नहीं हुयी, फिर अपने आने का मन्तव्य कैसे स्पष्ट करते। बोले कल ही वापस लौटना है। सोचा, कि उन्हे केवल एक दिन के लिए क्या ले चलूं?

‘लौटने की इतनी जल्दी क्यों है?
‘एक दिन की ही छुट्टी मिली है? पंचमलाल ने लक्ष्य को छुपाते हुये जवाब दिया।
‘तब तो कोई बात नहीं, पर अगले बार आना तो अकेले मत आना’ भाभी ने मीठी घुडकी भी दी, ‘अकेले आओगे तो धर में घुसने नहीं दूगी।’
खाना खाने के बाद दोनों भाई आराम करने चले गये। बडे भाई हरिराम ने अपने बगल में ही एक चारपाई डलवा दी थी। थोडी देर तक दोनों मौन रहे। पंचमलाल सोच नहीं पा रहे थे कि अपनी बात को भइया के सामने कैसे रखे। वह इसी उधेड -बुन में पडे थे कि हरिराम पूछ पडे-वहां सब ठीक तो है न…?

‘हां‘ पंचमलाल ने संक्षिप्त उत्तर दिया तो बडे भाई ने सवाल किया – ‘फिर कैसे आना हुआ?’
बडे भाई के प्रश्न को सुनते ही पंचमलाल कुछ क्षण के लिए असहज हो उठे थे। कुछ देर में सहज हुये तो उत्तर दिया-‘आपके पास कुछ सहयोग के लिये आया हुं।’

पल भर के लिए हरिराम समझ नहीं पाये कि उसका छोटा भाई क्या कह रहा है, हर दृष्टि से सम्पन्न भाई को मैं क्या मदद करुंगा! पर पंचमलाल की समस्या को तो जानना ही था। कहा- बोलो, क्या बात है।’
‘भइया , मैं शहर में एक मकान लेनें की सोच रहा हुं।’ हिचकते हुए पंचमलाल ने कहा।

‘अच्छा तो है, गांव में बच्चों की पढाई ठीक से हो नही पाती, वहां एक मकान हो जायेगा तोे हम सबके लिए भी ठीकाना हो जायेगा।‘सीधे सीधे हरिराम ने अपने भाई की बातों का रहस्य जाने बिना सलाह दे दिया, तो पंचमलाल ने अवसर का उपयोग किया – ‘लेकिन उसके लिए पैसों की जरुरत है, मैं चाहता हूं कि आप मेरी कुछ मदद कर दें।’

छोटे भाई की बात सुनकर हरिराम की आंखे खुल गयी। उठकर बैठ गये। फिर बोले-‘मेरे पास पैसे कहां से आयेंगे, जो तुम्हारी मदद करुं….हां ,दो चार हजार से अगर तुम्हारा काम बनता हो तो कहो। किसी से कर्ज लेकर दूं?’ अपनी विवशता भी दर्शायी ‘बाद में अनाज बेचकर धीरे धीरे उसे चुकता कर दूंगा।‘

पंचमलाल भी उठकर बैठ गया। मौके की नजाकत को परखते हुए बोला -दो-चार हजार से क्या होगा, इससे अधिक तो भाग दौड में ही खर्च हो जायेगा।‘
‘फिर में क्या कर सकता हूं।‘ अपनी असमर्थता की पीडा को हरिराम ने प्रकट किया।
बडे भाई की असमर्थता का लाभ उठाते हुये पंचमलाल ने अपने अन्दर का प्रस्ताव प्रकट करना शुरू किया-‘ आप नाराज न हो तो एक बात कहूं।’

‘ऐसी कौन सी बात है, जिससे मैं तुमसे नाराज होऊंगा?’ हरिराम की हैसियत कहां थी कि वह साधन सम्पन्न अपने छोटे भाई से रुष्ट होता। फिर पंचमलाल इस तरह की बात क्यों कह रहा है। यही विचार कर हरिराम ने पुछा-‘बोलो, क्या बात है कि मैं नाराज होऊंगा?’

पंचमलाल जिस उद्देश्य के साथ गांव आया था उसे स्पष्ट करने का अवसर देख बोला‘ अच्छा तो नहीं लग रहा पर क्या करुं-मजबूरी है।‘
छोटे भाई द्वारा ढोंग करते देख, हरिराम को गुस्सा आ रहा था। प्रकट न कर केवल झलक दिया-‘तुम्हारी क्या मजबूरी है, मजबूरी तो मेरी है कि बाप-दादा की दी कुछ बीघे जमीन के सहारे परिवार का पेट किसी तरह पाल रहा हूं…। तुम्हारी तरह महीने तनख्वाह तो नही पाता जिस पर बाढ या सूखे का कोई असर नहीं पडता।‘

बडे भाई की बातों में अभावों की पीडा का स्पष्ट आभास हो रहा था, पर पंचमलाल उनकी पीडा का अनुभव करे या अपनी समस्या का हल तलाशे। बडे भाई के सामने सफाई दिया- तनख्वाह तो अच्छी मिलती है, पर उसके साथ साथ खर्चे भी तो जुडे हैं…. गांव तो है नही जहां जिस तरह चाहो उठो-बैठो, वहां तो अपनी पोजिशन का भी तो ध्यान रखना पडता है।‘
‘हां, यह तो है, फिर समस्या क्या है?
‘बैंक से बात किया था, वह हाउसिंग लोन देने को तैयार है।
पंचमलाल ने समस्या का हल भी ढूंढ रखा है- यह जानकर हरिराम खुश हुये। उत्साहित होकर बोले -‘बढिया तो है, उसी से ले लो। ब्याज भी कम देना पडेगा,…किसी और से लोगे तो तीन का तेरह लेगा।‘
‘लेकिन, उसके लिए मार्जिन मनी तो हमें ही देना होगा, पंचमलाल ने अंतत: अपनी समस्या सामने रख दी।’
‘कितना देना होगा?’

‘चार लाख।‘
छोटे भाई द्वारा बताई गयी राशी को सुनते ही हरिराम की आखें फैल गयी। इतनी बडी रकम को तो उन्होंने कभी एक साथ देखा भी न था, फिर छूने की बात कहां से होती! सहम कर पूछा -‘इतना पैसा कहां से लाओंगे?’
बडे भाई मन:स्थिति का लाभ उठाते हुए पंचमलाल ने अपने मन की बात प्रकट की- ‘आप अपनी स्वीकृति दे दें तो वह भी व्यवस्था हो जायेगी।‘

‘मैं क्यों नहीं चाहूंगा कि शहर में तुम्हारा अपना मकान हो?’ शंकित मन से हरिराम ने अपनी बात कह दी तो पंचमलाल ने अपने लक्ष्य से आवरण हटाया-मंगल सिंह से बात की है….वह तैयार हैं?
‘किस बात के लिए?’ अज्ञात भय की आशंका से हरिराम ने पूछा।
‘बापू के नाम से गांव में जो जमीन है, उसमें मेरा भी तो हिस्सा होगा। ….उसी को मैं बेचना चाहता हूं।‘ पंचमलाल ने रिश्तों पर से केचुल उतारते हुये अपनी बात बेझिझक ठोंक दी।
पंचमलाल की बात सुनते ही हरिराम के हृदय पर आघात हुआ। पीडा से मन कराह उठा। उसकी निर्लज्जता और ओछी सोंच का क्या उत्तर दें निर्णय नही कर पा रहे थे। हताश भी नही हुए। मन में विचार किया-‘वह छोटा है इसिलिए अच्छे -बुरे का फैसला नहीं कर पा रहा है; इसिलिए मेरा फर्ज बनता है कि उसे सही राह दिखाऊं। बोले -‘तो क्या अब तुम गांव की जमीन बेंचकर शहर में बसना चाहते हो?’

‘शहर में मकान हो जायेगा तो फिर यहां क्या करने के लिए आऊंगा!‘ पंचमलाल ने और भी स्पष्ट किया, ‘अपने हिस्से की जमीन बेंचने के बाद मेरा गांव में रह ही क्या जायेगा फिर?‘
पंचमलाल की बातों को सुनकर हरिराम कुछ देर सोंचते रहे, पर हिम्मत नहीं हारे। पुन: छोटे भाई को अपने निर्णय पर विचार करने के लिए प्रेरीत करने हेतु कहा- ‘गांव की जमीन बेचोगेतो, बाप दादा के नाम का क्या होगा…? कल से ही लोग कहना शुरू कर देंगे दोनो भाई में लडाई हो गई है इसलिए पंचमलाल गांव छोडकर जा रहा है।‘

‘भइया , आप भी पता नहीं कहां की बात लेकर बैठ गये….? आज लोग तो जीते जी बाप दादा को भूले जा रहे हैं और आप है कि उनके मरने के बाद भी उनके नामों की चिन्ता कर रहे है।‘ पंचमलाल ने अपने मन की भडास निकाली।
‘हां, पंचमलाल यही तो फर्क है, गांव और शहर की सोच में। गांव में आज भी लोग अपनी धरती को बेचना अच्छा नहीं मानते, इसिलिये इसे बाप दादा की प्रतिष्ठा से जोडकर देखते है।‘ हरिराम ने दु:खी मन से अपनी बात कही।
पंचमलाल को अपने स्वार्थ के आगे बडे भाई के सारे तर्क बेकार लग रहे थे। इसिलिए कहा- मैं ऐसी दकियानूसी बातों को नहीं मानता… पूर्वजों के नाम पर अपनी व्यक्तिगत खुशियों को न्योछावर कर दिया जाय। यह कहां की बात?’

लाख समझाने के बाद भी पंचमलाल के विचारों में वह परिवर्तन नहीं ला पायेंगे। वह अब किस अधिकार से अपने छोटे भाई को गांव की जमीन बेंचने से रोके? एक खून के रिश्ते की ही डोर बची थी जो उसे रोक सकती थी, लेकीन उसका अपना सगा भाई पंचमलाल स्वयं ही तोडकर गांव और परिवार के सभी रिश्तों से मुक्त होना चाहता है। ऐसे में वह या कोई भी कैसे रोक पायेगा ऐसा होना? यही सोचकर हरिराम ने हताश मन से अपने छोटे भाई से कहा-‘पंचमलाल, जब तुमने गांव की जमीन बेंचकर हम सबसे सारे रिश्ते समाप्त करने का मन बना ही लिया है, तो फिर मैं क्यों बाधक बनूं?, डबडबाई आंखों से रुधी आवाज में सलाह भी दिया-‘ तुम जाकर, मंगल सिह से मिलकर बात पक्की कर लो, कल रजिस्ट्री आफीस चलकर मैं भी हस्ताक्षर कर दूगां।’
इसी के साथ दोनों भाई अपनी अपनी चारपाई से उठकर विरीत दिशाओं में चल दिये। एक मन ही मन कराह रहा था लेकिन दुसरा अपने मंतव्य को फलीभूत होते देखकर परम प्रसन्न!

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