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बात कुछ भी नहीं थी मगर …..!

बात कुछ भी नहीं थी मगर …..!

by हरमन चौहान
in अक्टूबर-२०१६, साहित्य
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मैं बेबात कुछ नहीं बात होते हुए भी ज्ञानी जी से उलझ गया। ऐसे ज्ञानी आपके इर्द-गिर्द भी होंगे, आप संभलोगे? कृपया ज्ञानी जी की तरह बेबात मुझसे सवाल नहीं उठाएं, मैंने सारे उत्तर इसमें दे दिए हैं।

बात तो कुछ भी नहीं थी मगर….। रोज-रोज फालतू की बातें बाहर-घर में होती रहती हैं, इसलिए मैंने निर्णय लिया कि आज इतवार के दिन बागवानी करूंगा और घर में किसी से बात नहीं करूंगा। घर में सभी को हिदायत भी दे दी कि आज छुट्टी के दिन कोई मुझ से बात नहीं करेगा। घर में सब खुश। कौन चाहेगा आ बैल मुझे मार?

मैं नियमानुसार सरकारी नौकरों की तरह बीवी के डर से सवेरे अपने कंपाउण्ड में बागवानी करने लग गया। सोचा, आज का दिन शांति के साथ गुजरना चाहिए। इसके लिए राम जी से अगरबत्ती का धुंआ लगाकर प्रार्थना भी कर ली कि प्रभु आज मेरा दिन शांति और प्रेम से बीते। वाकई पूरा दिन शांति से गुजरा। मैंने प्रभु को बहुत-बहुत धन्यवाद दिया। सोचा, रोज-रोज बेकार की बातें होती हैं और कुछ हासिल नहीं होता है- जैसे भारत और पाकिस्तान हो। आतंकी मसला विश्व स्तर का है और मेरे घर का मसला किसी भी स्तर का नहीं होता है, इसलिए घर में मैं बेबात कोई बात ही नहीं करता। घर में पत्नी से लेकर बच्चे तक मुझसे कतराते हैं। जैसे सारे राष्ट्र ‘संयुक्त-राष्ट्र’ से कतराते हैं।

लेकिन मेरा मित्र ज्ञानदेव कभी भी, किसी से भी कतराता नहीं है बल्कि अमेरिका की तरह टकरा सकता है। अगर वह संयुक्त राष्ट्र संघ में देश का प्रतिनिधि होता तो आज हमारे देश की इमेज कुछ और ही होती। खैर, ज्ञानी जी मेरे द्वार आ धमके। औपचारिकतावश मुझे बोलना ही पड़ा-“आओ ज्ञानी जी, बहुत दिनों के बाद इधर का रास्ता पकड़ा?” जैसे बांग्लादेश, नदी के जल की समस्या पर नई दिल्ली का रास्ता पकड़ता है। मेरे और ज्ञानदेव के बीच ऐसा भी कोई मसला नहीं था, जिसकी वजह से मुझे चिंतित होना पड़े।

मेरी बात सुनकर वह बोला – “रास्ता पकड़ा? इसी बात पर मेरे साथ में अभी-अभी बेबात हादसा हो गया।” मैं घबरा कर बोला “हादसा?” वह आगे बोला – “हां, ट्रैफिक पुलिस ने पकड़ लिया। बोले कि आज वन-वे है। आप इधर से नहीं, उधर से जाइये।” यह गनीमत थी कि मैं रांग साइड होते हुए भी उसने चालान नहीं ठोका, इसलिए आपके ही इधर आना पड़ा।” वह बोला – “अब इधर तो आपका घर ही पड़ता है ना, ट्राफिक पुलिस ने इधर ही भेज दिया तो मुझे इधर ही आना पड़ा।” मैंने कहा- “बाकी तो नहीं आते ना?” वह बोला – “क्या बात कह रहे हो, अक्सर चला ही आता हूं।” मेरा मित्र ठीक ही कहता है- “अक्सर आता ही रहता है जैसे अमेरिका, रूस और चीन आदि के विदेश मंत्री भारत-पाकिस्तान आते रहते हैं।” मैंने ज्ञानी जी से पूछा – “द्वारका जाने के बाद श्रीकृष्ण जी कभी मथुरा आए कभी?” वह चौंक कर बोला- ”क्यों ताने मारते हो? यह बेकार की बात है। मैंने बात को आगे बढ़ने से रोकने के लिए हाथ मिलाते हुए कहा- “चल कर या चला कर आए, इससे क्या फर्क पड़ता है।” दोनों ने एक साथ ठहाके लगाए जैसे दो देशों के विदेशी मंत्री आपस में मिलने पर लगाते हैं।

मैंने कहा- “अब बैठ भी? प्रेम और दोस्ती में तो खींचे हुए आना ही पड़ता है।” वह बोला- “फिर वही बात? मैं क्या तुम्हारा बंधक हूं, जिसे पशु की तरह गले में फंदा डाल कर खींच कर बुला लिया। साली ऐसी फंदे वाली दोस्ती किस काम की?” मैंने अमेरिकी विदेश मंत्री की तरह ‘चित्त भी मेरी और पट भी मेरी’ समझ कर पासा फैंका- “तुम यार, दोस्ती को फंदा क्यों समझते हो, इसे तो प्रेम का कच्चा धागा समझो। राखी के बंधन की तरह तुम चले आए हो, मैं तुम्हारा शुक्रगुजार हूं।”

वह बोला- “गलत, खींच कर या बंधन से तो मैं आना पसंद नहीं करता।” मैंने कहा- “चलो छोड़ो अब यह झंझट। आओ आराम से बैठ कर प्रेम की दो बातें करें- जैसे भारत-पाक करते हैं।” वह बोला- “प्रेम क्या होता है, यह कभी तुमने जाना? तुम्हारे प्रेम के लिए भाभी बेचारी तरस गई और मैं तुम्हारी दोस्ती को तरसता ही रहा, तड़पता ही रहा। तुम बड़े बेदर्द दिलवाले हो।” मैंने कहा- “जो हूं सो हूं यार। तुम्हारी इच्छा की बात है, तुम्हारा मन किया, आ गए। यही मेरे लिए बड़ी बात है। यही तो अपना आपसी प्रेम है।” मैंने आगे बढ़ कर भारत जैसे बांग्लादेश या नेपाल की ओर बांहें फैलाता है, वैसे फैलाई। उसने नकारते हुए कहा- “गलत, मैं मेरी या आपकी इच्छा से नहीं आया हूं। मुझे तो म़जबूरन आना पड़ा जैसे बांग्लादेश-नेपाल के नेताओं को म़जबूरन भारत आना पड़ता है।

मैंने कहा- “बात कुछ भी नहीं है, फिर भी तुम बेबात की बात की राजनीति का रंग देने लगे हो?” वह चिढ़ कर बोला- “गाली मत दो। मैं यहां किसी स्वार्थ से नहीं आया हूं। मैं अमेरिकी विदेश मंत्रियों की तरह नहीं हूं जो पाक जाकर क्या कहते हैं और भारत आकर कुछ और ही कहते हैं। ऐसी दोस्ती तो मैं तुम्हें नहीं जता रहा हूं।” मैंने कहा- “भई, मान लेता हूं- अपनी दोस्ती भारत और रूस जैसी प्रगाढ़।” वह बोला- “गलत, वह हमारे राष्ट्रीय संकट के समय कभी भी काम नहीं आया, वैसे ही तुम मेरे घरेलू संकटों के समय कभी काम नहीं आए।” मैंने कहा- “यह तो मैं भी जानता हूं कि तुम मेरे कितने काम आए हो? खैर, यह सब बेकार की बातें जाने दो। दोनों का प्रेम अपनी-अपनी जगह सच्चा है। मैं तो प्रेम और सौहार्द से दोनों के हित की बात कर रहा था।” वह बोला- “गलत, तुमने आज तक किसी के हित की बात ही नहीं की, बस अपना ही स्वार्थ देखा- जैसे अमेरिका।” मैंने झुंझला कर कहा – “मान लिया भई, मैंने किसी का हित नहीं किया है तो किसी का बुरा भी तो नहीं किया है न।“ वह बोला- “भ्रम मत पालो। जब अमेरिका ने किसी का हित नहीं किया तो तुमसे कोई क्या आस रखे? मैंने कहा- “अब तुम नहीं मानो तो बात अलग है, बाकी अमेरिका के कारण कई देश पल-पनप रह हैं।” वह बोला- “जानता हूं भाभी को बताऊं कि तुम्हारे कारण कितने परिवार पल-पनप रहे हैं?” मुझे तरस आ गया, मेरे एक मित्र लालू की तरह। मैंने कहा- “ओय, अब तक मैं शांति-वार्ता की तरह पेश आ रहा था, तुम अपने मित्र ‘लालू’ को जानते ही हो, मैं अब उसकी तरह से ही तुमसे पेश आ सकता हूं। उसके पास तो आत्मबल, बाहुबल और धनबल आदि सब कुछ है, जिसके कारण तुम-हम जैसों को मुट्ठी में रखता है। मेरे पास तो ऐसा कुछ भी नहीं है, फिर भी मैं तुम्हें छठी का दूध पिला सकता हूं।” वह बोला- “रहने दो, कभी एक कप चाय फाइव-स्टार में पिलायी नहीं तो तुम्हारी क्या औकात है कि तुम मुझे छठी का दूध पिलाओगे? याद है छठी कक्षा? और पट्ठा अपने लालू के तबेले में ले जाकर दूध पिलवाता था, भूल गया क्या? और पट्ठा अपना लालू हर वक्त अपन से ही ला ऽ ला ऽ लूं ऽ लूं ऽ करता रहता था, याद है?” मैंने हार मानते हुए कहा- “मैं तुमसे हाथ जोडता हूं, माफ करो।” मैंने मन में सोचा- जरूर ट्राफिक पुलिस वाला ज्योतिष का ज्ञान रखता होगा, इसीलिए इसे दिशाशूल की तरफ मोड़ दिया।

वह अब ठंडे मिजाज से बोला- “इसमें माफ करने जैसी कौन सी बात है? कोरी बेकार की बातें किए जा रहे हो। मुझे बैठने के लिए भी नहीं कहोगे?” मैंने छटपटाते हुए कहा- “भले आदमी, आधे घंटे से कह रहा हूं। अब तुम सुनो ही नहीं तो मैं क्या करूं? तुम सरकार के खास आदमी, मैं जनता का आम आदमी। कुम्हार घर में बीवी के कान नहीं खींचता तो गधों के ही कान खींचेगा? लेकिन गधे में और दोस्त में फर्क होता है।” मैंने कहा- “मैं भी तो कब से यही कह रहा हूं। माफी भी मांग ली, अब तो बैठो आराम से? घर तुम्हारा ही समझो, पराया थोड़े ही है। इस अपना ही समझो।” वह गंभीर होकर बोला- “मेरा घर? घर मेरा है तो खाली करो, अभी इसी वक्त?” अब मैं क्या बोल सकता था? यह तो ठीक वैसे ही हुआ जैसे घर आए मेहमान को घर-मालिक ने अपने बच्चे को आगे करते हुए कह दिया कि यह आपका ही बच्चा है। मेहमान ने फट फरमा दिया- ठीक है, इसे अपनी मां के साथ मेरे घर में भी भेजो ताकि महाभारत मचे। मैं उसका मुंह ताकने लगा। मन में सोचा- कहीं यह कंबख्त चीन की तरह मेरा तिब्बत- (घर) नहीं हड़प ले? बदलते हुए कानून- कायदों के बारे में मुझे कोई जानकारी नहीं है और कई भूमाफिया कानून की आड़ में और गुण्डों के बल पर क्या से क्या नहीं करते हैं। मैं घबराया। मैंने खुद के गाल पर चांटा मार कर अपनी जीभ को बाहर निकाल कर खींचा और कोसा- यह जबान भी कहां से कहां बेबात फिसल जाती है। इसलिए मैंने अब पूरी तरह से संयम बरत कर नरमाई से बोला- “यार मेरे, तेरे सामने हाथ जोड़ता हूं, अब तो तुझे कसम है दोस्ती के नाते बैठ जा?” वह बोला- “गलत। जब तक तुम बैठे हो तब तक मैं कैसे बैठ सकता हूं?”
मैं नरमाई से बोला- “अतिथि देवो भव! बैठ जा मेरे यार।”

वह बोला- “तुम पहले यह घर खाली करोगे तब ही तो मैं चैन से बैठ सकूंगा। अब बौखलाने की मेरी ही बारी थी- “साले, यह घर तू ही रख, मैं तो चला।” वह इत्मीनान से हंसते हुए बोला- ” जरा सुन, मैं चला कर आया हूं और तू चल कर जाएगा? “मैंने कहा- “और मेरे पास चारा ही क्या? तू ही रख इस नारकीय घर को। मैं तो चला जैसे दलाई लामा जी अपने निवास से निकले। तिब्बत, जब दलाई लामा को जीते जी वापस नहीं मिल सकता तो मैं इस मकान को कौन से मित्र की शरण में जाकर वापस प्राप्त कर सकूंगा? है कोई ़जवाब?”

वह बोला- “है इसका ़जवाब मेरे पास। बुरा नहीं मानो तो एक बात कहूं, पुलिस वाले की तरह परमात्मा भी रास्ता दिखाते हैं। कठपुतली की तरह चला कर लाता है और ले जाता है। तुम अज्ञानी हो, इसीलिए हमेशा अज्ञान की ही बातें करोगे?” मुझे उस वक्त वह बहुत बड़ा ज्ञानी महात्मा लगा। मैंने कहा- “भई, मैं अज्ञानी हूं और तुम नाम के साथ ज्ञानी भी हो। यह घर तुम्हारे हवाले। बोलो अब तो कोई शिकायत नहीं?” वह बोला- “है! आज मैं जान गया कि तुम सचमुच अज्ञानी हो।” मैं बोला- “सो तो मैं हूं ही, पर ज्ञानी जी। एक बात बताओ, आज इतने रुष्ट क्यों हो?” वह खीझ कर बोला- “पत्नी ने मुझे मेरे ही घर में मुझे मूर्ख कह कर घर से निकाल दिया। अब बोलो, मैं मूर्ख हूं या ज्ञानी?” मुझे वह पत्नी पीड़ित लगा।

कालिदास और तुलसीदास के साथ अनेक साहित्यकारों की याद आ गई। मैं हार कर बोला- “ज्ञानी जी, अगर आप मेरे गुरु होते तो मैं आपके चरण पकड़ लेता। फिर भी आप ज्ञानी और मैं अज्ञानी, आपके पैर पकड़ता हूं।” मैंने ज्ञानी जी के पैर पकड़ लिए। वह बोला- “मूर्ख, बेबात की बात कर रहा है। तेरे पास तेरा मकान हड़पने के लिए नहीं आया हूं। मैं तो ट्राफिक पुलिस का शुक्रगु़जार हूं कि मुझे आज इधर बाघा-बोर्डर पर सैल्यूट देने के लिए भेज दिया है। सच बताऊं, मेरा स्कूटर मुझे दहेज में मिला हुआ है और पत्नी ने टोक दिया कि इसे मेन्टेनेंस चाहिए, इसे सुधारो।“ मैं सोच में पड़ गया कि स्कूटर को सुधारूं या अपनी पत्नी को? क्योंकि मेनटेनेंस तो दोनों ही जगह जरूरी थी। जबकि उसके समक्ष तो दोनों समस्याएं थीं। अब आप ही बताइये कि वह घर छोड़े या मैं? दोस्ती के नाते हम क्या करें? जब कि बात हमारे बीच कुछ भी नहीं थी। वह उठकर चलता बना। और मैं बेबात कुछ नहीं बात होते हुए भी ज्ञानी जी से उलझ गया। ऐसे ज्ञानी आपके इर्द-गिर्द भी होंगे, आप संभलोगे? कृपया ज्ञानी जी की तरह बेबात मुझसे सवाल नहीं उठाएं, मैंने ऊपर सारे उत्तर दे दिए हैं। यह दोस्ती का त़का़जा है।

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