शताब्दी का जश्न मनाएंगे मुठ्ठीभर कम्युनिस्ट?

छत्तीसगढ़ में केंद्रीय सुरक्षा बल के जवानों की निर्मम हत्या की हालिया घटना भी उन कम्युनिस्ट और वामपंथियों के तबाहकारी कारनामों का एक और उदाहरण है, जो देश की कीमत पर अराजकता को बढ़ावा देने में विश्वास रखते हैं। बहरहाल, घटते समर्थन को देखते हुए वो दिन दूर नहीं, जब कम्युनिस्ट और वामपंथी कुनबे की तरह नक्सलियों को भी उनकी असली जगह दिखा दी जाएगी।

भारतीय परंपरा में जीवनकाल की शताब्दी पूरी करना उत्सव के एक अवसर की तरह देखा जाता है और हमारी परंपरा को मानने वाले यह बात अच्छी तरह जानते भी हैं, उन कम्युनिस्ट के विपरीत, जिन्हें अपने अस्तित्व की शताब्दी पूरी होने की ख़ुशी से ज़्यादा आगे अपना अस्तित्व अंधकारमय होने की चिंता है। अपने अस्तित्व को बनाए रखने के लिए उन्होंने इतने सालों में दहशत और अराजकता का रास्ता अपना रखा है और उनका सबसे बड़ा हथियार है भ्रम पैदा करना, जिसमें ये लोग माहिर हैं।

हम भारत में कम्युनिस्ट के अलग-अलग गुट अलग-अलग रूपों में फैले हुए देखते हैं। इनमें से कुछ अभी भी मार्क्स पर विश्वास करते हैं, जबकि कई देशों में इन मार्क्सवादियों के लिए रास्ते बंद हैं। इसी तरह कुछ कम्युनिस्ट अभी भी उम्मीद लगाए बैठे हैं कि उनके नेता माओ या फिर एक दूसरे नेता स्टालिन के विचार अभी भी उन्हें इस बुरे दौर से उबारने में मदद करेंगे।

उधर कम्युनिस्टों का एक और गुट भी है, जो खुद को माओ के प्रसिद्ध सिद्धांत ङ्गिेुशी षश्रेुी षीेा ींहश लरीीशश्र ेष र र्सीपफ का अनुयायी होने का दावा करता है। इनकी सोच है कि अपने अधिकार बंदूक के बल पर पाए जा सकते हैं। हालांकि हकीकत में यह लोग शस्त्रबलों और आदिवासियों पर छिटपुट हिंसा के बावजूद अपने पूर्ववर्ती गढ़ में एक हारी हुई लड़ाई लड़ रहे हैं। इस तरह कुल मिलाकर भारत में कम्युनिस्ट आंदोलन की शताब्दी पूरा होने का यह अवसर बड़ा ही हताशा भरा है। उनकी आज की निराशा भरी स्थिति को समझने के लिए, हमें सालों पहले के उस दौर में चलना होगा, जब एक विशेष उद्देश्य और लक्ष्य के साथ पूरे विश्व में एक साम्यवादी कम्युनिस्ट शासन बनाने के इरादे से कम्युनिस्ट इंटरनेशनल का गठन किया गया था। भारत में भी इसके कुछ समर्थकों ने कम्युनिस्ट इंटरनेशनल के बेड़े में शामिल होते हुए भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी का गठन किया था।

एक शताब्दी बाद भी भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (उझख) और मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी उझख (च) के बीच पार्टी की स्थापना के वर्ष को लेकर एक राय नहीं बन सकी है। यह जानना बड़ा दिलचस्प है कि भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (उझख) 1920 को स्थापना वर्ष मानती है, जबकि मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ़ इंडिया उझख (च) इसे 1925 मानती है। यह भी ध्यान दिया जाना चाहिए कि भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी अपने नाम के मुताबिक भारत में गठित एक पार्टी रही है, लेकिन इसे चलाते रहे हैं यूएसएसआर में बैठे इनके आका।

हमारी आज़ादी की मुहिम के दौरान ये कम्युनिस्ट लगातार बहुत ही घटिया रवैया अपनाए रहे थे। 1942 में सोवियत यूनियन की शह पर इन्होंने भारत छोड़ो आंदोलन का विरोध किया था। हद तो यह कि इन्होंने नेताजी सुभाषचंद्र बोस को तोजो का कुत्ता तक कह डाला था। वजह यह थी कि नेता जी जापान से सहयोग की उम्मीद कर रहे थे, जबकि जापान उन दिनों अपने मालिक यूएसएसआर के खिलाफ लड़ रहा था। 1947 में इन्होंने हमारी मातृभूमि को बांटकर पाकिस्तान बनाने में मुस्लिम लीग का खुलकर समर्थन किया था। भारत को नीचा दिखाने और भारत को नुकसान पहुंचाने वाली इनकी मानसिकता आज भी उसी तरह बरकरार है।

ऐसे में यह कोई आश्चर्य की बात नहीं थी कि जब चीन ने 1962 में भारत पर हमला किया, तो कम्युनिस्टों ने उहळपरफी उहरळीारप ळी र्ेीी उहरळीारप का प्रचार शुरू करते हुए साबित कर दिया कि उनकी विचारधारा में भारत के हित और अखंडता का विशेष महत्व नहीं है।

सही मायनों में 2014 के बाद ही इस तरह की हिंसा की समाप्ति के लिए प्रभावी निर्णय लिए गए। पिछले 7 सालों में हमने इसका नतीजा भी इस रूप में देखा कि नक्सली थोड़े से क्षेत्र में सिमटकर रह गए हैं।

वर्ष 2011 में शुरू हुए पिछले दशक ने भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी और मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी की लोकप्रियता लगातार कम होती गई। पहले पश्चिम बंगाल और फिर उसके बाद त्रिपुरा उनके हाथ से निकल गया, जहां उन्होंने दशकों शासन किया था। आज की तारीख में कम्युनिस्ट चुनावी राजनीति के लिहाज से सिर्फ केरल तक ही सीमित हैं और अन्य हिस्सों में यह केवल अस्तित्व की लड़ाई लड़ रहे हैं।

2019 लोकसभा चुनाव में उनका किसी भी सीट पर जीत हासिल न करना इस बात को साबित भी करता है। इस बुरी स्थिति के बावजूद, कम्युनिस्ट अभी भी शैक्षिक संस्थानों, मीडिया हाउस, एनजीओ सेक्टर आदि प्लेटफार्मों का उपयोग कर प्रासंगिक बने रहने की कोशिश कर रहे हैं।

इतना ही नहीं, जिहादियों और कट्टरपंथियों से समर्थन लेने में भी उन्हें कोई हिचक नहीं है। इसका सबसे बड़ा उदाहरण है 2016 की वह घटना, जब उनकी स्टुडेंट् विग़ ने जेएनयू में प्रदर्शन के दौरान ‘हिंदुस्तान से आज़ादी’ का नारा बुलंद किया था और उसके बाद की घटनाओं का इस्तेमाल उन्होंने छात्रों के बीच तनाव और अराजकता फैलाने के इरादे से किया जो उनका हथियार और ढाल दोनों था। इस आयोजित ङ्गछात्र आदोंलनफ  को मोदी सरकार के ख़िलाफ़ क्रोध और जनमत संग्रह दिखाने का पूरा प्रयास किया गया।

2019 लोकसभा चुनाव के दौरान कम्युनिस्ट द्वारा भारत में फासीवाद को बढ़ावा दिए जाने का डर फैलाने के लिए ज़ोरदार अभियान चलाए गए। जाति समूहों के बीच दरार पैदा करने की साजिशें की गईं, ‘असहिष्णुता’ का मुद्दा उठाया गया। जिन पुरस्कार विजेताओं को लोग भूल चुके थे, उन्हें पुरस्कार लौटाने के लिए जुटाया गया। हालांकि लोगों ने इन्हें ‘अवार्ड वापसी गैंग’  का नाम दे डाला।

जो नक्सली पीछे हटने को मजबूर किए गए थे, उन्होंने शहरी केंद्रों में अपने समर्थकों को सक्रिय कर दिया, जिन्होंने कम्युनिस्ट/वामपंथियों से हाथ मिला कर आराजकता और हाहाकार ़फैलाने में योगदान दिया। दिखावे के लिए यह चालें अस्थिर रूप से लोकतंत्र को बचाने के लिए थीं, पर वास्तव में यह कम्युनिस्ट/वामपंथियों के बचे खुचे प्रभाव को बचाने की एक हताश कोशिश थी।

वर्ष 2019 लोकसभा चुनाव के नतीजे कम्युनिस्ट और लेफ्ट गुटों के लिए एक और बड़ा झटका था, कॉलेज परिसरों/मीडिया/एनजीओ वगैरा में अभी भी उनका इतना दबदबा था कि धारा 370 हटाए जाने पर इन्होंने आसमान सर पर उठा लिया। इसके बाद सीएए का विरोध करते हुए देश को बंधक बना लिया। गौरतलब है कि सीएए के खिलाफ सुप्रीमकोर्ट में करीब 150 याचिकाएं दाखिल की गई थीं।

एक तरफ तो ये विरोध, संविधान में निष्ठा के तौर पर पेश किए जा रहे थे, वहीं दूसरी तरफ देश की लोकतांत्रिक संस्थाओं को पंगु बनाने के हर संभव प्रयास किए जा रहे थे। कई एजेंसी की जांच में इन संगठनों और पीएफ़आई के गठजोड़ की ओर इशारा किया गया, जिससे लेफ्ट के नेताओं और तथाकथित बुद्धजीवियों की सच्चाई एक बार फिर सामने आ गई। यहां तक कि सुनियोजित दिल्ली दंगों के दौरान हिंदू समुदाय को निशाना बनाते हुए कम्युनिस्ट और लेफ्ट के नेताओं ने एक बार फिर अपनी असलियत दिखाते हुए हिंदू संस्थाओं और नेताओं को दंगों का ज़िम्मेदार घोषित कर डाला। इतना ही नही बल्कि इस मामले में भारत के बाहर से मिलने वाला समर्थन हस्ताक्षर अभियान के रूप में सामने आया और भारत को अलोकतांत्रिक देश घोषित करवाने की ज़िम्मेदारी विदेशी एनजीओ को सौंपी गई थी। छत्तीसगढ़ में केंद्रीय सुरक्षा बल के जवानों की निर्मम हत्या की हालिया घटना भी उन कम्युनिस्ट और वामपंथियों के तबाहकारी कारनामों का एक और उदाहरण है, जो देश की कीमत पर अराजकता को बढ़ावा देने में विश्वास रखते हैं। बहरहाल, घटते समर्थन को देखते हुए वो दिन दूर नहीं, जब कम्युनिस्ट और वामपंथी कुनबे की तरह नक्सलियों को भी उनकी असली जगह दिखा दी जाएगी।

 

Leave a Reply