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युग प्रवर्तक साहित्यकार नरेंद्र कोहली

युग प्रवर्तक साहित्यकार नरेंद्र कोहली

by ॠषि कुमार मिश्र
in मई - २०२१, व्यक्तित्व
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भारतीय ज्ञान, परंपरा, संस्कृति और आध्यात्मिकता से परान्गमुख साहित्यकारों के खेमें भिन्न-भिन्न मंचों से पश्चिम के अनुकरण को आधुनिकता सिद्ध करने की होड़ में ताल ठोंक रहे थे। ऐसे में नरेंद्र कोहली जी ने अपांक्तेय रहकर अपने लेखन में भारतीय पौराणिक एवं ऐतिहासिक चरित्रों के माध्यम से वर्तमान समय की गुत्थियां सुलझाते हुए आधुनिक समाज की नींव रखने में श्रेयष्कर भूमिका निभाई। साहित्य के द्वारा भारतीय जनमानस में भारतीय महापुरुषों को स्थापित करने का श्रेय कोहली जी को जाता है।

हिंदी साहित्य जगत में प्रेमचंद के बाद पाठकों का सर्वाधिक स्नेह और सम्मान पाने वाले साहित्यकार का नाम है नरेंद्र कोहली। उनका पाठक वर्ग बहुत विशाल है तथा देश-विदेश में फैला है। बड़े-बड़े राजनेताओं, बुद्धिजीवियों, उद्योगपतियों से लेकर सामान्य साहित्य प्रेमियों तक उनका साहित्य समान रूप से समादृत है। यही कारण है कि 17 अप्रैल 2021 को सायंकाल कोरोना महामारी से उनके निधन का समाचार प्रसारित होते ही हिंदी साहित्य जगत में शोक की लहर छा गयी।

नरेंद्र कोहली का जन्म 6 जनवरी 1940 को सियालकोट, पंजाब (अब पाकिस्तान) में हुआ था। उनकी प्रारंभिक शिक्षा लाहौर में उर्दू माध्यम से हुयी। भारत विभाजन के पश्चात् उनका परिवार जमशेदपुर आ गया। कोहली जी ने दिल्ली विश्वविद्यालय से हिंदी में स्नातकोत्तर और प्रसिद्ध आलोचक डॉ. नगेन्द्र के निर्देशन में डाक्टरेट की उपाधि प्राप्त की तथा दिल्ली के मोतीलाल नेहरू महाविद्यालय में प्राध्यापक हो गए। बाद में, दिल्ली विश्वविद्यालय की क्षुद्र राजनीति और तत्कालीन वैचारिक उठा-पटक के मध्य अपने सिद्धांतों तथा लेखन को प्राथमिकता देते हुए नौकरी छोड़ कर पूर्णकालिक साहित्यकार बन गए।

कोहली जी की पहली कहानी सन 1960 में प्रकाशित हुयी। वे जिस समय साहित्य रचना में प्रवृत्त हुए, वह समय स्वतंत्रता के पश्चात् राष्ट्र-निर्माण का युग था। तत्कालीन राजनीतिक नेतृत्व देश की जटिल आर्थिक, सामजिक समस्याओं के निदान के लिए कभी चीन और सोवियत संघ तो कभी यूरोप की ओर देख रहा था। बुद्धिजीवी और साहित्यिक वर्ग फ्रायड, युंग और कार्लमार्क्स के विचारों में भारत की मुक्ति का मार्ग खोजने में लग गया था। भारतीय ज्ञान, परंपरा, संस्कृति और आध्यात्मिकता से परान्गमुख साहित्यकारों के खेमें भिन्न-भिन्न मंचों से पश्चिम के अनुकरण को आधुनिकता सिद्ध करने की होड़ में ताल ठोंक रहे थे। ऐसे में नरेंद्र कोहली जी ने अपांक्तेय रहकर अपने लेखन में भारतीय पौराणिक एवं ऐतिहासिक चरित्रों के माध्यम से वर्तमान समय की गुत्थियां सुलझाते हुए आधुनिक समाज की नींव रखने में श्रेयष्कर भूमिका निभाई। साहित्य के द्वारा भारतीय जनमानस में भारतीय महापुरुषों को स्थापित करने का श्रेय कोहली जी को है।

नरेंद्र कोहली ने उपन्यास, नाटक, कहानी, संस्मरण, निबंध, व्यंग्य आदि विभिन्न विधाओं में शताधिक पुस्तकें लिखी। कोहली जी ने इतना अधिक लिखा है जितना लोग एक जीवनकाल में पढ़ भी नहीं पाते। महाकाव्यात्मक उपन्यासों की परंपरा का श्रीगणेश कोहलीजी ने किया। उन्होंने महाभारत की कथा को ‘महासमर’ उपन्यास में आठ खण्डों में, स्वामी विवेकानंद के जीवन और विचारों को ‘तोड़ो कारा तोड़ो’ उपन्यास में छह खण्डों में तथा भगवान राम के चरित्र को ‘राम कथा’ उपन्यास के चार खण्डों में समाहित किया है। उनके अन्य प्रसिद्ध उपन्यासों में दीक्षा, अभ्युदय, पुनरारंभ, आतंक, साथ सहा गया दुःख, वसुदेव, अभिज्ञान, न भूतो न भविष्यति, शरणम, युद्ध- भाग-1, युद्ध- भाग-2 आदि तथा कहानी संग्रह- कहानी का आभाव, निचले फ्लैट में, संचित भूख, नमक का कैदी हम सबका घर, रोज सवेरे आदि परिगणित किए जाते हैं।

कोहली जी के उपन्यासों के रचनाक्रम में विशिष्ट दृष्टिकोण स्पष्ट परिलक्षित होता है। उपन्यासों में उनका सामाजिक विश्लेषण पौराणिक और राष्ट्रीय महापुरुषों की कथाओं पर आधृत है। समकालीन राजनीति के सन्दर्भ में अपनी मनन परिधि को राजा और प्रजा तथा राज्य के संबंधों तक सीमित रखा है। अपनी कृतियों में उन्होंने राजा और राज्य का अंतर, राजा और प्रजा का पारस्परिक संबंध तथा राज्य की सुरक्षा और विकास का एकमात्र साधन एवं बल, इन तीन प्रश्नों को विश्लेषण करके इनका अनुकूल उत्तर देने का प्रयास किया है। भारतीय परंपरा अनुकूल वे राजा और प्रजा के पारस्परिक संबंध को शासन और शासित का संबंध नहीं मानते, अपितु वे राजा को प्रजा के प्रतिनिधि के रूप में प्रतिष्ठित करने का यत्न करते हैं। उन्होंने पौराणिक घटनाओं के युगानुकूल बौद्धिक विश्लेषण को विशेष स्थान दिया है। कथा कहते- कहते वे अनेक गंभीर मुद्दों की ओर संकेत कर देते हैं। उन्होंने जिस विषय पर लेखनी चलाई उसे पूर्णता प्रदान की। उनकी कृति को आद्योपांत पढ़ने के उपरांत पाठक के मन में कोई संशय बचा नहीं रह जाता, यही उनकी विशेषता है।

कोहली जी के उपन्यासों की आभा के कारण उनके व्यंग्य और नाटकों की चर्चा प्रायः नहीं की जाती जबकि उन्होंने विपुल मात्र में स्तरीय नाटक और व्यंग्य लेखन किया है। एक और लाल त्रिकोण, पांच एब्सर्ड उपन्यास, आश्रितों का विद्रोह, जगाने का अपराध, आधुनिक लड़की की पीड़ा, इश्क एक शहर का, हुए मर के जो हम रुसवा आदि उनके बीस से अधिक व्यंग्य संग्रह प्रकाशित हैं। शंबूक की हत्या, निर्णय रुका हुआ, हत्यारे, गारे की दीवार और किष्किन्धा नाटकों में देश की वर्त्तमान समस्याओं के मौलिक और व्यवहारिक समाधान प्रस्तुत किए हैं। कोहली जी की आत्मकथा ‘नरेंद्र कोहली ने कहा’ को पढ़कर यह जाना जा सकता है कि बड़ा साहित्यकार बनने की पहली शर्त एक अच्छा मनुष्य बनना है। उनका निबंध संग्रह ‘जहाँ धर्म है वहीँ जय है’ में पाठकों को जीवन के सभी कार्य व्यापारों में मानवीय मर्यादाओं की शिक्षा देता है।

कोहली जी साहित्य को केवल मनोरंजन का साधन मानने के पक्षपाती नहीं थे। बल्कि वे साहित्य को जीवन की सही समझ विकसित करने का साधन मानते थे। युवा साहित्यकारों के लिए विशेष तौर से लिखे कोहली जी के निबंध ‘लेखकीय संसार’ की इन पंक्तियों में उनकी सूक्ष्म और सच्ची जीवन दृष्टि का परिचय मिलता है- मेरे एक परिचित बुद्धिमान बहुत कड़कदार आवाज में घोषणा कर रहे थे कि मंदिर में घटों घंटियाँ बजाने वाला, राम नाम का जाप करने वाला अथवा सूर और तुलसी के भजन गाने वाला, दस रुपये भी नहीं कमा सकता। उसकी इस बात का उत्तर मेरे पास था, किंतु उस उत्तर को समझाने और ग्रहण करने की बुद्धि उसमें नहीं थी इसलिए मैंने उन्हें उत्तर नहीं दिया। सत्य यह है कि जिसे दस रुपये का नोट चाहिए, वह मंदिर में जाकर घंटियाँ बजाकर, वह सुख प्राप्त ही नहीं कर सकता, जो वह साधक प्राप्त करता है, जो यह कहता है कि मेरा सर्वस्व छीन ले और मुझे अपनी भक्ति दे।

किसी साहित्यकार का मूल्यांकन इस आधार पर किया जाता है कि उसने अपनी साहित्यिक परंपरा को कितना जिया, उस परंपरा में उसका क्या स्थान है और उस परंपरा को आगे ले जाने में अगली पीढ़ी को प्रेरित करने में उसका कितना योगदान है।जिस समय गुरुदत्त दिल्ली में वामपंथियों से अकेले जूझ रहे थे, नरेंद्र कोहली बाल सूर्य की तरह उभरे तथा भारतीय संस्कृति की तेजस्विता के साथ साहित्याकाश में छा गए।

आज के साहित्यकारों की सबसे बड़ी शिकायत यह है कि साहित्य के पाठकों की बहुत कमी हो गयी है। आधुनिक अणु माध्यमों के कारण युवाओं ने किताबें पढ़ना बंद कर दी हैं। लेकिन, कोहली जी इसके लिए आज के साहित्यकारों को ही दोषी मानते हैं। उनका कहना था कि यदि आप पठनीय लिखेंगे तभी तो पाठक उसे पढ़ने की ओर लालायित होगा। यदि आप उन विषयों पर लिखेंगे जो भारतीय जनमानस से मेल ही नहीं खाते तो पाठकों का रोना रोते रहेंगे। साहित्य परिषद् के कार्यक्रम में एक प्रश्न के उत्तर में उन्होंने कहा था, नरेंद्र कोहली को जानते हो? हिंदी का ही लेखक है। उसमें तुम्हें कोई कमी दिखाई देती है? खूब लिखता है। उसके लिखे को लोग खूब पढ़ते हैं। पाठकों के बल पर ठाठ से रहता है।

नरेंद्र कोहली को शलाका सम्मान, पंडित दीन दयाल उपाध्याय सम्मान, अट्टहास सम्मान तथा पद्मश्री जैसे प्रतिष्ठित सम्मान मिले। किंतु,कोहली जी को सम्मानों, पुरस्कारों से अधिक अपने लेखक होने पर गर्व था। उनकी यह उक्ति बहुत प्रसिद्ध है , मुझे सचिन तेंदुलकर न बन पाने का अफसोस नहीं है क्योंकि मुझे पता है कि तेंदुलकर कभी नरेंद्र कोहली नहीं बन सकते। किसी को लेखक नहीं बनाया जा सकता, लेखक जन्म से ही होते हैं।

सांस्कृतिक पुनर्जागरण के युग-प्रणेता साहित्यकार के रूप में नरेंद्र कोहली का स्थान सदैव सुरक्षित रहेगा।

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