एक थी प्रगति

नारी के बारे अश्लील लिखा तो वो सच्चा नारी विमर्श और कहीं नारी शालीनता के साथ कर्तव्यपरायण हो गई तो वो दकियानूस, पिछड़ी, मानों विमर्श ने नारियों का ठेका इन प्रगतिशीलों को, वादियों को दे रखा हो। और, दलित विमर्श की तो बात ही मत पूछो इस शब्द को तो इतना आइसोलेट किया कि एक छोटे से खाने में कैद हो गया।

एक समय की बात है। विकास और प्रगति सहोदर थे। दोनों का एक सा स्वभाव, एक सा काम था। विकास अपनी गति से चलता रहता था।प्रगति की अपनी मनमोहिनी चाल थी। स्वभाविक था प्रगति की चाल कुछ लोगों को भा गई। प्रगति हाथों-हाथ ली जाने लगी।वह कुछ लोगों की इतनी लाड़ली हो गई कि ज़मीन पर पैर नहीं रखती थी, लोग उसे हाथों में जो उठाए हुए थे। वह बुद्धिजीवियों की गोद में खेली,विदेशियों के हाथों पोषित हुई, राजनीति की मलाई खा कर ह्रष्टपुष्ट हुई। उसके हौंसले इतने बढ़ गये कि जिन हाथों में खेल रही थी खेलते-खेलते उनकी ऊंगलियों पर पहुंच गई,अब उसे गिरने से बचाने को ऊंगलियां उसे नचाने लगी। प्रगति चहुंमुखी प्रगति करना चाहती थी। अपने स्वभाव के अनुसार निरंतर बढ़ना चाहती थी। उंगलियों का सहारा पा कर उसे लगा वह आसमान छू लेगी। उसने छुआ भी। प्रगति चहुंमुखी हुई ना हुई, चर्चा चहुंओर हुई। प्रगति अब ग्लैमर गर्ल हो गई थी। विकास तो बेचारा सड़क,पानी, बिजली और नाली में ही उलझा रहा किन्तु प्रगति बड़े- बड़े मंचों की शोभा बढ़ाती थी,अकादमियों में उसकी पूछ-परख थी,शिक्षालयों में उसकी तूती बोलती थी, यहां तक की सरकारें भी उसके दम पर चेयर रेस जीत लेती थी।

उंगलियों का सारा दाना-पानी प्रगति पर निर्भर था,इसलिए उन्होंने अपना नाम उंगलियों से बदल कर प्रगतिशील रख लिया।अब प्रगति को उनपर नाचने से कोई नहीं रोक सकता था, खुद प्रगति भी नहीं। वो मजबूर थी। ये प्रकृति का नियम है कि मजबूरी धीरे-धीरे कब्ज़े में बदल जाती है।इसमे कब्ज़ेदार का कोई दोष नहीं होता। जैसे कोई लड़की प्रेमजाल में फंसकर किसी के कब्ज़े में आ जाये तो, कब्ज़ेदार को पूरा अधिकार होता है,वो उसे क्या खिलायेगा, क्या पहनायेगा, कहां बिठायेगा।

प्रगति को भी प्रगतिशीलों ने जहां मर्ज़ी आया बिठाया, घुमाया, घुसाया, घुसपैठ तो इतनी तगड़ी की उसका घुसना जायज़, लायक बाक़ी सब नालायक।
इस जबरियेपन ने प्रगति से उसका सच्चा धर्म छीन लिया।प्रगति की मूल धातु ‘गति’ही खो गई। प्रगतिशीलों की मेहरबानी से वह यत्र-तत्र दिखाई तो देती थी पर ‘प्र’के साथ नहीं ‘दुः’के साथ।

प्रगति जिसका काम नदी की तरह कल-कल बढ़ते हुए निरतंर आगे बढ़ना था, पर प्रगतिशीलों ने उसे स्वार्थ के गंदले गड्ढे मे पटक दिया और उसके नाम को वाद बना कर समाज की देह पर लकीरें खींचनें में उपयोग करने लगे। अब समाज का पूरा शरीर प्रगति नहीं कर सकता था। जिसे प्रगतिशील चाहते थे उसी हिस्से को प्रगति की इज़ाजत थी। संकीर्णता के पोखर में पड़ी प्रगति को विभाजन के कीड़े खाने लगे। अब उस रूके हुए पानी में बिसूरती प्रगति से दुर्गंध आने लगी, जो सारे समाज में सड़ांध फैला रही थी। कुछ लोग कहते थे प्रगति ने खुदकुशी की पर फिर हत्या किसे कहते हैं, ये एक विचारणीय प्रश्न था। प्रश्न पर विचार करते-करते मुझे कुछ और शब्द भी उंगलियों पर नाचते नज़र आये। वे शब्दों के साथ समाज और साहित्य को भी नचा रहे थे। बहुत ध्यान से देखने पर दिखाई दिया कि वे शब्द स्वतंत्र होने के लिए कसमसा रहे थे। समकालीन सबसे गले मिलना चाहता था पर कब्जेदारों ने अपने नाम उसका पेटेंट करा रखा था। वो लिखते,पढ़ते, खांसते,छींकते वो सब समकालीन होता, बाकी सब को तो उन्होंने टाईम मशीन में बिठा कर बाबा आदम के ज़माने में लौटा दिया,या भविष्य के काल्पनिक द्वार का दरवाजा भड़भड़ाने भेज दिया। बेचारा समकालीन पेटेन्टधारियों का काल रह गया बस। एक शब्द गढ़ा नारी विमर्श। वो तो बेचारा नारी का भी नहीं रहा इसको गढ़ने वालों ने जो कहा वो नारी विमर्श,नारी का अपमान किया तो नारी विमर्श, नारी को बरगलाया तो नारी विमर्श, नारी को उच्श्रृंखल बनाया तो नारी विमर्श, नारी के बारे अश्लील लिखा तो वो सच्चा नारी विमर्श और कहीं नारी शालीनता के साथ कर्तव्यपरायण हो गई तो वो दकियानूस,पिछड़ी, मानों विमर्श ने नारियों का ठेका इन प्रगतिशीलों को,वादियों को दे रखा हो। और, दलित विमर्श की तो बात ही मत पूछो इस शब्द को तो इतना आइसोलेट किया कि एक छोटे से खाने में कैद हो गया। इतना कि दलित साहित्य वही जो प्रगतिशील लिखे या दलित लिखे बाकी तो खबरदार, जो लकीर के उस पार के दु:ख, तकलीफ़, संवेदना को महसूस किया तो। लकीर के उस पार की संवेदना उनकी बपौती है। ख़बरदार जो उनके अतिक्रमण में घुसपैठ की तो।ऐसे बहुत सारे शब्द हैं जिन्हें ईश्वर ने उनकी जन्मकुंडली में बिठा कर भेजा है।आप भला कैसे उनका भाग्य हथिया सकते हैं। ये शब्द उनकी रोज़ी-रोटी है, वे चाहे तो इनको बेचे, रेहन रखकर ब्याज खाएं या हाथ-पैर काट कर भीख मंगवायें।आप तो क्या, कोई कानून भी उन्हें कब्ज़े से नहीं छुड़वा सकता। ये शब्द नहीं बिच्छू हैं, जिसके बच्चे ही उसे खा जाते हैं। इन शब्दों की नियति है, बिच्छू की तरह खत्म होना तो उन्हें खत्म होते देखते रहिये बस।

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