पत्रकारिता के शिखर पुरुष आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी

‘प्रताप’ के संपादक गणेश शंकर विद्यार्थी जी एवं केसरी के संपादक लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक जी, आचार्य द्विवेदी जी को ही सर्वश्रेष्ठ संपादक मानते थे। यही कारण था कि जब कोई व्यक्ति पत्रकारिता सीखने के उद्देश्य से लोकमान्य अथवा विद्यार्थी जी के पास जाता था तो वे उसे आचार्य द्विवेदी जी के पास यह कहकर भेज देते थे कि पत्रकारिता की बारीकियां सीखनी हैं तो केवल आचार्य द्विवेदी जी ही सबसे उपयुक्त गुरु हो सकते हैं।

आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी हिंदी साहित्य के इतिहास का स्वर्णिम अक्षरों में लिखा हुआ वह नाम है जिसकी चमक युगों-युगों तक हिंदी साहित्य को अलौकिक आभा से सुशोभित करती रहेगी।

हिंदी साहित्य के युग उन्नायकों तथा हिन्दी जगत के महानायकों में आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी विशिष्ट पहचान के अनूठे व्यक्तित्व से परिपूर्ण थे। आधुनिक काल में भारतेंदु हरिश्चंद्र के उपरांत जिस साहित्यिक महामानव का अवतरण युग उन्नायक के रूप में हुआ था, वे थे आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी। भारतेंदु जी के बाद वे सर्वाधिक प्रभावशाली व्यक्तित्व के धनी और हिंदी भाषा, हिंदी साहित्य तथा हिन्दी साहित्य के इतिहास को सुदृढ़ आधार देने वाले महानायक थे। यही कारण है कि आधुनिक काल अथवा गद्य काल का दूसरा युग द्विवेदी युग के नाम से ही विख्यात हुआ।
हिंदी साहित्य के पुरोधा आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी का जन्म 15 मई, सन 1864 को रायबरेली जिले के दौलतपुर गांव में हुआ था। उनके पिता पंडित रामसहाय दुबे धर्मनिष्ठ कान्यकुब्ज ब्राह्मण थे।

आचार्य द्विवेदी जी की स्कूली शिक्षा भले ही सुचारू नहीं रह सकी, किंतु, पिता के शुभाशीष एवं अपनी लगन के कारण अर्थाभाव से जूझते हुए आचार्य द्विवेदी जी ने स्वाध्याय से ही संस्कृत, हिंदी, अंग्रेजी, बंगाली, गुजराती, मराठी तथा फ़ारसी भाषाओं का ज्ञान गूढ़ता से प्राप्त कर लिया।

उन्होंने जीआईपी रेलवे में नौकरी के उपरांत 1 वर्ष का रेल प्रवास किया। उसके उपरांत रेलवे की नौकरी से त्यागपत्र देकर मुंबई जाकर आचार्य द्विवेदी जी इंडियन मिडलैंड रेलवे में तारबाबू के रूप में नियुक्त हुए किंतु स्वाभिमान के कारण झांसी में सन् 1904 में आपने तत्कालीन 200 प्रतिमाह की नौकरी से त्यागपत्र दे दिया।

सन 1900 ईस्वी के जनवरी माह में इंडियन प्रेस, प्रयाग से 32 पृष्ठीय क्राउन आकार की पत्रिका ‘सरस्वती’ का प्रकाशन आरंभ हुआ। आचार्य जी इस पत्रिका के सन 1903 ई. में संपादक नियुक्त हुए। ‘सरस्वती’ का संपादन संभालने के बाद आचार्य द्विवेदी जी ने जहां ‘सरस्वती’ का स्तर फ़र्श से अर्श पर पहुंचाया, वहीं वे हिंदी साहित्य के नवोन्मेष का आधार बने। आचार्य जी ने ‘सरस्वती’ के माध्यम से हिंदी भाषा का परिमार्जन एवं परिष्कार कर उसे शुद्ध संस्कृतनिष्ठ स्वरूप प्रदान किया। उन्होंने हिंदी काव्य को ब्रजभाषा, अवधी और मैथिली की सीमाओं से बाहर निकाल कर खड़ी बोली के रूप में असीमित, विस्तृत पटल प्रदान किया। खड़ी बोली का धरातल प्राप्त कर हिंदी कविता खेतों में लहलहाती गेहूं की सुनहरी फसल की तरह लहराई। आचार्य द्विवेदी जी ने सछंद कविता की वक़ालत की। सन 1903से 1920 तक 17 वर्ष की अवधि तक उन्होंने ‘सरस्वती’ पत्रिका का संपादन किया और अपने संपादन काल में खड़ी बोली के साथ-साथ हिंदी गद्य की विभिन्न विधाओं का विकास एवं प्रचार-प्रसार किया। उन्होंने अनेक नये लेखकों को प्रेरित किया, किंतु, साहित्यिक विधाओं के आदर्श को उन्होंने विचलित नहीं होने दिया। यही कारण है कि उन्होंने महाप्राण निराला जैसे कवि की स्वच्छंद कविता ‘जूही की कली’ को यह लिखकर वापस भेज दिया कि यह ‘सरस्वती’ में प्रकाशित होने योग्य नहीं है। बाद में महाप्राण निराला की यही कविता अन्य कई पत्रिकाओं में प्रकाशित हुई, किंतु, आचार्य प्रवर ने छंदरहित होने के कारण उसे सरस्वती में स्थान नहीं दिया।

आचार्य जी, शुद्ध साहित्यिक एवं त्रुटिरहित पत्रकारिता के समर्थक थे। वे ‘पत्रकारिता जल्दी में लिखा गया साहित्य है’ के प्रबल विरोधी थे। उनका मानना था कि भाषिक अनुशासन एवं व्याकरण को अनदेखा करना भाषा के स्वरूप को बिगाड़ना और उसे कमज़ोर बनाना है। उनके कड़े अनुशासन एवं व्याकरण समर्थक होने के कारण तथा सछंद कविता के पोषक होने के कारण ही कविवर मैथिलीशरण गुप्त ने उन्हें अपना गुरु स्वीकार किया तथा उनसे कविता की बारीकियां सीखीं और राष्ट्रकवि होने का गौरव प्राप्त किया।

आज का साहित्यिक वर्ग कठिनता से ही इस सत्य को स्वीकार कर पाएगा कि आचार्य जी स्वयं अपने समय के सिद्ध कवि थे। उन्होंने अधिकांशत: गद्य रचनाओं का ही प्रणयन किया। उनके कुल 81 ग्रंथों में से काव्य मंजूषा, कविता कलाप,देवी स्तुति शतक ही उनकी मौलिक पद्य रचनाएं हैं जबकि गंगा लहरी, ऋतु तरंगिणी तथा कुमारसंभव उनके द्वारा अनूदित पद्य ग्रंथ हैं।

आचार्य जी, हिंदी आलोचना, निबंध एवं अनुवाद के शिखर थे। उन्होंने स्वयं भाषिक एवं व्याकरणिक अनुशासन का पालन करते हुए हिंदी साहित्य के भंडार में श्रीवृद्धि की। इनके समय में ही हिंदी में अनेक पत्र- पत्रिकाएं निकलने लगी थीं। इतना ही नहीं ‘सरस्वती’ एवं ‘प्रताप’ के अलावा मराठी से निकलने वाले ‘केसरी’ की लोकप्रियता उन दिनों शिखर पर थी। इसके बाद भी ‘प्रताप’ के संपादक गणेश शंकर विद्यार्थी जी एवं केसरी के संपादक लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक जी, आचार्य द्विवेदी जी को ही सर्वश्रेष्ठ संपादक मानते थे। यही कारण था कि जब कोई व्यक्ति पत्रकारिता सीखने के उद्देश्य से लोकमान्य अथवा विद्यार्थी जी के पास जाता था तो वे उसे आचार्य द्विवेदी जी के पास यह कहकर भेज देते थे कि पत्रकारिता की बारीकियां सीखनी हैं तो केवल आचार्य द्विवेदी जी ही सबसे उपयुक्त गुरु हो सकते हैं। अतः कितने ही पत्रकारों और संपादकों ने उन्हें अपना प्रेरणास्रोत माना तथा साहित्य एवं पत्रकारिता के नए प्रतिमान स्थापित किए।

आचार्य द्विवेदीजी हिंदी साहित्य एवं भाषा के युगप्रवर्तक साहित्यकार भारतेंदु हरिश्चंद्र, आचार्य रामचंद्र शुक्ल एवं जयशंकर प्रसाद के बीच की कड़ी हैं। अर्थात् भारतेंदु जी ने जहां हिंदी गद्य की भाषा खड़ी बोली को बनाया वहीं आचार्य द्विवेदी जी ने हिंदी कविता को खड़ी बोली का वृहद् आकाश दिया। आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने हिंदी साहित्य के इतिहास की रचना कर हिंदी को विश्व पटल पर स्थापित करने की भूमिका रची तथा जयशंकर प्रसाद जी ने हिंदी भाषा को परिशुद्धता प्रदान कर नाटक एवं कहानी विधाओं को नई दिशा दी।

इस प्रकार हिंदी भाषा, साहित्य एवं पत्रकारिता के शिखर पुरुष थे, महामना आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी। वे 21 दिसंबर, सन् 1938 को मां भारती की गोद में चिरनिद्रा में सो गए। उनका अनूठा हिंदी प्रेम और व्यक्तित्व आज भी हिंदी साहित्य के साधकों के हृदय में जीवन्तहै। वे युगों-युगों तक हिंदी जगत से जुड़े साहित्यकारों, पत्रकारों आदि को प्रेरणा देते रहेंगे।

आइए! आज हम सभी उन्हें भावभीनी श्रद्धांजलि अर्पित करते हुए हिंदी भाषा एवं साहित्य के उत्थान का संकल्प लें।
जय हिंदी! जय भारती!

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