क्या बाबा साहब ने चाहा था कभी, ऐसा आम्बेडकरवाद

आज खुद को आम्बेडकरवादी कहने वाले हिंसा, दंगे और फसाद में शामिल होकर बाबा साहब के विचार को लांछित कर रहे हैं। आर्मी बनाने वाले अथवा जाति के नाम पर देश में नफरत की खेती करने वाले बाबा साहब की परंपरा के उत्तराधिकारी नहीं हो सकते। जिसके जीवन में ‘बुद्ध’ हो और चिन्तन में भारत, सच्चे अर्थो में बाबा साहब के विचारों का उत्तराधिकारी वही होगा।

बाबा साहब सिर्फ दो महीने ही बौद्ध बन कर जिए। 14 अक्टुबर 1956 को उन्होंने बौद्ध धर्म अपनाया और 6 दिसम्बर 1956 को वे दिवंगत हुए। 5 दिसम्बर को उन्होंने मिलने आए जैन समाज के प्रतिनिधिमंडल को वादा किया था कि अगले दिन वे उनके कार्यक्रम में शामिल होंगे। इस दौरान बाबा साहब ने प्रतिनिधिमंडल के साथ बौद्ध मत और जैन मत पर चर्चा भी की। अंतिम समय तक जो व्यक्ति सहायक के तौर पर उनके साथ रहा, उनका नाम नानक चंद रत्तू था। यह सारी जानकारी इसलिए क्योंकि ’विचारधारा विशेष’ के लोग बाबा साहब को समाज में नफरत फैलाने के औजार के तौर पर दशकों से इस्तेमाल करते आ रहे हैं। जबकि हमें जानना चाहिए कि बाबा साहब सिर्फ महारों के नेता नहीं थे। बाबा साहब जातिवादी नेता नहीं थे। वे सच्चे अर्थो में पूरे देश के नेता थे।

यह सच है कि बाबा साहब हिन्दू समाज के आलोचक रहे हैं। उससे भी बड़ा सच यह है कि उन्होंने पूरे भारतीय समाज को सुधार के लिए प्रेरित किया। बाबा साहब के मत परिवर्तन की वजह से हिन्दू समाज के कई बड़े प्रतिनिधि चेहरों ने अपने व्यवहार में बदलाव लाया। बाबा साहब ने धर्मान्तरण की घोषणा की और उसके बाद मैसूर में राजाज्ञा द्वारा अस्पृश्यों को दशहरा दरबार में आने की अनुमति मिली। उससे पहले दशहरा दरबार में उनका प्रवेश निषेध था। आम्बेडकर की धर्मान्तरण की घोषणा के बाद ही मैसूर के राजा ने घोषणा कर दी कि दरबार के दशहरा महोत्सव में अनुसूचित जाति के लोग शामिल हो सकेंगे और सर सीपी रामास्वामी अय्यर के प्रयत्नों के फलस्वरूप त्रावणकोर शासन ने भी अपने अधिकार के 30,000 मंदिरों को सबके लिए खोल दिया। इस तरह बाबा साहब के धर्म परिवर्तन से हिन्दू धर्म के अंदर सुधार का एक नया अध्याय प्रारम्भ हुआ। यह बाबा साहब की वजह से हुआ कि आज देश भर के मंदिर के दरवाजे अनुसूचित जाति के लोगों के लिए खुल गए हैं। यदि कोई मंदिर भेदभाव करने का प्रयास करे तो समाज के पास न्यायालय के माध्यम से सुधार का रास्ता भी है। अब कर्मकाण्ड और धार्मिक अनुष्ठान के लिए अनुसूचित जाति के बीच से पंडित भी तैयार हो रहे हैं। आज भी कुंभ के दौरान विभिन्न अखाड़ों में कोई जाति सर्वेक्षण कराया जाए तो सन्यास के लिए विभिन्न जाति समुदाय से लोग आ रहे हैं। आज देश भर में कथावाचकों की धूम है, ऐसा नहीं है कि श्रीराम और श्रीकृष्ण की कथा कहने वाले किसी विशेष जाति से आ रहे हैं। उनमें सभी जाति के लोग हैं। बाबा रामदेव के लिए अब लोगों ने जाना कि उनकी जाति क्या है? हिन्दू समाज में सुधार की बयार चल रही है, इसी का परिणाम है कि आज देश के राष्ट्रपति जहां अनुसूचित जाति से आते हैं, वहीं देश के अब तक के सबसे लोकप्रिय प्रधानमंत्री पिछड़ी जाति से।

दलित इंडियन चैम्बर आफ कॉमर्स एंड इडस्ट्री के मिलिन्द कांबले ने एक बार कहा था – जिसे आप अनुसूचित जाति कहते हैं, एक जमाने में पूरा सर्विस सेक्टर उनके पास था। यदि आज वर्ण व्यवस्था लागू हो जाए तो अनुसूचित जाति के लोग घाटे में नहीं रहेंगे क्योंकि रोजगार के लिए पूरे देश में सेवा क्षेत्र सबसे बड़ा सेक्टर है। फिर खुद ही हंसते हुए श्री कांबले बोल पड़े – इसके लिए कोई अब तैयार नहीं होगा।

‘स्पीचेज एंड राइटिंग्स आफ महात्मा गांधी’ के पृष्ठ 387 पर गांधीजी लिखते हैं-
आज कल हिन्दू धर्म में जो अस्पृश्यता देखने में आती है, वह उसका एक अमिट कलंक है। मैं यह मानने से इंकार करता हूं कि वह हमारे समाज में स्मरणातीत काल से चली आयी है। मेरा ख्याल है कि अस्पृश्यता की यह घृणित भावना हम लोगों में तब आयी होगी जब हम अपने पतन की चरम सीमा पर रहे होंगे।और तब से यह बुराई हमारे साथ लग गई और आज भी लगी हुई है। मैं मानता हूं कि यह एक भयंकर अभिशाप है। और यह अभिशाप जब तक हमारे साथ रहेगा तब तक मुझे लगता है कि इस पावन भूमि में हमें जब भी जो तकलीफ सहना पड़े वह हमारे इस अपराध का, जिसे हम आज भी कर रहे हैं, उचित दंड होगी।
इस उद्धरण से हम समझ सकते हैं कि अस्पृश्यता देश के शीर्ष नेतृत्व की चिन्ता में उस दौर में भी शामिल था। इसे खत्म करने की दिशा में गांधीजी ने कई महत्वपूर्ण कदम भी उठाए थे। यह भी सच है कि गांधीजी नहीं चाहते थे कि बाबा साहब धर्म परिवर्तन करें। 1956 तक गांधीजी जीवित होते तो हो सकता है कि भारत का मुस्तकबिल कुछ और लिखा जाता। वैसे गांधीजी ने 24 नवंबर 1927 को ’यंग इंडिया’ में बौद्ध धर्म को लेकर जो टिप्पणी की है, वह आज कई आम्बेडकरवादियों को पसंद नहीं आएगी। गांधीजी लिखते हैं – ”मेरा दृढ़ मत है कि बौद्ध धर्म या बुद्ध की शिक्षा का पूरा परिणत विकास भारत में ही हुआ, इससे भिन्न कुछ हो भी नहीं सकता था क्योंकि गौतम स्वयं श्रेष्ठ हिन्दू ही तो थे। वे हिन्दू धर्म जो कुछ उत्तम है, उससे ओत प्रोत थे और उन्होंने अपना जीवन कतिपय ऐसी शिक्षाओं की शोध और प्रसार के लिए दिया, जो वेदों में छिपी पड़ी थी और जिन्हें समय की काई ने ढंक दिया था। बुद्ध ने हिन्दू धर्म का कभी त्याग नहीं किया। उन्होंने तो उसके आधार का विस्तार किया। उन्होंने उसे नया जीवन और नया अर्थ दिया।’

इस कहानी के दूसरे पहलू की तरफ आते हैं। जहां कोई चर्च का पादरी हिन्दू धर्म की आलोचना के लिए समर्पित एक पत्रिका प्रारम्भ करता है और थोड़े पैसों की वजह से कई आम्बेडकरवादी उसकी पत्रिका से जुड़ जाते हैं। जुड़ने वालों में से कोई यह सवाल भी ना करता कि बाबा साहब ने कभी चर्च की वकालत नहीं की। वह क्रिश्चियन धर्म के प्रशंसक नहीं थे फिर अचानक पादरी होकर तुम्हारी रूचि बाबा साहब में क्यों है? तुम्हारी रूचि हिन्दू समाज को बांटने के लिए बाबा साहब के इस्तेमाल में क्यों है? यदि बाबा साहब में तुम जैसे पादरी-पास्टर का सच में इतना विश्वास है तो तुम पहले बौद्ध क्यों नहीं बन जाते। क्रिश्चियन बनकर बाबा साहब के सपनों का भारत बनाने में तुम्हारी भूमिका हमेशा संदेहास्पद बनी रहेगी क्योंकि बाबा साहब ने बौद्ध धर्म को अपनाने से पहले इस्लाम, क्रिश्चियन सबको परखा था। परखा ही नहीं था बल्कि बाकी सारे धर्म क्यों नहीं चलेंगे इस संबंध में उन्होंने ’बुद्धा एंड फ्यूचर आफ हिज रिलिजन’ शीर्षक से कोलकाता के महाबोधी सोसायटी जर्नल के मई 1950 अंक में एक लंबा लेख भी लिखा था। उन्होंने लिखा है कि बौद्ध धर्म को छोड़कर शेष धर्म क्यों उनके मानको पर खरे नहीं उतरे।

जेल में बंद झारखंड के पादरी स्टेन स्वामी से लेकर विदेशी पास्टर इवान कास्का तक सभी बाबा साहब के नाम का इस्तेमाल अनुसूचित जनजाति समाज हिन्दू नहीं है को साधने के लिए करते आए हैं या फिर वे बाबा साहब के नाम का इस्तेमाल अनुसूचित जाति पर सवर्णो ने बहुत अत्याचार किया है, बताने के लिए करते हैं। चर्च के संपर्क मे रहने वाला कोई कथित आम्बेडकरवादी इन पादरियों या पास्टर से नहीं पूछता कि जनजाति समाज यदि हिन्दू नहीं है तो क्या वह क्रिश्चियन है? यदि वह क्रिश्चियन नहीं है तो फिर लगातार लाखों की संख्या में इनका कन्वर्जन चर्च के प्रतिनिधियों द्वारा क्यों कराया जा रहा है? यदि चर्च वालों की आम्बेडकर में इतनी ही आस्था है तो चर्च को भारत से समाप्त होकर बौद्ध हो जाना चाहिए। जनजाति समाज को कन्वर्ट कराने से पहले पादरी स्टेन स्वामी को खुद भंते स्टेन बनना चाहिए। पास्टर को जिसस की शरण छोड़कर बाबा साहब की शरण में आना चाहिए। लेकिन पास्टर इवान कास्का के मित्र इंडिया टुडे के पूर्व संपादक दिलीप चन्द्र मंडल से लेकर अनुसूचित जाति के सवालों पर लगातार लिखने वाले कांचा इलैया शेफर्ड तक चर्च की शरण में हैं। पास्टर को इन दोनों में कोई एक नहीं पूछता कि बाबा साहब की राय चर्च के लिए भी बहुत अच्छी नहीं थी। वर्ना वे क्रिश्चियन हो जाते। फिर तुम्हारी इतनी रूचि बाबा साहब में क्यों है? इवान कास्का की आम्बेडकरवाद के नाम पर चलने वाली पूरी पत्रिका हिन्दू समाज के लिए नफरत फैलाने का दस्तावेज है। दिलीप चन्द्र मंडल या फिर कांचा इलैया शेफर्ड पत्रिका को चलाने वाले चर्च के एजेन्ट से नहीं पूछते कि यदि तुम यह पत्रिका बाबा साहब से प्रेरित होकर निकाल रहे हो फिर चर्च का साथ छोड़कर बौद्ध क्यों नहीं हो जाते?
बाबा साहब का पोस्टर लगाकर देश भर में जाति के नाम पर नफरत फैलाने वाले एनजीओ कुकुरमुत्ते की तरह उग आए। उनकी हिंसक भाषा और गतिविधियों को देखकर यह बता पाना मुश्किल नहीं था कि उनका उद्देश्य बाबा साहब के सपने को पूरा करना नहीं था। वे बाबा साहब के नाम पर समाज में असंतोष पैदा करना चाहते है। समाज को बांटना चाहते हैं। कन्वर्जन कराने वालों की राह आसान करना चाहते हैं। वर्ना एक जनवरी 2018 को पुणे के पास स्थित भीमा कोरेगांव में हिंसा ना भड़की होती। यह आम्बेडकरवाद का मुखौटा ओढ़कर आए माओवादी विचार के लोगों की एक कोशिश थी, बाबा साहब की जाति को कलंकित करने की। आम्बेडकरवाद की खोल में छुपा माओवादी गिरोह जानता था कि भीमा कोरेगांव में मराठाओं के खिलाफ महार रेजिमेन्ट ने अंग्रेजों का साथ दिया था। जिसमें अंग्रेज जीते थे। इस जीत का पूरा श्रेय महार रेजिमेन्ट को गया। इस जीत में एक विरोधाभास था। वह यह कि जीत अंग्रेजों की हुई थी। अंग्रेजों ने बंदूक महार जाति के कंधे पर रख कर चलाई थी। इस घटना के 200 साल बाद फिर एक बार महार समाज का कंधा इस्तेमाल करने की कोशिश की गई, समाज में वैमनस्यता फैलाने के लिए लेकिन इस बार अंग्रेज की जगह रोना विल्सन, शोमा सेन, सुधीर धावले, सुरेंद्र गाडलिंग, महेश राउत, पी वरवर राव, सुधा भारद्वाज, वरनोन गोंसालविस, गौतम नवलखा, आनंद तेलतुंबडे और अरुण फेरेरा ने ले रखी थी। क्या आज बाबा साहब हमारे बीच होते तो माओवादी विचार के प्रचार प्रसार में लगे शहरी माओवादियों के साथ खड़े होते? ऐसा कोई ईमानदार आम्बेडकरवादी सोच भी नहीं सकता लेकिन जिस चालाकी के साथ बाबा साहब के विचारों और उनके समाज का इस्तेमाल माओवादियों ने अपने हक में करने की कोशिश की, यदि सही समय पर देश की सुरक्षा एजेन्सियां मुस्तैदी ना दिखाती तो संभव था कि भीमा कोरेगांव की आग यह समूह देश के कोने-कोने में पहुंचा चुका होता। सवाल महार समाज का था। बाबा साहब इसी समाज से आते थे। शहरी माओवादियों के लिए इतना काफी था पूरे देश को बाबा साहब के नाम पर आग में झोंकने के लिए।
बाबा साहब के संबंध में जिस तरह का साहित्य पढ़ने को मिलता है, उसे पढ़कर ऐसा लगता है कि उन्होंने नफरत से भरकर अचानक हिन्दू धर्म त्याग देने का फैसला ले लिया था। जबकि ऐसा नहीं है। निर्णय पर पहुंचने से पहले उन्होंने इस पर काफी विचार किया था

पत्रकार किशोर मकवाना अपनी किताब ’डा आम्बेडकर जीवन दर्शन’ में लिखते हैं- ”बाबा साहब के धर्मांतरण के इशारे की ओर देश के वरिष्ठ लोगों ने गम्भीरता से ध्यान दिया। महात्मा गांधी अस्पृश्यों के धर्मांतरण के खिलाफ थे। धर्म परिवर्तन अस्पृश्यता समाप्त करने का मार्ग नहीं है। ऐसा महात्मा गांधी, वीर दामोदर सावरकर, डॉ. मदनमोहन मालवीय, वंदनीय मसूरकर महाराज आदि लोगों का मत था। इनमें से हरेक व्यक्ति ने अपने-अपने ढंग से और अपनी-अपनी विचार पद्धति के अनुसार धर्मांतरण रोकने का प्रयास किया।”

श्री मकवाना आगे लिखते हैं- ”डा बालकृष्ण शिवराम मुंजे ने बाबा साहब से मिलकर और उनसे पत्र व्यवहार करके इस संदर्भ में महत्वपूर्ण काम किया। डा मुंजे का यह आग्रह था कि बाबा साहब इस्लाम या ईसाई धर्म ना स्वीकार करते हुए सिख धर्म स्वीकार करें। कुछ समय तक बाबा साहब भी सिख धर्म स्वीकार करने के प्रति अनुकूल रहे।”
बाबा साहब ने इस संबंध में लिखा है कि सबसे पहले 13 अक्तूबर 1935 को येवला में जब उन्होंने धर्म परिवर्तन की घोषणा की, तो उनसे अनेक लोगों ने सम्पर्क किया। इनमें सिख और ईसाई पंथ के लोग थे, तो आगा खां व निजाम जैसे मुस्लिम मजहब वाले भी।

हैदराबाद के निजाम ने पत्र लिखकर बाबा साहब को प्रचुर धन देने का प्रलोभन भी दिया था। निजाम ने बाबा साहब के साथ इस्लाम कुबूल करने वाले लाखों परिवारों की शैक्षिक व आर्थिक आवश्यकताओं की यथासंभव पूर्ति की बात भी कही थी। इस तरह के आश्वासन ईसाइयों की तरफ से भी आए पर डा. आम्बेडकर का स्पष्ट मत था कि इस्लाम और ईसाई विदेशी पंथ हैं। इनमें शामिल होकर अनुसूचित जाति के लोग अराष्ट्रीय हो जाएंगे। बाबा साहब ने यह भी सोचा कि यदि उनके साथ लाखों परिवार मुसलमान होते हैं, तो मुस्लिमों की संख्या भारत में दोगुनी हो जाएगी तथा देश में उनका वर्चस्व बढ़ जाएगा। यदि वे ईसाई बनते हैं, तो उनकी संख्या पांच-छह करोड़ हो जाने से ब्रिटिश सत्ता की भारत पर पकड़ मजबूत होने का खतरा था। बाबा साहब के इस्लाम और ईसाई पंथ के साथ ना जाने की कई वजहों में से एक वजह यह भी थी, जिसे जानने वाला सरलता से समझ सकता है कि बाबा साहब कितने दूरदर्शी थे। अस्पृश्यता के खिलाफ संघर्ष के अपने सबसे कठीन दौर में भी वे भारत का हित और अहित सोच रहे थे।

आज खुद को आम्बेडकरवादी कहने वाले हिंसा, दंगे और फसाद में शामिल होकर बाबा साहब के विचार को लांछित कर रहे हैं। आर्मी बनाने वाले अथवा जाति के नाम पर देश नफरत की खेती करने वाले बाबा साहब की परंपरा के उत्तराधिकारी नहीं हो सकते। जिसके जीवन में ’बुद्ध’ हो और चिन्तन में भारत, सच्चे अर्थो में बाबा साहब के विचारों का उत्तराधिकारी वही होगा।

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