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धूप-छाँव

धूप-छाँव

by डॉ. दिनेश पाठक शशि
in कहानी, मई - २०२१
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नवीन, कलकत्ता से फोन पर तो बहुत मीठी-मीठी बातें करता पर जब एक-दो हफ्ते के अवकाश पर घर आता तो प्यार की सारी बातें भूल कर बात-बात पर विनीता से झल्ला उठता था, उसे डाँट देता। विनीता उसका मुँह ताकते रह जाती। ये क्या हो गया कलकत्ता जाकर इन्हें? और फिर वह अपने दुर्भाग्य को कोसने लगती। कभी-कभी तो नवीन के साथ इतनी झड़प हो जाती कि वह जीवन से विरल हो उठती। यहाँ तक कि कभी-कभी तो वह आत्महत्या कर लेने तक की सोच बैठती।

सायं के छह बजे हैं, थोड़ी ही देर पहले वर्षा की नन्हीं बूदों ने बरस कर दिनभर की तपती धूप के ताप को कम करके मौसम को ख़ुशनुमा बना दिया है। रह-रह के वायु के झोंके उसे और सुहाना बना रहे हैं। ऐसे में विनीता अपने लॉन में आराम कुर्सी पर सिर टिकाये किसी सोच में डूबी हुई है। ख़ुशगवार मौसम भी विनीता के मस्तिष्क में उठ रहे ज्वार-भाटे को कम नहीं कर पा रहा।
कैसा है ये मनुष्य जीवन भी, मन में अगर उद्विग्नता हो तो बाहर का ख़ुशनुमा मौसम, बरसात और ठण्डी हवा, कुछ भी अच्छा नहीं लगता। विनीता के साथ भी कुछ-कुछ ऐसा ही है, कैसी दुर्भाग्यशालिनी है विनीता कि सुख जैसे ललाट में लिखा ही नहीं विधाता ने उसके। नन्हीं सी थी तभी माँ चल बसी। उसे नहीं पता कि माँ का प्यार क्या चीज होता है। उसने तो होश सम्भाला तो सौतेली माँ की जली-कटी बातों और बात-बात पर डांट-फटकार को ही सुना। एक दिन वह पड़ोस के घर में चली गई थी, देखा, उसकी उम्र की ही गुड्डन अपने घर में सुन्दर-सुन्दर सी गुड़ियों से खेल रही थी। वह भी गुड्डन के साथ बैठ गई और चुपचाप उसका खेलना देखने लगी। घर आकर उसने पापा से गुड्डन की गुड़ियों का ज़िक्र किया था।

पापा ने विनीता की ओर देखा फिर उसके गाल पर प्यार भरी थपकी देते हुए कहा-कोई बात नहीं मैं अपनी विन्नी के लिए गुड्डन से भी अच्छी गुड़िया ला दूँगा। सुनकर बहुत ख़ुश हुई थी विनीता। सचमुच ही पापा बहुत प्यार करते थे उसे। दूसरे ही दिन एक सुन्दर सी गुड़िया ले आये थे पापा, जिसे देख विनीता खुशी से फूली नहीं समाई थी। सुनकर गुड्डन भी उसकी गुड़िया को देखने के लिए चली आई थी। थोड़ी देर के लिए घर का काम भूल, विन्नी, गुड्डन के साथ अपनी गुड़िया दिखाने में और बातों में व्यस्त हो गई थी। उसने गुड्डन को बताया कि पापा उसे बहुत प्यार करते हैं पर न जाने क्यों मां उसे प्यार नहीं करती। हर समय डांट-फटकार ही लगाती रहती है।

विन्नी, गुड्डन से ये बात कह ही रही थी कि अचानक वहाँ से गुजर रही माँ के कानों में विन्नी की भोली आवाज पहुँच गई। फिर क्या था विमाता ने साक्षात् चंडी का रुप धारण कर लिया। विन्नी के बालों का झोंटा पकड़कर उन्होंने गुड्डन के सामने ही उसे झिंझोड़ दिया था,-देखो तो बित्तेभर की छोरी, कैसी बुराई कर रही है मेरी।

उस दिन विन्नी का भोला मन बहुत आहत हुआ था। पग-पग पर अपमान के घूँट पीते विन्नी ने पाँचवीं कक्षा पास कर ली थी। परीक्षाफ़ल आते ही उसकी माँ ने उसके पापा से फ़रमान जारी कर दिया था कि अब विन्नी को आगे पढ़ाने की कोई आवश्यकता नहीं है। सुनकर वह रो उठी थी। उसने पापा से बहुत चिरौरी की थी कि वह पढ़ना चाहती है। पता नहीं पापा, माँ से इतना क्यों डरते हैं। ये बात वह तब नहीं समझ पाई थी। उसने पापा से ज़िद की। पापा भी उसे आगे पढ़ाने के पक्ष में थे, पर माँ का विकराल रूप देखकर, वे चुप्प लगा गये तो विन्नी ने दो दिन तक खाना-पीना सब छोड़ दिया था, तब हारकर उन्होंने विन्नी को छठी कक्षा में प्रवेश दिलाया था।

समय की दौड़ के साथ विन्नी ने दसवीं कक्षा पास कर ली वह भी विद्यालय में प्रथम स्थान लेकर। वह बहुत ख़ुश हुई अब वह पापा से महाविद्यालय में दाखिला लेने की ज़िद करेगी। पर विन्नी की तकदीर में शायद कुछ और ही लिखा था। विधाता ने उसके ललाट में कष्टों की भरमार दी थी, तभी तो अचानक ही एक दिन एक दुर्घटना में उसके पापा की मृत्यु हो गई। अपने पापा की मौत पर विन्नी घर की दीवारों से सटकर फफ़क-फफ़क कर बहुत रोई पर अब उसके दिल की बात जानने और मानने वाला घर में कौन था। विमाता से जाये दो पुत्र राजेश और सुनील भी अपनी माँ के डर से विन्नी की कोई सहायता नहीं कर पाते थे। ऐसे में माँ का आदेश ही सर्वोपरि था।

विनीता ने एक दिन साहस करके माँ से चिरौरी की, कि उसे आगे की पढ़ाई जारी रखने दे तो भी माँ ने उसे डांटते हुए कहा था,-देख विन्नी, अब तू दूध पीती बच्ची तो है नहीं। घर से बाहर निकल कर कुछ ऊँच-नीच कर बैठी तो मैं तो समाज में मुँह दिखाने लायक भी नहीं रहूँगी। माँ की बात सुनकर वह तकिए में मुँह छुपाकर खूब रोई थी। क्या सभी विमाता एक सी ही होती हैं? नहीं, सब विमाता एक सी नहीं होती होंगी। वो तो विन्नी का ही दुर्भाग्य है, जो ऐसी विमाता मिली है नहीं तो, माँ तो माँ ही होती है। क्या विमाता के हृदय में भावनाएं नहीं होतीं।

पंखों की फड़फड़ाहट और गुटरगूं की आवाज से विनीता का ध्यान भंग हुआ। उसने देखा, मेनगेट की दोनों ओर की दीवारों पर 8-10 कबूतर बैठे दाना चुग रहे हैं और आपस में मस्त होकर कभी-कभी गुटरगूं करते हुए गोल-गोल नाचने भी लगते हैं। वह प्यार से उन्हें निहारने लगती है। जबसे उसने यह मकान बनवाया है, (उसका नित्य का नियम है कि वह सुबह जागकर, चारदीवारी पर अनाज के दाने डाल देती है तथा एक कटोरी में पानी भी भरकर रख देती है ताकि ये पक्षी आकर चुग सकें)। विमाता के भाई ने एक दिन आकर एक लड़के नवीन के बारे में ज़िक्र किया तो माँ ने तुरंत-फुरत ही विनीता को डोली में बिठाकर विदा कर दिया। उसके ससुर ग्राम प्रधान थे। नवीन को नौकर-चाकर, खाने-पीने की कोई कमी नहीं। नवीन का प्यार पाकर विनीता का रूप-सौन्दर्य खिल उठा। धीरे-धीरे उसने अपने व्यवहार से अपने सास-ससुर का दिल जीत लिया। ऐसे ही ख़ुशी-ख़ुशी दिन बीत रहे थे कि एक दिन डाक से एक पत्र आया। खोलकर देखा तो वह नवीन का सुपरवाईज़र के पद पर नियुक्ति हेतु पत्र था। नवीन ने डिप्लोमा तो किया ही हुआ था, अब नियुक्ति-पत्र भी आ गया, जानकर वह मन-ही-मन बहुत प्रसन्न हुई कि उसके ससुराली जन अब उसकी प्रशंसा करेंगे कि देखो घर में बहु के पैर पड़ते ही नवीन की नौकरी भी लग गई, बहुत ही लक्ष्मी आई है घर में। पर ये क्या! नौकरी की खबर का तो एकदम ही उल्टा असर हुआ। शायद ये विनीता के दुर्भाग्य का ही फल था कि जो लोग उसकी, उसके कामों की प्रशंसा करते नहीं थकते थे, एक दम से उसके विरोधी हो गये। सास ने तो तानों की भरमार ही कर दी-अरे, जाई ने उकसायौ होइगो मेरे बेटा कूँ के घर में का धरौ है, नौकरी करौ ताकि जेऊ नवीन के संग जाइके गुलछर्रे उड़ाय सकै। विनीता के काटो तो खून नहीं, ये क्या? क्या उसकी तकदीर में ताउम्र लाँछन सहने ही लिखे हैं? नवीन ने अपने माँ-बाप को बहुत समझाया कि इसमें विनीता का कोई दोष नहीं है। पर जब नवीन ने नौकरी पर जाने की ज़िद की तो सभी के कटाक्ष विनीता को छेदने लगे,- अरे कारे मूंड की आयके अच्छे-अच्छन कूँ माँ-बाप अरु भाई-भैन तैं अलैदा करि दैवें हैं, याही नें नवीन कूँ समझायौ होयगौ। एक वर्ष बाद नवीन, विनीता को भी अपने पास ले गया। नवीन को वहाँ एक अच्छा सा क्वार्टर मिला हुआ था, जिसकी खिड़की खोलने पर सामने पहाड़ और उसके ऊपर उगे हरे-भरे वृक्ष दिखाई पड़ते थे। विनीता को पहाड़ी के ऊपर उगे हरे-भरे वृक्ष बहुत लुभाते। नवीन उसे प्रसन्न रखने का हर सम्भव प्रयास करता। उसकी गोद में अब सौम्या आ गई थी। गोल-मटोल, सुन्दर सी गुड़िया सरीखी सौम्या को पा वह अपने मातृत्व पर फूली न समाती उसे अहसास होता कि मातृत्व-सुख प्रत्येक नारी के लिए एक अद्भुत और अनिवर्चनीय सुख होता है। दो वर्ष बाद ही ऋषभ के जन्म ने तो नवीन और विनीता की खुशियाँ दूनी कर दीं। सौम्या ने अब पांचवी कक्षा पास कर ली तो ऋषभ भी तीसरी कक्षा में आ गया था। नवीन की पदोन्नति हो गई थी। अब वे दफ्तर के कार्यों में अधिकाधिक व्यस्त रहने लगे थे। घर पर भी दफ्तर की फाइलें उठा लाते और देर रात तक काम करते रहते। नवीन के दफ्तर चले जाने के बाद, घर का सारा कार्य निपटा कर थोड़ी देर आराम करती या पत्र-पत्रिकाएं बढ़ती। फिर दोपहर को स्कूल से बच्चों के लौट आने पर उनके होमवर्क आदि में सहायता करती।

बचपन से ही वह आगे और आगे पढ़ते जाने की इच्छुक थी किन्तु मायके में विमाता ने 10वीं से आगे नहीं पढ़ने दिया। ससुराल आई तो वहाँ घर की बहू के घर से बाहर पढ़ने के लिए जाने पर ससुर जी की इज्जत को बट्टा लगता था। नन्हीं-नन्ही बूदों की बौछार ने अचानक विनीता को भिगोया तो विगत से निकल कर वह वर्तमान में आ गई। कुछ कबूतर भीगते हुए भी चारदीवारी पर पड़े गेहूँ के दानों को चुगने में व्यस्त थे, एक-दो गुटरगूं करते हुए गोल-गोल घूमकर नाच रहे थे जैसे कई दिनों की भीषण गर्मी के बाद इन नन्हीं-नन्हीं बूदों और शीतल हवा के झौंकों का भरपूर आनन्द वे भी लेना चाहते हों। विनीता ने अपनी आरामकुर्सी उठाकर पोर्च के अन्दर की ओर खिसका ली। विचारों की झंझा ने फिर से उसके हृदय को मथना शुरु कर दिया।
नवीन की एक ओर पदोन्नति हो गई थी। अब उसे डिप्टी मैनेजर बना दिया गया था, पर उसी के साथ उसका स्थानान्तरण कलकत्ता की ब्रान्च में कर दिया गया। विनीता और नवीन के लिए ये एक नई समस्या थी उ.प्र. के विद्यालयों में पढ़ रहे बच्चे, बंगाल के विद्यालयों में किस प्रकार समायोजित हो पायेंगे? प्रदेश, भाषा, रहन-सहन सभी का बदलाव बच्चों के भविष्य को चौपट न कर दे, यही सोच विनीता ने नवीन के सुझाव पर, पड़ोस में किराये पर रहते हुए इस मकान को बनाने की जिम्मेदारी अपने ऊपर ले ली थी। महिला होते हुए भी दो-दो बच्चों की देखभाल, खाने-पीने का प्रबन्ध और फिर मकान बनवाने हेतु सारे संसाधनों को जुटाना, विनीता शाम तक थक कर चूर हो जाती, फिर भी अकेली जुटी रहती, इस आन्तरिक प्रसन्नता के साथ कि चलो थोड़े कष्ट के बाद अपना भी घर होगा। नवीन के व्यवहार में कुछ परिवर्तन सा महसूस करने लगी थी विनीता। नवीन, कलकत्ता से फोन पर तो बहुत मीठी-मीठी बातें करता पर जब एक-दो हफ्ते के अवकाश पर घर आता तो प्यार की सारी बातें भूल कर बात-बात पर विनीता से झल्ला उठता था, उसे डाँट देता। विनीता उसका मुँह ताकते रह जाती। ये क्या हो गया कलकत्ता जाकर इन्हें? और फिर वह अपने दुर्भाग्य को कोसने लगती। कभी-कभी तो नवीन के साथ इतनी झड़प हो जाती कि वह जीवन से विरल हो उठती। यहाँ तक कि कभी-कभी तो वह आत्महत्या कर लेने तक की सोच बैठती। क्या करे, आखिर क्या करे वह ऐसे जीवन का, जिसमें होश सम्भालने से लेकर अब तक दूसरों और अपनों की भी विष बुझे तीर सी जली-कटी बातों को वह झेलती आ रही है। क्या होता जा रहा है नवीन को? कहीं कलकत्ता में किसी चुड़ैल ने बंगाल का जादू तो नहीं कर दिया? उसका नारी मन शंकालु हो उठता आखिर क्या हो जाता है पुरूषों को? क्या आदि काल से चली आ रही पुरुष प्रधानता का कभी अन्त होगा भी या नहीं? या नारी हमेशा भोग्या और पुरूष के पैर की जूती ही बनी रहेगी? नारी मन की सुकोमलता, उसके हृदय की भावुकता और पीड़ा को कब समझेगा पुरूष? अनायास ही विनीता की आँखों से अविरल अश्रुधारा बह निकली। आज वह नवीन के आते ही उससे बात करेगी कि आख़िर मुझमें ऐसी क्या कमी आ गई है जो नवीन का व्यवहार इतना बदल गया है। वह सोचे जा रही थी कि तभी नवीन ने पीछे से आकर उसकी दोनों आँखों को अपनी हथेलियों से ढक दिया। विनीता हड़बड़ाकर एक दम से उठ खड़ी हुई।

अरे! विनीता तुम रो रही हो, क्यों? चौंकते हुए नवीन ने पूछा तो विनीता, नवीन के कन्धों पर अपना सिर टिका कर फफ़क-फफ़क कर रो पड़ी। यदि तुम मेरे बदले हुए व्यवहार से आहत हो तो सचमुच मैंने तुम्हें बहुत कष्ट दिए हैं, लेकिन अब ऐसा नहीं होगा विनीता, मैं भटक गया था, मुझे माफ़ कर दो। कहते हुए नवीन ने अपने दोनों हाथों से उसके कपोलों को पकड़ उसके मस्तक पर एक चुंबन अंकित कर दिया।

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