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चित्र फलक पर गांव

चित्र फलक पर गांव

by मनमोहन सरल
in ग्रामोदय दीपावली विशेषांक २०१६, साहित्य
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गांवों ने न केवल हमारे राजनीतिज्ञों, कवियों, लेखकों को आलोकित किया है, चित्रकार भी इससे अछूते नहीं रहे हैं। यह कथन सही है कि भारत की आत्मा गांवों में ही बसती है।

महात्मा गांधी का यह कथन तो प्रसिद्ध है कि भारत का भविष्य गांवों में बसता है। महान कवि सुमित्रानंदन पंत ने पूरी कविता ही लिखी थी और भारतमाता को ग्रामवासिनी माना था। महाकवि पं.सूर्यकांत निराला यद्यपि रहते तो प्रयाग में थे किन्तु उनकी रचनाओं में भी गांव झलकता था। जब रचनाशील साहित्यकार गांव और ग्राम्य जीवन से प्रेरित थे तब चित्रकार कैसे बचे रह सकते थे? 19वीं शताब्दी के उत्तरार्ध में जब भारतीय चित्रकला पर समकालीन कला का प्रभाव सामने आने लगा तो अनेक चित्रकारों ने गांव और ग्राम्य-जीवन को अपने चित्रों का विषय बनाना आरंभ कर दिया। यहां तक कि वे चित्रकार, जो बाद में अमूर्त्त अथवा अन्य शैलियों में काम करके आज प्रसिद्ध हुए हैं, अपने शुरुआती दिनों में गांव या आम आदमियों के दिन-प्रतिदिन के कार्यकलाप को अपने चित्रों का विषय बनाते रहे थे।

अगर हम भारतीय चित्रकला के इतिहास पर नज़र डालें तो साफ पता लगेगा कि कला के शुरुआती दौर में ही कई चित्रकार गांवों और गांवोें के जन-जीवन को अपने चित्रों का विषय बनाते रहे हैं। बल्कि कुछ ने तो अपनी एकल प्रदर्शनियां भी गांव केचित्रों की ही की थीं। इतिहास को खंगालते समय कुछ ऐसे नाम तो तुरंत आते हैं, जैसे आबालाल रहमान (1859-1931), जिनका मूल नाम अब्दुल अज़ीज़ रहमान था। इसी क्रम में थे लक्ष्मण नारायण तास्कर ( 1870-1937), जिनकी कृति ‘मार्केट प्लेस’ आज भी याद की जाती है। गांवों में जो साप्ताहिक बाज़ार लगता था, यह उसका चित्रण है। जाने-माने चित्रकार धुरंधर (1867-1944), जिनका पूऱा नाम था, विश्वनाथ माधव धुरंधर, ने भी कई पेंटिंग गांवों को केंद्र में रख कर बनाई थीं। उनकी पत्नी अंबिका महादेव ( 1912-2009) का काम भी कई बार ग्राम्य जन-जीवन से प्रेरित रहा है। प्रख्यात चित्रकार सैयद हैदर रज़ा (जिनका अभी हाल में निधन हुआ है) के गुरु जगन्नाथ मुरलीधर अहिवासी (1901-1973) की कला यद्यपि मिनियेचर कला से प्रेरित थी,गांवों को नहीं भूले थे।

कई चित्रकार बाद में अमूर्त्त या अन्य शैलियों में काम करने के कारण कला-जगत में अपना स्थान बना पाए हैं, वे भी प्रायः शुरू में ग्राम्य-जीवन को चित्रित करते रहे हैं। उनकी शुरुआती रचनाएं यथार्थवादी शैली में थीं और उनके मूल में गांव ही था। वासुदेव गोविंद कुलकर्णी (1903-1985) की यथार्थवादी शैली के चित्र या कृष्ण श्यामराव कुलकर्णी (1916-1994) का चित्र ’बास्केट बनाने वाला’ इसी प्रकार का था। प्रोग्रेसिव कला आंदोलन के हरि अंबादास गाडे (1917-2001) भी ग्राम्य विषयों से अछूते न रहे थे। जनार्दन दत्तात्रेय गोंधलेकर (1909-1981) का चित्र ‘कापणी’ इसका उदाहरण है। अपने मोहक चित्रों के लिए चर्चित दीनानाथ दामोदर दलाल (1916-1971) ने कितने ही चित्र ग्राम-बालाओं के बनाए हैं । इसी क्रम में आते हैं आलमेलकर अब्दुर्रहमान अप्पाभाई (1920-1982) के ‘फसल के बाद नृत्य’ या ‘प्लेज़र आयलैंड’जैसे चित्र आज भी याद किए जाते हैं। एस.एम.पंडित (1916-1993) के चित्रों के विषय धार्मिक और ग्राम्य बालाएं ही थे। इसी तरह प्रसिद्ध चित्रकार बदरीनारायण ने ज्यादातर चित्र गांव के विषयों पर ही बनाए। अब्दुल अज़ीज़ रायबा, रघुवीर शंकर मुलगांवकर (1918-1976), एस.एस.शेख, बी.प्रभा, रम्य चित्रों के लिए प्रसिद्ध जॉन फर्नांडीस ( 1951-2007), माधव श्रीपाद सातवलेकर (1915-2006) आदि कई चित्रकार गांवों के दृश्य या ग्राम-बालाएं बनाते रहे हैं। जैसे ‘कुम्हार’ या ‘पतंगवाला’। वे बेलगांव में जन्मे थे। वहां की यादें बाद में भी उनके काम में चित्रित होती रहीं। मालवा के नारायण श्रीधर बेंद्रे (1935-1992) के ग्राम्य विषय तो आज तक याद किए जाते हैं। उनकी विशिष्ट शैली ’प्वाइंटल़िम’ के कारण ये चित्र आज कला जगत की सम्पदा बन गए हैं।

उल्लेखनीय हैं कई अमूर्त्त चित्रकार, जो अपने आरंभिक समय में यथार्थवादी शैली में ग्राम्य-विषय ही बनाते रहे हैं। प्रसिद्ध कलागुरु पलसीकर (शंकर बलवंत) जो जे.जे के दिनों में अमूर्त्त शैली की वकालत करते रहे और कई विद्यार्थियों के प्रेरणा-स्रोत रहे हैं, ने अपनी चर्चित प्रदर्शनी की थी -‘विलेज लाइफ’ (1944) और बाद में 1950 में ‘सिनर्सडिवाइन’ भी गांव के दृश्यों को ही पेश करती थी। इसी प्रकार अमूर्त्त धारा के आज सबसे चर्चित और सबसे महंगे चित्रकार वासुदेव संतु गायतोंडे (1924-2001) का चित्र ‘प्रतीक्षा’ भारतीय यथार्थवादी शैली में ही है। उसी दौर के कई चित्र आज मूल्यवान माने जाते हैं।

सैयद हैदर रज़ा (1922-2016) को बहुचर्चित बिंदु और उनके पेरिस प्रवास का चित्र ‘काला सूरज’ यद्यपि सीधे गांव को प्रकट नहीं करता, किंतु उनका मूल स्रोत गांव ही है। उनका जन्म मध्यप्रदेश के घने जंगलों में हुआ था, जहां सघन पेड़ों के कारण दिन में भी अंधेरा रहता था। उन्होंने कई बार बताया था कि अंधेरी रात में हम काले आतंक के साये में रहते थे और सुबह के सूरज का इंतज़ार करते रहते थे। सुबह की पहली सुनहरी किरण आने पर ही उस आतंक का अंत होता था। जंगलों में बचपन बिताने के कारण उनका प्रकृति से सीधा साक्षात्कार हुआ था, जिसका प्रभाव उनके तमाम कृतित्व पर रहा था। उन्होंने भी अपनी शुरुआत भूदृश्यों से की थी। जब वे अपनी साइकिल बेच कर जेजे में पढ़ने के लिए बम्बई (तब वह मुंबई नहीं हुआ था) तो संघर्ष के दिनोें में एक दवा कम्पनी का काम लिया था, जिसके दौरान उन्हें जगह-जगह जाकर चित्र बनाने होते थे। कश्मीर पर उनकी एक चित्रमाला बहुत प्रसिद्ध हुई थी। यों भी वे शुरू में लैंडस्केप ही बनाते रहे थे ।

एक अन्य अमूर्त्त चित्रकार रवि रामभाऊ मांडलिक का जन्म विदर्भ के अचलपुर गांव में हुआ था (1960)। वे बताते हैं कि अमूर्त्तता का विचार उन्हें अपने गांव के तालाब से आया, जहां वे बचपन में घंटों बिताते थे । तालाब की सतह पर तैरती परछाइयां और सवार आदि ने उनके मन में अनोखा एब्स्ट्रक्ट भाव पैदा किया, जिसने ही उनके अमूर्त्त चित्रों को जन्म दिया। यों उनकी पहली प्रदर्शनी ‘श्रमजीवी’ गांव के खेतिहर मज़दूरों से प्रेरित थी जो 1985 में हुई थी। दत्रातेय पाडेकर ( जन्म 1950) तो साफ कहते हैं कि वे अपने गांव और वहां के जन-जीवन को ही चित्रित करते हैं। चित्रकार जे.पी.सिंघल (1934-2014) ने बस्तर आदि के आदिवासियों को चित्रित किया है। युवा चित्रकार नवजोत अल्ताफ (ज. 1941) भी कई वर्ष बस्तर के आदिवासियों के बीच रही हैं और उनके जन-जीवन पर काम करती रही हैं। दीपक गोविंद शिंदे (ज. 1946) अपने कोल्हापुर तालुके में स्थित गांव से प्रे्ररणा पाते रहे हैं। अब भी वे मुंबई की भागमभाग जिन्दगी से दूर एक आउट हाउस बना कर रहते हैं और वहीं चित्र बनाते हैं।

वरिष्ठ चित्रकारों में मक़बूल फिदा हुसेन (1915-2011) ने वहुविध काम किया है। उनकी अनेक चर्चित चित्र-शृंखलाओं में कई बार गांव भी आया है। 1947 में जब भारत स्वतंत्र हुआ, बांबे आर्ट सोसायटी की एक विशिष्ट प्रदर्शनी हुई। इसमें हुसेन ने ‘सुनहरा संसार’ शीर्षक से एक चित्र प्रदर्शित किया था, जिसे बहुत प्रशंसा मिली। इसमें ग्रामीण पृष्ठभूमि प्रमुख थी। इसमें किसान परिवार और बैलगाड़ी के माध्यम से आज़ादी से स्वर्णकाल आने की संभावना को चित्रित किया गया था।

कृष्ण कट्टिनगेरी हेब्बार (1911-1996) दक्षिण कर्नाटक के कट्टिनगरी गांव में जन्मे थे। उन्होंने शुरू में दीवार पर कोयले से चित्र बनाए थे। परिवार इतना गरीब था कि रंग खरीदने के लिए पैसे न थे। घर में मिलने वाली चीज़ों से ही तब चित्र बनाए थे, जैसे गेरू, हल्दी, कोयला, खड़िया, चूना आदि। आरम्भिक चित्र अपने गांव के ही थे। बाद में शहर, प्रकृति, भारतीय संस्कृति, तीज-त्योहार, यहां तक कि देश-विदेश की समस्याएं आदि उनके चित्रों के विषय बने।

इस प्रकार गांवों ने न केवल हमारे राजनीतिज्ञों, कवियों, लेखकों को आलोकित किया है, चित्रकार भी इससे अछूते नहीं रहे हैं। यह कथन सही है कि भारत की आत्मा गांवों में ही बसती है।

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