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सेवाभावी-उद्यमी प्रशांत कारुलकर

सेवाभावी-उद्यमी प्रशांत कारुलकर

by अमोल पेडणेकर
in जून २०२१, सामाजिक
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भारत और चीन के बीच हुई हिंसक झड़प के बाद लोगों ने आत्मनिर्भरता पर ज्यादा बल दिया है और तेजी से स्वदेशी सामान की तरफ बढ़ रहे है। हमने दिवाली और होली जैसे त्यौहारों के दौरान भी लोगों को स्वदेशी सामान की मांग करते हुए देखा है। कंपनियां भी शहर के साथ-साथ गांवों का रुख कर रही हैं क्योंकि गांव में जमीन सस्ते दर में उपलब्ध हो जाती है और वहां काम करने वालों की भी कोई कमी नहीं है। इसलिए ही हम भी गांव की तरफ रुख कर रहे हैं।

पिछले करीब 50 वर्षों से अधिक समय से कारुलकर प्रतिष्ठान लोगों की सेवा में तत्पर है और यह अब भी बिना किसी रुकावट के लोगों की सेवा कर रहा है। इस ट्रस्ट के चेयरमैन प्रशांत कारुलकर ने बताया कि उनकी दादी ने समाजसेवाशुरु की थी। उसके बाद उनके पिता जी और अब यह उनके परिवार की तीसरी पीढ़ी है जो समाज सेवा का काम कर रही है। समाज सेवा का काम तो और भी कई लोग कर रहे है लेकिन कारुलकर ट्रस्ट इन सबसे थोड़ा अलग है क्योंकि यह ट्र्स्ट सिर्फ अपने पैसों से ही सेवा करता है इन्होंने आज तक किसी से भी एक पैसा दान नहीं लिया है। प्रशांत कारुलकर ने समाजसेवा पर बात करते हुए बताया कि उनके पिताजी इंजिनियर थे जो कुछ समय तक कुवैत में कार्यरत थे और फिर भारत लौट कर संघ के साथ समाज सेवा में जुट गये। उनकी दादी कमलाबाई जो कि एक शिक्षिका थीं ने सन 1969 में अपने गांव झरी में पहला स्कूल बनाया था। इससे पहले वहां स्कूल नहीं था जिससे लोग कम शिक्षित थे। कमलाबाई कारुलकर के इस प्रयास ने एक बड़ा परिवर्तन लाया और लोगों में शिक्षा को लेकर एक उम्मीद जगी। वैसे मदद किसी भी प्रकार से की जाए वह हमेशा से ही सराहनीय होती है, लेकिन आप अगर किसी को शिक्षा में मदद करते हैं तो आप एक परिवार को गरीबी और अशिक्षा से उबार देते हैं, जिससे वह हमेशा के लिए अपने पैरों पर खड़ा हो जायेगा।

वर्ष 2020 का 24 मार्च का दिन भी किसी को भूलेगा नहीं, जब देश के प्रधानमंत्री नरेद्र मोदी ने देशव्यापी लॉकडाउन की घोषणा कर दी। ऐसा पहली बार हुआ था। हालात कुछ आपातकाल जैसे नजर आने लगे थे। लोगों को कुछ समझ भी नहीं आ रहा था कि आखिर क्या करना है, क्या नहीं। लॉकडाउन का नाम भी ज्यादातर लोगों ने पहली बार सुना था इससे पहले ऐसी कोई स्थिति ही पैदा नहीं हुई थी, जब ऐसा कुछ करना पड़े। सरकार के लॉकडाउन के फैसले के बाद मजदूर और छोटे उद्योग-धंधे वाले लोग बुरी तरह से परेशान हो गये जिसके बाद लोगों ने धीरे-धीरे घर की तरफ लौटना शुरु कर दिया। मजदूरों के पास ना पैसा था और ना ही खाना फिर भी मरता क्या न करता की कहावत को चरितार्थ करते हुए सभी पैदल गावों की तरफ चल दिये। इस मुसीबत की घड़ी में एक बार फिर कारुलकर ट्रस्ट ने अपने सेवाभाव का परिचय दिया और सड़क पर चलने वाले मजदूरों के भोजन और दवा का पूरा प्रबंध किया। ट्रस्ट के चेयरमैन ने बताया कि हमने सड़कों से जाने वाले लोगों के लिए महीनों तक भोजन और दवा का काम जारी रखा, साथ ही रा. स्व. संघ के स्वयंसेवकों की मदद से उन लोगों को भी भोजन दिया जहां प्रशासन नहीं पहुंच सका था।

ट्रस्ट की सचिव तथा प्रशांत कारुलकर की पत्नी श्रीमती शीतल कारुलकर ने बताया कि 25 मार्च से ट्रस्ट के करीब 3 हजार कार्यकर्ता सड़क पर उतर गये और मदद कार्यो में लग गये थे। ट्रस्ट की तरफ से मुंबई के तलासरी और दहिसर क्षेत्र में मजदूरों को खाना और पानी मुफ्त में दिया गया और ट्रस्ट की तरफ से यह भी आश्वासन दिया गया कि जब तक लॉकडाउन है तब तक यह सेवाकार्य चलता रहेगा। तलासरी और डहाणु क्षेत्र में ऐसी आदिवासी बस्तियां भी हैं जहां सरकार का भी राहत पैकेज नहीं पहुंच पाता है। कारुलकर ट्रस्ट के लोगों ने उन लोगों तक भी अपनी पहुंच बनायी और सभी को जरुरी सामान मुहैया कराया। डहाणु क्षेत्र के हर आदिवासी गाव में से एकपरिवार कारुलकर ट्रस्ट से जुड़ा हुआ है और इन्हीं लोगों की मदद से बाकी सभी को खाना और जरुरी सामान मिल पाता है। लॉकडाउन की वजह से बाहर कहीं भी निकलने पर पाबंदी थी इसलिए ऐसे राहत के कामों में ग्राम पंचायत, तहसीलदार सहित तमाम सरकारी कर्मचारियों की मदद लेनी पड़ी। आदिवासी समाज के लोग जंगल की लकड़ी काटने और आस-पास के बाजार में बेचने जैसा छोटा-मोटा काम करते हैं लेकिन लॉकडाउन के बाद उनका पूरा कामकाज बंद हो गया। इनके पास कोई जमापूंजी भी नहीं होती है जिससे यह अपना आगे का जीवन गुजार सकें। ऐसे में कारुलकर ट्रस्ट ने इनके पास पहुंचकर इनकी बहुत मदद की और इनके बीच आशा की नई किरण पैदा की।

पालघर की अप्रैल 2020 की साधुओं की हत्या की घटना तो सभी को याद होगी। जब एक भीड़ ने दो भगवाधारी साधुओं की पीट-पीट कर हत्या कर दी थी। इस नृशंस हत्याकांड में कल्पवृक्ष गिरी जी महाराज और सुशील गिरी जी महाराज के साथ उनके ड्राइवर को भी नहीं बक्शा गया था और रात के अंधेरे में सभी को जान से मार दिया गया। इस खबर को मीडिया ने तो बहुत तूल दिया लेकिन इससे किसी का प्रत्यक्ष रूप से कोई फायदा नहीं हुआ। घटना में मारे गये ड्राइवर निलेश तेलगड़े के निधन से उसका पूरा परिवार बिखर गया क्योंकि वह परिवार का अकेला अर्थार्जन करने वाला सदस्य था। निलेश के परिवार में बूढ़ी मां, उसकी पत्नी और दो बेटीयां हैं जो पूरी तरह से बेसहारा हो गए थे। लेकिन कारुलकर प्रतिष्ठान ने इस मुश्किल घड़ी में उनका साथ दिया और उन्हें 51000 हजार रुपये की सहायता राशि प्रदान की। साथ ही दोनों बेटियों सानिका और शालिनी की पढ़ाई की जिम्मेदारी भी अपने ऊपर ले ली। ट्रस्ट की सेक्रेटरी शीतल कारुलकर ने मृतक वाहन चालक की पत्नी को सांत्वना दी और भविष्य में किसी भी तरह की मदद का भरोसा दिलाया।

प्रशांत कारुलकर ने बताया कि करीब तीन पीढ़ियों से समाजसेवा कर रहे उनके परिवार ने आज तक किसी से दान नहीं लिया। उन्होंने अपने सामर्थ्य के बल पर ही हमेशा मदद जारी रखी तो फिर ऐसे में यह सवाल भी उठता है कि आखिर उनका व्यवसाय क्या है। प्रशांत ने पढ़ाई के बाद रेत के व्यवसाय के क्षेत्र में कदम रखा और लगातार सफल होते गये। प्रशांत ने इंश्योरेंस, बैंकिग और स्टॉक मार्केटिंग का व्यवसाय भी शुरु किया जो उन्हें एक ऊंचे मुकाम पर ले गया। प्रशांत कारुलकर ने यह भी बताया कि उन्होंने गरीब जनता के लिए एक विशेष इंश्योरेंस प्लान तैयार किया है जिसका प्रीमियम बहुत ही कम रखा गया है जिससे ग्रामीण और मजदूर वर्ग आसानी से इसे ले सकता है। एक आकंड़े के मुताबिक भारत में मात्र 3.71 प्रतिशत लोग ही इंश्योरेस लेते हैं जबकि ग्रामीण इलाके में यह आंकड़ा 0.5 फीसदी से भी कम है। प्रशांत ने बताया कि उन्होंने इश्योरेंस को लेकर बहुत रिसर्च किया है। यह सभी को पता है कि इश्योरेंस हर क्षेत्र में एक अच्छा विकल्प है लेकिन महंगे प्रीमियम की वजह से लोग इसे लेने से बचते है। प्रशांत ने कहा कि उन्होंने इन्हीं सब बातों को ध्यान में रखते हुए बीमा मंडी की शुरुआत की है जहां बहुत की कम प्रीमियम में ग्रामीणों और मजदूरों को सिक्योर किया जायेगा।
कारुलकर ट्रस्ट के चेयरमैन प्रशांत ने बताया कि वह आत्मनिर्भर भारत की दिशा में भी काम कर रहे हैं। उन्होंने बताया कि जब से प्रधानमंत्री ने आत्मनिर्भर भारत का ऐलान किया है तब से तमाम लोग इस दिशा में काम कर रहे हैं और इसे बढ़ावा दे रहे हैं। भारत और चीन के बीच हुई हिंसक झड़प के बाद लोगों ने आत्मनिर्भरता पर ज्यादा बल दिया है और तेजी से स्वदेशी सामान की तरफ बढ़ रहे है। हमने दिवाली और होली जैसे त्यौहारों के दौरान भी लोगों को स्वदेशी समान की मांग करते हुए देखा है। कंपनियां भी शहर के साथ-साथ गांवों का रुख कर रही हैं क्योंकि गांव में जमीन सस्ते दर में उपलब्ध हो जाती है और वहां काम करने वालों की भी कोई कमी नहीं है। इसलिए ही हम भी गांव की तरफ रुख कर रहे हैं। अभी तक हम 5 राज्यों तक पहुंचे हैं जबकि कुल 11 राज्यों तक पहुंचना हमारा लक्ष्य है।

कारुलकर ट्रस्ट के कार्यों पर नजर डालें तो यह समझ में आता है कि सेवा करने के लिए पैसे से अधिक प्रेरणा का जरुरत होती है। प्रशांत कारुलकर को यह प्रेरणा अपने परिवार से मिली और वह लगातार बिना किसी की मदद लिएलोगों की मदद करते रहे। कारुलकर ट्रस्ट की मदद से ना सिर्फ लोगों को जरुरी सामान मिला बल्कि कई लोगों की जिंदगी भी बदल गयी, जिससे अब वे समाज में एक नये बदलाव के साथ जी सकेंगे। प्रशांत कारुलकर को परिवर्तन का शिल्पकार कहना गलत नहीं होगा क्योंकि उन्होंने अभी तक बहुत से लोगों की जिंदगी बदल दी है।

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अमोल पेडणेकर

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