पर्वतारोहियों के लिए पहाड़ भले ही फतह करके वाहवाही लूटने का माध्यम हों, लेकिन उत्तराखंड की पर्वतारोही डॉ. हर्षवंती बिष्ट के लिए वे हर परिस्थिति में संरक्षित करने की प्रकृति प्रदत्त संपदा हैं| इसलिए करीब ३० साल पहले जब अन्य पर्वतारोही बार-बार पहाड़ पर विजय प्राप्त करके मैडल जीतने की होड़ में लगे थे उस समय डॉ. बिष्ट ने पहाड़ से लुप्त हो रहे दुर्लभ भोजवृक्षों को बचाने के लिए अपना पूरा जीवन समर्पित करने का संकल्प लिया, वे आज भी निभा रही हैं|
अपनी अथक मेहनत के बाद उन्होंने उत्तराखंड के उत्तर काशी जिले में भोजवृक्ष के उस दुर्लभ जंगल को जीवनदान दिया जो वनमाफिया और गंगोत्री जाने वाले तीर्थयात्रियों की नासमझी के कारण विलुप्त होने के कगार पर पहुंच गया था| गंगोत्री-उत्तर काशी क्षेत्र में उनके प्रयासों से अभी तक २०,००० से अधिक भोजवृक्ष के पौधे और हजारांें की संख्या में अन्य दुर्लभ जड़ी-बूटियों व अन्य वृक्षों के पौधे रोपे जा चुके हैं| भोजवृक्ष के कुछ पौधे तो बीस साल में अब करीब १६ फीट उंचे वृक्ष बन चुके हैं| जी हां, करीब १६ फीट यानि एक साल में एक फीट भी नहीं| इसका कारण वहां की अत्यधित ठंडी जलवायु है जिसमें वृक्षों की प्रगति बहुत धीमी गति से ही होती है|
करीब पांच दशक पूर्व उत्तराखंड के उत्तर काशी जिले में गोमुख से करीब १४ किमी दूर और समुद्र तट से ३,७९२ मीटर की ऊंचाई पर स्थित भोजवासा में प्राकृतिक सघन वन हुआ करता था, जिसमें २५ हजार से अधिक भोजवृक्ष थे| किन्तु हिमालय के इस अत्यंत दुर्गम क्षेत्र में १९७० से लेकर १९९० तक वन माफिया तथा गंगोत्री जाने वालेे श्रद्धालुओं ने प्राय: २०-२५ फुट ऊंचाई तक बढ़ने वाले इन पेड़ों को काट कर नष्ट कर दिया| वन माफिया ने जहां इससे पैसा बनाया, वहीं तीर्थयात्रियों ने नासमझी के कारण उन्हें काट कर झोपड़ियां बनाईं या फिर जलावन के रूप में इस्तेमाल किया| जंगल की सुरक्षा के लिए जिम्मेदार वन विभाग को भी इसकी खबर तब लगी जब पर्यावरणवादियों ने इसे लेकर शोर मचाना शुरू किया| किन्तु तब तक बहुत देर हो चुकी थी और वहां भोजवृक्ष के मात्र गिनती के वृक्ष बचे थे| यह इतना दुर्गम इलाका है जहां ३६०० से ४२०० मीटर की ऊंचाई पर उगने वाला भोजवृक्ष ही एकमात्र वृक्ष है| उसके बाद वहां किसी प्रकार का वृक्ष नहीं उगता|
इस स्थिति ने पौडी गढ़वाल के कोटद्वार की रहने वाली पर्वतारोही डॉ. हर्षवंती बिष्ट को विचलित कर दिया| पेशे से शिक्षिका होने के बावजूद पर्वतारोहण के गुर सीखने के लिए गंगोत्री क्षेत्र में उनका आना-जाना रहता था| गंगा के उद्गम गोमुख में तेजी से पिघलते, टूटते गंगोत्री ग्लेशियर और गोमुख क्षेत्र के आस-पास विलुप्त होते भोजवृक्ष और दूसरी दुर्लभ वनस्पतियों की वे गवाह रहीं| ग्लेशियर खत्म होने, गंगा के सूख जाने की खबरों और वैज्ञानिक निष्कर्षों से उन्हें लगा कि इस पवित्र नदी के संरक्षण के लिए शीघ्र ठोस उपाय न किए गए तो आने वाले समय में वह किवंदती बनकर रह जाएगी| इसलिए उन्होंने १९८९ में पर्वतारोहण में आगे जाने की बजाए गोमुख क्षेत्र में ही भोजवृक्ष और अन्य वनस्पतियों को बचाने का संकल्प लिया|
प्रथम नन्दा देवी शिखर विजेता डॉ. बिष्ट ने चीडवासा से लेकर भोजवासा और गोमुख के मुहाने तक के क्षेत्र को अपनी कर्मभूमि बनाया| ३६००-३८०० मीटर तक की ऊंचाई पर ऑक्सीजन की कमी वाले इस क्षेत्र की बर्फीली हवाओं में भोजवृक्षों की नर्सरी तैयार करना और खुद को इस अति संवदेनशील क्षेत्र में सुरक्षित रखना अत्यंत दुष्कर और चुनौतीपूर्ण कार्य था| फिर भी गत २० वर्षों से वे अपने सहयोगी और उत्तर काशी स्थित नेहरू पर्वतारोहण संस्थान से मुख्य प्रशिक्षक के पद से सेवानिवृत्त हुए श्री रतन सिंह के साथ इस क्षेत्र में भोजवृक्षों की नर्सरी तैयार करने से लेकर उनके सफल रोपण की मुहिम में जुटी हैं|
१९९२ में राज्य के वन विभाग ने भोजवासा में उन्हें १२ हेक्टेयर जमीन में वृक्षारोपण और चीडवासा में आधे हेक्टेयर में नर्सरी तैयार करने की अनुमति दी| इस क्षेत्र के वृक्षों और वनस्पतियों की जन्म दर बहुत कम और सफल वृक्षारोपण की गति बहुत धीमी है| इसलिए डॉ. बिष्ट को चीडवासा में भोजवृक्ष और दूसरी प्रजातियों के भांगिल और पहाड़ी पीपल की नर्सरी उगाने में पांच साल लग गए| १९९६ में उन्होंने भोजवासा में इनके ३००० पौधों का रोपण किया| उसके बाद तमाम प्रताड़ना और तिरस्कार झेलने के बावजूद उन्होंने कभी पीछे मुड़ कर नहीं देखा|
फिर भी प्रतिकूल मौसम में भोजवृक्ष के सफल वृक्षारोपण से उत्साहित डॉ. बिष्ट ने चीडवासा के उच्च हिमालय क्षेत्र में उगने वाली दुर्लभ औषधीय जड़ी-बूटियों की नर्सरी तैयार करने और उन्हें उनके अनुरूप वातावरण में रोपित करने की योजना बनाई| वन विभाग ने २००२ में चीडवासा में चार जड़ी-बूटियों यानि अतीश, कुटकी, सालम पंजा और आर्चा की नर्सरी शुरू करने के अलावा उन्हें उस क्षेत्र में रोपित करने की अनुमति दी| उस नर्सरी के माध्यम से २०,००० से अधिक भोजवृक्ष, भांगिल, पहाड़ी पीपल के अलावा औषधीय वनस्पतियों के १२,००० से अधिक पौधे चीडवासा क्षेत्र में रोपित किए गए हैं| इस नेक काम में सहयोग करने की बजाय वन विभाग ने बार-बार परेशान किया| डॉ. बिष्ट बताती हैं कि ‘‘१९९२ में समय-समय पर वन विभाग हमें वृक्षारोपण करने से रोक देता था जिसके चलते नर्सरी में तैयार हजारों पौधे अन्यत्र रोपण न होने से सूख गए थे|’’
वन विभाग ने कभी अनुमति देने में कोताही बरती तो कभी उस क्षेत्र में नर्सरी और वृक्षारोपण कार्य तुरंत बंद करने के आदेश दिए| करीब ७ साल पहले इन वृक्षों की देखरेख में लगे दो श्रमिकों पर मुकदमा करके डॉ. बिष्ट को भी उसमें सह-अभियुक्त बना दिया गया| हालांकि बाद में वह मामला अदालत में टिक नहीं सका| डॉ. बिष्ट कहती हैं, ‘‘मुझे यह काम पहाड़ की चोटी पर चढ़ने से भी अधिक चुनौतीपूर्ण महसूस हुआ|’’ फिर भी उन्होंने हिम्मत नहीं हारी है और वे अपने वेतन से ही भोजवृक्षों का रोपण और संरक्षण करने में जुटी हैं|
इस काम में आई बाधाओं की चर्चा करते हुए वे कहती हैं, ‘‘पर्यावरण संरक्षण के लिए भी हमें बार-बार प्रशासन से अनुमति लेनी पड़ती है| यह काम हमारे निजी लाभ के लिए नहीं है| यह सम्पूर्ण मानवता के लिए है| अभी हमारे पास सिर्फ नवम्बर २०१७ तक की अनुमति है| इसके बाद फिर अनुमति लेनी होगी और अनुमति लेना अपने आप में बहुत दुष्कर कार्य है| पर्यावरण संरक्षण के लिए आज नमामी गंगे से लेकर न जाने कितनी योजनाएं चलाई जा रही हैं लेकिन हम जैसे लोग जो निःस्वार्थ भाव से जंगल रक्षा में लगे हैं उन्हें इतना प्रताड़ित किया जा रहा है| हमें मानसिक रूप से बहुत यंत्रणा झेलनी पड़ रही है|’’
वे बताती हैं, ‘‘पहले तो वन विभाग नष्ट हो चुके भोजवृक्षों के जंगल को फिर से जीवित करने की अनुमति देने के लिए कई साल तक तैयार ही नहीं हुआ| हमें कहा गया कि आपको वहां काम करने की जरूरत ही नहीं है| इसके बावजूद हमने वहां काम करने की ठान ली तो वन विभाग ने भी किसी भी सूरत में काम बंद कराने की जिद पकड़ ली| हमें बार-बार कहा जाता था कि हमें वहां जाने की जरूरत ही नहीं हैं| मैंने उनसे निवेदन किया कि इसमें मेरा व्यक्तिगत हित नहीं हैं| यह सम्पूर्ण समाज के हित का काम है इसलिए इसे करने दिया जाए| फिर बड़ी मुश्किल से अनुमति मिली| अब हर साल अनुमति लेनी पड़ती है| मेरा कहना है कि जो पेड़ हमने लगाए हैं वे थोड़े बड़े हो जाएं फिर वन विभाग यदि हमें वहां नहीं भी जाने देगा तो भी हम स्वीकार कर लेंगे| लेकिन वन विभाग में कोई सुनने को तैयार ही नहीं है| यह सच है कि वह बहुत ठंडी जगह है यानि ठंडा रेगिस्तान| फिर भी वहां पेड़ बढ़ तो रहे ही हैं| गति बहुत कम है| १९९६ में हमने जो पेड़ लगाए थे यदि वे किसी अन्य स्थान पर होते तो अभी तक विशाल वृक्ष बन गए होते| परंतु वहां वे अभी करीब १६ फुट ऊंचे ही हुए हैं| इसलिए मुझे लगता है कि यदि मैं उनकी सुरक्षा नहीं करूंगी तो मेरी सारी मेहनत पर पानी फिर जाएगा|’’
कुछ साल पहले वन विभाग ने उन्हें इस शर्त पर फिर से अनुमति दी थी कि वे उन पेड़ों की सुरक्षा हेतु घेराबंदी करेंगी| शर्त को स्वीकार करते हुए हमने तमाम परेशानियों के बावजूद कंटीले तारों की घेराबंदी की| लेकिन पिछले साल वन विभाग के एक अन्य अधिकारी ने हमें उस घेराबंदी को लेकर लताड़ लगाई| उन्होंने कहा कि नेशनल पार्क में घेराबंदी नहीं हो सकती| इसलिए इसे तुरंत हटाओ| हम इससे बहुत तंग आ गए हैं| गोमुख के रास्ते पर जहां लोग अक्सर रूकते हैं वहां से भी घेराबंदी हटवा दी गई है| कभी तो अधिकारी लिखते हैं कि घेराबंदी करो, कभी कहते हैं हटाओ| काम करने में परेशानी नहीं है लेकिन जिस प्रकार प्रताड़ित किया जाता है उससे बहुत परेशानी होती है| हमें समझ में नहीं आता कि आखिर समस्या है क्या| न मैंने इनसे कभी पैसे की मांग की है और न ही किसी अन्य प्रकार की| फिर भी हमें काम नहीं करने दिया जाता| जमीन सरकार की है, हमारी नहीं है| हम तो बस इतना चाहते हैं कि वे पेड़ एक बार तैयार हो जाएं ताकि किसी भी प्रकार की प्राकृतिक आपदा आदि को वे झेल सकें| सरकार की भूमि है, सरकार के ही वे पेड़ हैं, हम उन पर अपना हक नहीं जता रहे हैंं|’’
डॉ. बिष्ट केन्द्रीय वन एवं पर्यावरण मंत्री श्री अनिल माधव दवे से निवदेन करते हुए कहती हैं, ‘‘आप देश में पर्यावरण संरक्षण के लिए बहुत काम कर रहे हैं| नदियों के संरक्षण हेतु भी काम हो रहा है| हमारा यह काम पर्यावरण रक्षा का ही है| हम निःस्वार्थ भाव से काम कर रहे हैं| हमें प्रोत्साहित नहीं कर सकते तो कम से कम परेशान तो न किया जाए| हम बहुत ही चुनौतीपूर्ण माहौल में काम कर रहे हैं| हम वहां पर्यटन का ऐसा मॉडल विकसित करना चाहते, जिसमें स्थानीय पारिस्थितिकी को नुकसान भी न पहुंचे और लोग प्रकृति के सौंदर्य का भरपूर आनंद भी उठा सकें| हम कचरा प्रबंधन पर भी विशेष ध्यान देना चाहते हैं क्योंकि वहां यह भी बहुत बड़ी समस्या है| लोगों की आवाजाही हो, परंतु उस धार्मिक स्थान की मर्यादा के अनुसार हो| हमें काम करने दिया जाए|’’
डॉ. बिष्ट दुनिया की ऐसी पहली महिला हैं जिनके प्रयासों से आज हिमालय के इस दुर्गम क्षेत्र में भोजवृक्षों के जंगल फिर से लहलहाने लगे हैंं| उनके इस साहसिक कार्य के लिए वर्ष २०१० में उन्हें सीआईआई के वार्षिक ‘हरित पुरस्कार’ से सम्मानित किया गया| वर्ष २०१३ में उन्हें ‘सर एडमंड हिलेरी लीगेसी मेडल’ से सम्मानित किया गया| लेकिन डॉ. बिष्ट के लिए किसी भी पुरस्कार से अधिक महत्वपूर्ण है भोजवासा के उस क्षेत्र में भोजवृक्षों के जंगल बचाने के लिए सरकार से अनुमति| सरकार यदि सहयोग नहीं कर सकती तो कम से कम अपना पैसा खर्च करके काम कर रहे लोगों को परेशान तो न किया जाए| क्या सरकार में बैठे अधिकारी ध्यान देंगे?
डॉ. हर्षवंती का अब तक का सफर
-१९८१ में नंदादेवी पर्वत शिखर का आरोहण
-१९८१ में अर्जुन पुरस्कार से सम्मानित
-१९८४ में एवरेस्ट अभियान दल की सदस्य
-१९८९ में ‘सेव गंगोत्री प्रोजेक्ट’ की शुरुआत
-१९९२ से १९९६ तक गंगोत्री में भोजवासा में भोजवृक्षों का रोपण
-भोजवासा में करीब १० हेक्टेयर में लगाए गए १२,५०० हजार पौधे, जिनमें से ७००० से अधिक आज भी जीवित
-२०१३ में ‘सर एडमंड हिलेरी लीगेसी मेडल’ से पुरस्कृत