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जातिवाद पे  सब बलिहारी

जातिवाद पे  सब बलिहारी

by विजय कुमार
in अगस्त २०१७, साहित्य
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लीजिए साहब, राष्ट्रपति चुनाव फिर आ गए| हमारे प्रिय शर्मा जी राष्ट्रपति को भारतीय लोकतंत्र की आन, बान और शान मानते हैं| इसलिए वे बड़ी उत्सुकता से इसकी प्रतीक्षा करते हैं| यद्यपि उन्हें इस चुनाव में वोट का अधिकार नहीं है, फिर भी वे इसके प्रचार में पीछे नहीं रहते| उनका बस चले, तो वे अपनी पसंद के प्रत्याशी का नाम राष्ट्रपति भवन के दरवाजे पर ही लिख दें| एक बार उन्होंने ऐसा करना चाहा, तो एक कि.मी. दूर से ही पुलिस वालों ने उन्हें डंडे मार कर खदेड़ दिया| बेचारे, बिना वोट दिए वापस आ गए|

खैर, चुनाव चाहे गलीपति का हो या राष्ट्रपति का, उसकी चर्चा सदा से ही रोचक होती है| सुना है कि महिलाएं बिना किसी बात के भी घंटों बात करती रहती हैं; और फिर बाकी बात अगले दिन के लिए छोड़कर उठ जाती हैं| बस ऐसा ही हाल हमारे शर्मा जी का है| उनके सामने चुनाव की चर्चा छेड़ो, तो वे कई सदियों का संचित ज्ञान बेभाव परोसने लगते हैं| कभी-कभी मैं उनके घर जाकर किसी भी नए-पुराने चुनाव की बात छेड़ देता हूं| बस, वे शुरू हो जाते हैं| वातावरण गरम होने पर चाय और गरम पकौड़ी के आर्डर अंदर जाने लगते हैं| मेरा अच्छा टाइम पास हो जाता है और कुछ पेट-पूजा भी| बाद में शर्मा जी का क्या होता है, ये वे जानें और उनकी मैडम जी| कल भी ऐसा ही हुआ|

– शर्मा जी, इस बार के राष्ट्रपति चुनाव में मामला बिल्कुल एकतरफा सा हो गया है?

– जी नहीं, टक्कर बराबर की है| तुम देखते जाओ| ऊंट किसी भी करवट बैठ सकता है|

– लेकिन मीडिया वाले तो यही कह रहे हैं|

– उनके कहने से क्या होता है| वे तो बिकाऊ हैं| जिसे देखो वही मोदी राग गा रहा है|

– पर मोदी ने प्रत्याशी बहुत ढूंढ कर उतारा है| किसी को पता भी नहीं लगा और हीरे जैसा खरा नाम सामने आ गया| रामनाथ कोविंद बहुत योग्य हैं और सौम्य भी|

– तो मीरा जी की योग्यता में कहां कमी है?

– इसमें तो कोई संदेह नहीं है| वैसे कांग्रेस ने आज तक जिसे भी राष्ट्रपति बनाया है, उनकी सबसे बड़ी योग्यता नेहरू परिवार के प्रति निष्ठा ही रही है| और मीरा जी में ये कूट-कूटकर भरी है|

– ये बेकार की बात है|

– हो सकता है; पर ये मत भूलिए कि १९६९ में इंदिरा गांधी ने पार्टी के प्रत्याशी नीलम संजीव रेड्डी को हराकर अपने एक चंपू वी.वी.गिरि को राष्ट्रपति बनवाया था| कहते हैं कि उनके दर्जनों नाती-पोतों के लिए ताजा डोसा लाने सैन्य विमान प्राय: दिल्ली से बंगलौर आते-जाते रहते थे| और फिर मियां फखरुद्दीन अली अहमद; जिसे रात में जगाकर आपातकाल के काले कानूनों पर हस्ताक्षर करवा लिए थे| बेचारे को तो पढ़ने का भी समय नहीं दिया|

– ये कुछ अपवाद हैं| यदि आपातकाल न लगता, तो देश का संविधान खतरे में पड़ जाता|

– संविधान तो उनकी करतूत से खतरे में पड़ा शर्मा जी| भारत में ये पहली और आखिरी बार हुआ कि मंत्रियों की सहमति के बिना प्रधानमंत्री ने कोई अध्यादेश राष्ट्रपति भवन भेज दिया और उसने भी आंख मूंद कर हस्ताक्षर कर दिए| अबू अब्राहम का उस समय बना कार्टून आज भी पुराने लोगों को याद है| और ज्ञानी जैलसिंह को क्यों भूलते हैं, जिन्हें ‘ऑपरेशन ब्ल्यू स्टार’ से नाराज सिखों का गुस्सा कम करने के लिए राष्ट्रपति बनाया था| वे तो खुलेआम कहते थे कि इंदिरा जी के कहने पर मुझे झाड़ू लगाने में भी संकोच नहीं होगा; पर अपनी मां के इसी अंधभक्त को राजीव गांधी ने प्रधानमंत्री रहते कितना अपमानित किया, ये भी इतिहास में दर्ज है|

– तुम्हारा इतिहास का ज्ञान काफी अच्छा है.. ?

– जी हां| और प्रतिभा पाटिल के बारे में तो एक कांग्रेसी नेता ने ही कहा था कि उनके हाथ की बनी चाय इंदिरा जी को बहुत पसंद थी| इसलिए वे प्राय: इस सेवा के लिए प्रधानमंत्री भवन पहुंच जाती थीं| इसके पुरस्कारस्वरूप ही उन्हें राष्ट्रपति बनाया गया| ये बात दूसरी है कि इतना कहने पर ही उसे कांग्रेस से बर्खास्त कर दिया गया| सुना तो ये भी गया है कि अवकाश प्राप्ति के बाद वे राष्ट्रपति भवन से काफी कुछ बटोर कर ले गईं, जिसे फिर उंगली टेढ़ी करने पर ही वापस भेजा|

– तुम बकते रहो वर्मा| इस पर जी.एस.टी. नहीं लगता|

– शर्मा जी, आपको ये भले ही बकवास लगे; पर कांग्रेस ने राष्ट्रपति पद को मजाक बनाकर रख दिया| जबकि दूसरी ओर वाजपेयी जी की सरकार डॉ. कलाम को सामने लेकर आई, जिन्हें आज भी पूरा देश श्रद्धा से याद करता है|

– लेकिन तुम ये क्यों भूलते हो कि इस बार उधर भी दलित है और इधर भी दलित| मोदी जी सोचते थे कि वे दलित प्रत्याशी लाकर बढ़त बना लेंगे; पर उन्हें पता नहीं था कि सोनिया जी के पल्लू में भी ऐसे कई लोग बंधे रहते हैं| अब देखना, कांटे की इस लड़ाई में बाजी किसके हाथ लगती है ?

मैं शुरू से ही समझ रहा था कि चाहे जो हो; पर शर्मा जी दलित और महादलित की बात जरूर करेंगे| क्योंकि ‘चोर चोरी से जाए, हेराफेरी से न जाए|’ मैं बोला, ‘‘शर्मा जी, कैसा आश्‍चर्य है कि जिस जातिभेद के विरुद्ध गांधी जी जीवन भर लड़ते रहे| जिस अछूतोद्धार को वे आजादी जैसा ही महत्वपूर्ण मानते थे| कोई खुशी से करे या मजबूर होकर; पर जिनके आश्रम में लोग अपने शौचालय खुद साफ करते थे| उनके नाम की माला जपने वाली कांग्रेस साठ साल सत्ता में रहने के बाद भी जातिवाद को मरे सांप की तरह अपने गले में लटकाए घूम रही है?‘‘

शर्मा जी काफी देर तक चुप बैठे रहे| फिर बोले, ‘‘बात तो तुम ठीक ही कह रहे हो वर्मा; पर जरा अपने गिरेबान में भी तो झांककर देखो| मोदी और भा.ज.पा. वालों ने भी तो इसी सोच के चलते रामनाथ कोविंद को प्रत्याशी बनाया है? देश का सर्वोच्च और सम्मानित पद भी जातिवाद की तराजू पर तुल गया| क्या यह हम सबके लिए शर्म की  बात नहीं है?’’

इसके बाद मुझसे बैठा नहीं गया| घर वापस लौटते समय रास्ते में कहीं श्रीरामचरितमानस का पाठ हो रहा था| कानफोड़ भोंपू पर बार-बार आवाज आ रही थी-

मंगल भवन अमंगल हारी, द्रवउ सो दशरथ अजिर बिहारी|

पर मुझे लगा कि कोई बार-बार कह रहा है –

भारत माता हुई दुखारी, जातिवाद पे सब बलिहारी|

 

समय का यह कटु सत्य मुझसे सहा नहीं गया| मैंने अपने कानों पर हाथ रख लिए|

Tags: bibliophilebookbook loverbookwormboolshindi vivekhindi vivek magazinepoemspoetpoetrystorieswriter

विजय कुमार

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