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पूर्वी हिमालय में भी ड्रैगन की साजिश

by गंगाधर ढोबले
in अगस्त २०१७, राजनीति
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डोकलाम में भारतीय व चीन सेनाएं भले ही आमने-सामने हो; लेकिन १९६२ को अब दोहराया नहीं जा सकता। वैश्विक परिदृश्य इतना बदल चुका है कि चीनियों की भौगोलिक और आर्थिक विस्तारवादी नीतियों के प्रति महाशक्तियों के कान खड़े हो चुके हैं। पूरे हिमालय में पश्चिम से लेकर पूर्व तक भारत को घेरने की ड्रैगन की चाल के प्रति भारत नासमझ है, यह समझना भी नासमझी है।

डोकलाम में इस समय भारत-चीन की फौजें आमने-सामने आ गई हैं। इतनी आमने-सामने कि दोनों में महज १००-१५० मीटर का ही अंतर रह गया है। दोनों ओर तंबू ताने गए हैं। चीनी फौज ने दो भारतीय बंकरों को तहस-नहस कर दिया है, जबकि भारतीय फौज ने वहां सड़क बनाने से चीनियों को रोक दिया है। चीन अपने भौगोलिक और आर्थिक विस्तारवाद की मंशा से हिमालय में ‘वन बेल्ट, वन रोड’ बना रहा है। पश्चिम में पाकिस्तान ने अपने कब्जेवाले कश्मीर में चीन को जगह दान में दे ही दी है और इस तरह उसकी हिंद महासागर और पश्चिम एशिया तक पहुंच आसान हो गई है। पूर्वी हिमालय में भी ऐसी ही सड़क बनाकर वह बंगाल की खाड़ी समेत हिंद महासागर के पूर्वी इलाके और दक्षिण पूर्व एशिया तक अपनी धाक जमाना चाहता है। यदि ऐसा हो तो चीन भारत को न केवल पश्चिम, उत्तर और पूर्वी इलाकों से घेर लेगा अपितु हिंद महासागर पर अपना प्रभुत्व कायम कर दक्षिण इलाके में भी हमारे नाक में दम कर देगा। इसलिए भारत का चीन की ‘वन बेल्ट, वन रोड’ योजना को विरोध है और चीन द्वारा इस सम्बंध में आयोजित सम्बंधित देशों की बैठक का भारत ने बहिष्कार किया है। इससे एशिया की राजनीति, अर्थनीति, भूगोल सब पर दूरगामी परिणाम होने वाले हैं और एशिया की चिंता यह है कि चीन पर कभी विश्वास नहीं किया जा सकता। भारत-चीन संघर्ष के इस केंद्रबिंदु को जान लें तो डोकलाम के संघर्ष का कारण आसानी से ध्यान में आ जाएगा।

दक्षिण एशिया पर चीनी की नीति को समझ लें तो बात और स्पष्ट हो जाएगी। तिब्बत पर उसने पहले ही कब्जा कर लिया है। सिक्किम ब्रिटिश भारत में स्वतंत्र देश था, जो भारत की स्वाधीनता के बाद १९७५ में भारत में विलीन हो गया। निकटवर्ती भूटान ब्रिटिश भारत में भी स्वतंत्र था और आज भी स्वतंत्र है। भूटान की सुरक्षा और विदेश नीति ब्रिटिश सम्हालते थे और १९४९ की संधि के तहत अभी भारत सम्हाल रहा है। उत्तर में भारतीय राज्य अरुणाचल प्रदेश है, जिसे ब्रिटिश शासन में नेफा कहा जाता था और वह ब्रिटिश भारत का हिस्सा था। इसलिए इस बारे में विवाद उपस्थित करना चीन की खुराफात ही कहा जाएगा। इसके बाद पड़ोस में नेपाल है, जहां चीन ने अपने पैर फैला रखे हैं। नेपाल जब तब भारत को आँखें दिखाते रहता है, उसका आधार चीन की वहां मौजूदगी है। उससे और नीचे उतरे तो म्यांमार आता है। वहां भी चीन ने अपने पैर जमाने शुरू कर दिए हैं। बांग्लादेश में भी चीनी अपनी उपस्थिति बढ़ा रहे हैं। वहां से आगे चलें तो वियतनाम से लेकर फिलीपीन और जापान तक दक्षिण चीन सागर में उसके कई देशों से सीमा विवाद चल रहे हैं और उसने अपने फौजी अड्डे भी बना रखे हैं।

चीन के करीब १४ देशों से सीमा विवाद चल रहे हैं। अफगानिस्तान, कजाकिस्तान, म्यांमार, पाकिस्तान, रूस और तजाकिस्तान से सीमा विवाद पर समझौते हो चुके हैं। भारत और भूटान से लम्बे अर्से से उसके सीमा विवाद चल रहे हैं। भूटान से तो उसने विवाद के हल होने तक शांति समझौता कर लिया था; लेकिन अब उसे भी उसने धत्ता बता दिया है। चीन के भूसीमा को लेकर ही नहीं जलसीमा को लेकर भी जापान, दक्षिण कोरिया, वियतनाम एवं फिलीपीन से संघर्ष चल रहे हैं।
यही क्यों, दक्षिणी चीन सागर पर चीनी दावे को अंतरराष्ट्रीय अदालत ने खारिज कर दिया; लेकिन चीन ने इस फैसले को मानने से इनकार कर दिया। यही बात हांगकांग के बारे में भी है। ब्रिटेन ने चीन को हांगकांग लौटाते समय यह शर्त रखी थी कि हांगकांग की विशेष स्थिति बनी रहेगी, पूंजीवादी अर्थव्यवस्था यथावत जारी रहेगी और मुख्य भूमि की तुलना में हांगकांग के निवासियों को अधिक मुक्तता होगी। चीन ने इन शर्तों को स्वीकार किया था और तत्कालीन चीनी प्रधानमंत्री झाओ जियांग व ब्रिटिश प्रधानमंत्री मार्गारेट थैचर के बीच वैसी संधि भी १९८४ में हुई थी। १९८५ में उसे राष्ट्रसंघ में दर्ज भी किया गया। लेकिन चीन बाद में अपने वादे से मुकर गया। हांगकांग में यदाकदा होने वाले जनविप्लव से यह बात साबित हो जाती है।

इस परिदृश्य में डोकलाम को देखें तो उसका सामरिक महत्व और चीन की चाल समझ में आ जाएगी। उसे दक्षिण में उतरने के लिए किसी न किसी तरह से रास्ता चाहिए। यह रास्ता उसे भूटान पर भारतीय प्रभाव को खत्म कर और नेपाल में उसने जो बुनियाद तैयार की है उसका उपयोग कर म्यांमार तक बनाना है। यह चीन का पहला चरण दिखाई देता है। वियतनाम, तायवान, फिलीपीन व जापान भी इसे जान रहे हैं। सबके अपने-अपने हित हैं। सबका समान हित इसमें है कि चीन को रोका जाए। इस संघर्ष को भारत संयोजित कर चीन के खिलाफ सामरिक व्यवस्था खड़ी कर सकता है। बंगाल की खाड़ी में भारत, अमेरिका और जापान के नौसैनिक अभ्यास को चीन इसी रूप में देख रहा है। इससे साफ है कि नई महाशक्ति चीन और एशिया में उभरती महाशक्ति भारत दोनों के बीच दीर्घकालीन संघर्ष की भूमिका बन रही है। अमेरिका और रूस जैसी पुरानी महाशक्तियों को भी एशिया में संघर्ष के लिए दोनों में से एक को ही चुनना होगा और उनके पास भारत को चुनने के अलावा और क्या विकल्प हो सकता है? यह आनेवाले भविष्य का विश्व परिदृश्य दिखाई देता है।

अब डोकलाम का सामरिक महत्व अत्यधिक है। यह छोटा-सा पठार है, जहां तीन देशों- भारत, चीन, भूटान की सीमाएं आकर मिलती हैं। यह त्रिसीमा किस निश्चित स्थान पर मिलती हैं, यह विवाद का मुद्दा है। भारत और भूटान का कहना है कि चुम्बी घाटी का इलाका डोकलाम के उत्तर में खत्म होता है और वहां से बातंग ला (ला याने दर्रा) के आगे तिब्बत शुरू होता है। चीन का दावा है कि सीमाओं का यह मिलन बिंदु बातंग ला से दक्षिण में ७.५ किमी दूर झोंपिरी पहाड़ी क्षेत्र के डोकलाम पठार पर है। उसने इसके लिए आपना फर्जी मानचित्र भी जारी किया है और १८९० के एक समझौते का हवाला देकर भूटान, सिक्किम और अरुणाचल के कई इलाकों पर अपना दावा जताया है। इस समझौते की आगे चर्चा करेंगे ही; फिलहाल इतना बता दें कि यह पठार भारत के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण है; क्योंकि वहां से आसपास के इलाके पर फौजी नजर आसानी से रखी जा सकती है। यही नहीं, यह भारत के पूर्वोत्तर राज्यों के लिए एक संकरा गलियारा भी है। डोकलाम जैसे पठार पर चीन का कब्जा हो जाए तो भारत के पूर्वोत्तर राज्यों से भारत का सम्पर्क टूट जाएगा और यह बड़ी खतरनाक स्थिति होगी।

डोकलाम पर १८९० की जिस संधि का चीनी दावा कर रहे हैं वह संधि चीन के क्विंग शासन और ब्रिटिशों के बीच हुई थी। उसे तिब्बत ने कभी स्वीकार नहीं किया था। इसके बाद ब्रिटिशों व चीन के बीच कई संधियां हुईं। यह इतिहास और गहन अध्ययन का विषय है। इसी आधार पर चीन डोकलाम पर दावा कर रहा है। उसके बाद भूटान और चीन के बीच भी यथास्थिति बनाए रखने की संधि हुई, इसे चीन जानबूझकर भूल जाता है। भूटान के भारत स्थित राजदूत वेत्सोत नामग्याल का कहना है कि, ‘‘Bhutan has a written agreement with China that pending the final resolution of the boundry issue, peace & tranquility should be maintained in the area. China has voilated this “peace agreement” by trying to construct roads in Doklam.’’

प्रथम प्रधानमंत्री पं. जवाहरलाल नेहरू की चीन और कश्मीर के प्रति गलत नीतियों का खामियाजा आज भी देश को भुगतना पड़ रहा है। तिब्बत पर चीन का अधिकार मान लेने का यह नतीजा है। आज भी चीन नेहरू के पत्रों का हवाला देकर कहता है कि भारत सरकार ने १८९० की संधि को स्वीकार कर लिया था, और इस संधि के तहत डोकलाम का इलाका चीनी मान लिया गया था। चीन के इस झूठ को कई विद्वानों ने उजागर किया है। इस पर कई पुस्तकें भी उपलब्ध हैं। ‘द हिंदू’ के ४ जुलाई के अंक में ए.एस.नजीर अहमद ने लिखा है कि चीनी प्रधानमंत्री चाऊ के ८ सितम्बर १९५९ के पत्र का नेहरू ने २६ सितम्बर १९५९ को जवाब दिया। इस पत्र में नेहरू ने चाऊ के हर मुद्दे का खंडन किया है और स्पष्ट किया है कि १८९० की संधि सिक्किम-तिब्बत की उत्तरी सीमा के बारे में है और न कि डोकलाम पठार या त्रिसीमा बिंदु के बारे में। नेहरूजी के ही शब्दों में कहना हो तो ‘…rectification of errors in Chines map regarding the boundry of Bhutan with Tibet is therefore a matter which has to be discussed alongwith the boundry of India with Tibet region of China in the same sector.‘ इससे दो बातें स्पष्ट होती हैं- एक, नेहरू ने डोकलाम को कभी चीन का हिस्सा नहीं माना और दूसरी, उन्होंने तिब्बत को चीन का हिस्सा मान लिया। नेहरू की इस तिब्बत नीति के कारण ही सारी गड़बड़ी हो गई, यह मान लें तब भी यह बात तो बचती ही है कि चीन ने जिस पत्र का हवाला देकर डोकलाम चीन का हिस्सा होना भारत द्वारा स्वीकार करने की बात कही है वह झूठी और फर्जी है। ऐतिहासिक तथ्यों को तोड़मरोड़कर पेश कर अपने पक्ष में माहौल बनाना अंतरराष्ट्रीय कूटनीति का हिस्सा है, इसे जान लेना चाहिए। एक और महत्वपूर्ण बात यह कि चीन तीन हजार साल पहले के अपने नक्शों को पेश करता है और विभिन्न इलाकों पर दावा करता है। विस्तारवाद चीनियों की पुरानी मानसिकता है, जो राजशाही के जमाने से लेकर वर्तमान कम्युनिस्ट शासन तक कायम है। वे समय के साथ बहुत भौगोलिक परिवर्तन आए हैं इसे भी स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं हैं। उनका ही तर्क भारत चलाए तो उसे तो पूरे दक्षिण पूर्व एशिया पर अपना अधिकार जताना चाहिए; क्योंकि हिंदू संस्कृति तथा बाद में बौद्ध संस्कृति और भारतीय सम्राट भी वहां तक पहुंचे थे और उनका वर्षों तक वहां शासन रहा है। चीन जैसे पुराने नक्शे दिखाकर अन्य प्रदेशों पर दावा करता है वैसे ही भारत भी वैदिक नक्शे दिखाकर मानसरोवर तक अपना हक जता सकता है। लेकिन कालचक्र को उल्टा घुमाना संभव नहीं है; इसे चीन भी समझें तो उसमें उसकी भी भलाई है।

भारत-चीन संघर्ष की चिंगारी को बुझाने के लिए भारत ने बातचीत की पेशकश की है। भारत का कहना है कि किसी प्रश्न पर हमारे मतभेद हो सकते हैं; लेकिन उसे विवाद नहीं बनने देना चाहिए। चीन ने इस पेशकश को सिरे से खारिज कर दिया है। उसका कहना है कि पहले भारतीय सेना हठ जाए तभी बातचीत होगी। कूटनीति में सरकारों के प्रवक्ताओं की तनातनी चलती रहती है और दोनों ओर की जनता का मनोरंजन भी होता है। वस्तुतः परदे के पीछे बहुत कुछ चलता रहता है। इस तनातनी के बीच दोनों देशों के प्रधानमंत्री जी-२० देशों की शिखर बैठक के दौरान मिले भी, दोनों के चेहरों पर हल्का तनाव लिए मुस्कुराहट भी लोगों ने देखी। इसका कई लोगों ने अर्थ यह लगाया है कि डोकलाम में दोनों देशों की सेनाएं निश्चित अंतर पर पीछे हट सकती हैं और बाद में बातचीत का मार्ग प्रशस्त हो सकता है। बातचीत करना दोनों की मजबूरी है। दोनों देशों के हित युद्ध में नहीं हैं। युद्ध से वैसे भी कुछ हल निकलना नहीं है। भारत से ज्यादा चीन को आर्थिक हानि अधिक होगी। उसकी विकास दर का नकारात्मकता की ओर बढ़ना भी उसे आने वाले दिनों में संकट में डाल सकता है।

सीमा विवाद इतने जल्दी नहीं सुलझते। इसलिए आगे कौन कैसा पैंतरा बदलता है, इसे आज बताना मुश्किल है। एक बात तो स्पष्ट है कि १९६२ और आज के बीच बहुत पानी गंगा में बह चुका है। तब के और आज के भारत में बहुत अंतर है। तब भी चीन ताकतवर था और आज भी हो सकता है; लेकिन वैश्विक परिस्थितियों में इतना बदलाव आ चुका है कि चीन के पुराने दांव अब नहीं चलने वाले। अब १९६२ को दोहराया नहीं जा सकता, इस सत्य से चीन अनजाना नहीं है; क्योंकि चीन के आर्थिक हित तब की अपेक्षा आज भारत से अधिक जुड़े हुए हैं।

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