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नेतृत्व निर्माण करनेवाले नेता -राम भाऊ म्हालगी

नेतृत्व निर्माण करनेवाले नेता -राम भाऊ म्हालगी

by राम नाईक
in विशेष, व्यक्तित्व, संस्था परिचय
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सन 1950 में जब मेरा परिचय रामभाऊ म्हालगी से हुआ तब से मैं उन्हें एक आदर्श नेतामानता आया हूं। शालांत परीक्षा उत्तीर्ण करने के बाद मैं कॉलेज की पढ़ाई हेतु पुणे आया। जितना नियमित मैं कॉलेज जाता था उतना ही नियमित संघ की शाखा में भी जाता था। वहां मेरी और म्हाळगी जी की प्रथम मुलाकात हुई। वे हमारे मंडल कार्यवाह थे और मैं वैदिक आश्रम शाखा का मुख्य शिक्षक था। उनके मार्गदर्शन में मैं संघ कार्य कर रहा था। स्वर्गीय रामभाऊ की पार्श्वभूमी ज्ञात होने के कारण मैं अत्यंत मन:पूर्वक उनसे अधिकतम सीखने का प्रयत्न करने लगा। 7 वर्ष संघ प्रचारक के रूप में सोलापुर जैसे संघ दृष्टि से ‘कठिन’ जिले में काम करने के बाद स्वर्गीय राम भाउ पुणे आए थे। संघ कार्य के साथ-साथ अपनी व्यक्तिगत प्रगति हेतु उन्होंने पुणे के विधि महाविद्यालय में प्रवेश लिया। उनका मानस आगे चलकर वकील बनने का था। एक ही समय में विविध काम प्रभावी तरीके से और नियोजित समय में कैसे पूर्ण करना इसका वे प्रत्यक्ष उदाहरण थे।उनके नेतृत्व गुण उस समय भी सबकोप्रत्यक्षत नजर आते थे। केवल स्वयंसेवकों से ही नहीं तो जनसामान्य के साथ भी किस प्रकार बोलना, व्यवहार करना, अपने कार्य में सब को कैसे शामिल करना, इसके प्रारंभिक पाठ मैंने रामभाऊ से लिया था।

संघ से राजनीति तक

राष्ट्रकार्य को ही मुख्य ध्येय मानने वाले एवं उसकी सिद्धि हेतु आवश्यकता पड़ने पर राजनीति के मार्ग का अवलंबन करने की सीख स्वर्गीय रामभाऊ ने स्वतः के आचरण के माध्यम से हमें दी। सन 1951 में स्वर्गीय श्यामाप्रसाद मुखर्जी जी ने भारतीय जनसंघ की स्थापना की। उस समय जनसंघ की प्रथम पंक्ति में महाराष्ट्र के संयोजक के रूप में रामभाऊउसमें शामिल हुए। उन्हे महासचिव पद की जिम्मेदारी दी गई। अगस्त 1952 में जब श्यामाप्रसाद मुखर्जी पुणे आए उस समय 23 अगस्त को रामभाऊ ने एक ही दिन तीन अलग-अलग कार्यक्रम आयोजित किए थे. नवस्थापित जनसंघ का परिचय कराने हेतु पुणे के चुनिंदा प्रतिष्ठित लोगों की एक सभा प्रभात सिनेमा गृह में, विद्यार्थियों के लिए एक सभा फर्ग्युसन कॉलेज के एंफी थियेटर एवं सार्वजनिक सभा शनिवार बाड़े पर आयोजित की गई थी। इनमें फर्ग्यूसन एवं शनिवार बाड़े की सभा के दौरान उनके सहयोगी की भूमिका में मैंने रामभाऊ के राजनीतिक नेतृत्व के गुणों को निकट से परखा। ये तीनों सभाएं बहुत ही सफल रही। समाचार पत्रों ने भी अपने-अपने अंकों में उस बहुत उसे बहुत स्थान दिया और इस प्रकार जनसंघ की स्थापना की जानकारी  पूरे महाराष्ट्र तक पहुंची। इसके बाद रामभाऊ ने विविध क्षेत्रों/ जिलों का दौरा किया एवं वहां जनसंघ की इकाइयां स्थापित की। केवल 2 वर्ष की अवधि में ही दिसंबर 1954 में महाराष्ट्र जनसंघ का पहला अधिवेशन संपन्न हुआ। श्री उत्तम राव पाटिल का अध्यक्ष पद पर, रामभाऊ का महासचिव पद पर निर्वाचन हुआ। उस समय मैं भी वहां उपस्थित था। जनसंघ का काम भी एक प्रकार से संघ कार्य ही है, यह विचार लेकर मैं बीकॉम की परीक्षा पास कर नौकरी हेतु मुंबई आ गया।

स्वतंत्रता के बाद के काल में जनमानस में सत्ताधारी कांग्रेस के लिए बहुत बड़ा स्थान था। कांग्रेस की तुलना में उस समय जनसंघ नया एवं बहुत छोटा दल था परंतु फिर भी रामभाऊ म्हालगी  के झंझावाती  दौरों से जनसंघ की जडें महाराष्ट्र में जमने लगीं। डॉक्टर श्यामाप्रसाद मुखर्जी ने जम्मू-कश्मीर के आंदोलन में नारा दिया,”एक देश में दो प्रधान, दो निशान एवं दो विधान नहीं चलेंगे।” इस आंदोलन में महाराष्ट्र से भी लोग भाग लें, इस हेतु से रामभाऊ ने 70 से भी अधिक जनसभाओं के माध्यम से जनजागरण किया। गोवा मुक्ति आंदोलन, दादरा नगर हवेली का सशस्त्र स्वतंत्रता संग्राम, संयुक्त महाराष्ट्र आंदोलन, महंगाई विरोधी आंदोलन इत्यादि आंदोलनों के कारण महाराष्ट्र में जनसंघ कास्थान निर्माण हुआ। इसका सबसे ज्यादा श्रेय रामभाऊ के कुशल नेतृत्व को जाता है।

जनप्रतिनिधि रामभाऊ

संयुक्त महाराष्ट्र की लड़ाई में शामिल सभी दलों ने यह तय किया कि सन 1957 का विधानसभा चुनाव  सभी एक साथ लड़ेंगे। प्राकृतिक न्याय यह कहता है कि जो जिस भाग का है वहां की उम्मीदवारी उसे मिलनी चाहिए। परंतु, संयुक्त महाराष्ट्र समिति के पदाधिकारियों ने पुणे की जगह जनसंघ को नहीं दी एवं कहा कि चाहे तो आप मावल सीट से लड़ें। वह निर्णय स्वीकार कर स्वर्गीय रामभाऊ पहली बार मावल सीट से चुनाव के मैदान में उतरे एवं एक अपरिचित क्षेत्र में अपनी विशिष्ट योजना के माध्यम से कांग्रेस की वजनदार उम्मीदवार श्रीमती शारदा बाई चितले, जो तलेगांव के सुप्रसिद्ध कांच कारखाने के व्यवस्थापक श्री चितले की धर्मपत्नी थी, को 3000 मतों से पराजित किया। 1957 के चुनाव में जनसंघ के चार विधायक चुनकर आए और रामभाऊ म्हालगी विधानसभा में जनसंघ विधायक दल के नेता बने। उनके इस प्रकार योजना पूर्वक कार्य करने का फायदा बाद में मुझे भी मिला। 1977 में आपातकाल की समाप्ति के बाद जब श्रीमती मृणाल गोरे के कारण मुझे विधानसभा का चुनाव गोरेगांव की बजाय बोरीवली से लड़ना पड़ा तब उनका कार्य नियोजन मेरे बहुत काम आया।

महिला मोर्चा के निर्माता

सन 1957 के बाद सन 1962 में हुए चुनाव में रामबाबू ने तय किया कि वे यह चुनाव अपने गृह क्षेत्र शिवाजीनगर पुणे से लड़ेंगे। वास्तव में यह चुनाव रामभाऊ के लिए सरल होना चाहिए था परंतु ऐसा नहीं हुआ। जनसंघ के इस युवा संघर्षशील नेता का बहुत डर कांग्रेस को सताने लगा था। मात्र 5 वर्षों में विधानसभा में रामभाऊ सत्ताधारियों के लिए आह्वान बन बैठे थे। तत्कालीन मुख्यमंत्री यशवंतराव चौहान के नेतृत्व ने रामभाऊ को पराजित करने का बीड़ा उठा लिया एवं तदनुसार योजनाएं बनाई जाने लगी। ‘पानशेत’ बांध टूटने के कारण पुणे में जो हाहाकार फैला था उसमें मदद कार्यों का प्रभावी सूत्र संचालन करने वाले पुणे महापालिका के लोकप्रिय आयुक्त श्री स.गो. बर्वे को उनके पद से इस्तीफा दिलवा कर रामभाऊ के खिलाफ चुनाव मैदान में उतारा गया। प्रतिष्ठा की इस लड़ाई में रामभाऊ को हार का सामना करना पड़ा। परंतु, पराजित नेता कैसे काम करता है, कैसा व्यवहार करता है, दल का विस्तार करने के लिए कैसे काम करता है, इसका आदर्श उदाहरण रामभाऊ ने प्रस्तुत किया। इसी काल में जनसंघ में स्वतंत्र ‘महिला मोर्चा’ की स्थापना कर स्त्री शक्ति का जो दमदार आविष्कार भारतीय जनसंघ ने किया वह रामभाऊ के नेतृत्व के कारण ही।

अविरत जनप्रतिनिधि

1962 के बाद 1967 एवं 1972 के चुनावों में रामभाऊ ने पुणे से ही विजयश्री प्राप्त की। उनकी इस जीत का श्रेय उनके द्वारा जन नेता के रूप में अपने मतदान क्षेत्र में किए गए  अगणित कामों के अलावा विधानसभा में सभी प्रकार के “संसदीय हथियारों” अर्थात संसदीय नियमों का प्रयोग कर किए गए प्रभावी कामों को भी जाता है। इन नियमों का किस प्रकार से कुशलता पूर्वक उपयोग किया जा सकता है, रामभाऊ के विषय में इसका एक जीता जागता उदाहरण यहां प्रस्तुत करता हूं। पुरानी इमारतों के पुनर्विकास के विधेयक पर उन्होंने 1-2 नहीं कुल 155 संशोधन प्रस्ताव रखें एवं प्रत्येक प्रस्ताव पर बोलने का अधिकार भी आग्रह पूर्वक प्राप्त किया। प्रत्येक संशोधन प्रस्ताव, उस पर चर्चा और मतदान यह सब दूसरे दिन सुबह 7:00 बजे तक चलता रहा।

आपातकाल में नेतृत्व

इसी दौरान 25 जून सन 1975 को प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी द्वारा आपातकाल लगाया गया। उस समय रामभाऊ म्हालगी मुंबई में थे। वे किस प्रकार त्वरित काम करते थे इसका प्रमाण आपातकाल के प्रथम दिन ही मिला। मुंबई से सीधे वे अपनी कर्मभूमि पुणे पहुंचे एवं सायंकाल शनिवार वाडे के सामने सभा कर उन्होंने आपातकाल के विरुद्ध लड़ाई का शंखनाद किया। उनका भाषण इतना प्रभावी हुआ कि उसी रात को पुलिस ने उनके घर के दरवाजे पर दस्तक दी और उन्हें यरवडा कारागार के लिए रवाना किया गया। कारागार में भी रामबाबू का काम शुरू ही था। अलग-अलग राजनीतिक दलों के, विद्यार्थी संगठन के, मजदूर संगठनों के, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के स्वयंसेवक कारागार में थे। कारागार में रहते हुए ही रामभाऊ की आंखों की 2 बार गंभीर सर्जरी की गई फिर भी अपने ध्येय से विचलित ना होते हुए उन्होंने अपना कार्य जारी रखा।

इतिहास की पुनरावृत्ति

आपातकाल समाप्त हुआ। विविध राजनीतिक दलों ने आपातकाल के विरोध में एक होकर चुनाव लड़ने का निश्चय किया। रामभाऊ का कार्य एवं पुणे से उनके लगातार दो बार विधायक निर्वाचित होना यह आशा जगाता था कि उन्हें पुणे से ही चुनाव लड़ाया जाएगा परंतु केंद्रीय कार्यकारिणी ने, जिन कांग्रेसी नेताओं ने आपातकाल का विरोध किया था उन्हें अपनी पार्टी में शामिल कर उम्मीदवारी देने का निर्णय लिया। रामभाऊ को उन्हें उनके पहले विधानसभा चुनाव के समान एक नए लोकसभा क्षेत्र ठाणे से उम्मीदवारी दी गई। पुणे से रामभाऊ के स्थान पर मोहन धारिया को उम्मीदवारी दी गई। महाराष्ट्र के सभी मतदानक्षेत्रों में यह सबसे बड़ा मतदान क्षेत्र था! इतना ही नहीं इस मतदान क्षेत्र में बड़े प्रमाण में ग्रामीण एवं आदिवासी मतदाता थे। रामभाऊ के नेतृत्व के गुण यहां कसौटी पर थे। परंतु रामभाऊ ने इस आह्वान का सामना करते हुए 7,22,060 मतदाताओं वाले क्षेत्र में 82747 मतों से विजय प्राप्त की। रामभाऊ लोकसभा सदस्य बने एवं संपूर्ण मतदाता क्षेत्र में प्रभावी सांसद के रूप में जाने जाने लगे। इसलिए 1980 में जनता सरकार के गिरने पर यद्यपि इंदिरा गांधी की सरकार पुनः आई परंतु ठाणे की जनता ने रामभाऊ को ही जिताकर लोकसभा में भेजा। रामभाऊ दूसरी बार संसद सदस्य बने परंतु ‘दोहरी सदस्यता’ के सवाल पर हम पुराने जनसंघी जनता पार्टी से बाहर निकल गए। कुछ सम विचारी मित्रों के साथ मिलकर हमने भारतीय जनता पार्टी की स्थापना की। महाराष्ट्र से उंगलियों पर गिनने लायक भाजपा के उम्मेदवार ही चुनाव जीत कर आए थे इसलिए नए सिरे से दल के निर्माण करने की जिम्मेदारी नेताओं पर आ पड़ी। उस समय 60वे वर्ष में प्रवेश करने वाले रामभाऊ ने पुनः युवकोचित उत्साह के साथ संगठन निर्माण हेतु दौरे प्रारंभ कर दिए।

आदर्श सांसद

यद्यपि वे ठाणे के सांसद थे परंतु ठाणे के साथ-साथ उन्होंने पुणे, नागपुर, औरंगाबाद, कोल्हापुर तथा दिल्ली ऐसे छह स्थानों पर अपने संसदीय कार्यालय खोले। इन सब कार्यालयों में वे नियमित रूप से जाते थे, वहां के प्रश्नों समस्याओं को सुनते एवं हल करते थे। किसी प्रश्न का हल जल्दी निकालने के लिए वे नए-नए मार्ग खोजते थे। मैं तथा मेरे मित्र प्रोफेसर राम कापसे उस समय विधान सभा के लिए चुनकर आए थे। दोनों इस बात के लिए प्रयत्नशील थे कि केंद्र सरकार मुंबई के रेलवे प्रवासियों की समस्याओं की ओर ध्यान दें। रामभाऊ म्हालगी ने हमें इसके लिए एक अलग रास्ता सुझाया। रामभाऊ ने उपनगरीय रेलवे प्रवासियों की समस्याओं के बाबत लोकसभा में प्रस्तुत करने हेतु एक याचिका तैयार करने की हमे सूचना दी। हमने उसे तैयार किया तथा उस पर 8-10 विविध प्रवासी संगठनों के नेताओं के हस्ताक्षर प्राप्त किए। मध्य रेल के भाग से विधायक के रुप में प्रोफेसर राम कापसे तथा पश्चिम रेल के भाग से विधायक के रुप में मैंने उस पर हस्ताक्षर किए। उस याचिका को स्वर्गीय रामभाऊ महालगी ने 1 फरवरी 1980 को लोकसभा में प्रस्तुत किया। हमें जो कहना था, उसे कहने का अवसर भी हमें लोकसभा की याचिका समिति के सामने प्राप्त हुआ। इसके बाद याचिका समिति ने अपना प्रतिवेदन लोकसभा में प्रस्तुत किया और हमारी 13 मांगों में से 9 मांगों को मान्य कर उन पर अमल भी प्रारंभ हो गया। बाद में सन 1989 में मैं तथा प्रोफेसर राम कापसे भी सांसद के रूप में लोकसभा के लिए चुने गए। परंतु चुनकर आने के पूर्व ही सांसद को किस तरह से काम करना चाहिए इसका पाठ रामभाऊ म्हालगी ने हमें सिखाया था।

जनप्रतिनिधियों के लिए गुरु मंत्र

यह मेरे ध्यान में पहले ही आ चुका थाकि जनप्रतिनिधि के रूप में कैसे कार्य करना है यह रामभाऊ म्हालगी से सीखा जा सकता है। जब मैं पहली बार सन 1978 में विधानसभा का सदस्य बना तब वे संसद सदस्य थे। नवनिर्वाचित विधायकों के लिए पार्टी की ओर से एक अभ्यास वर्ग आयोजित किया गया था उसमें श्री राम भाऊ म्हालगी, श्री दत्ता ताम्हाणे, प्रोफेसर ग.प्र. प्रधान इत्यादि गणमान्य लोगों ने मार्गदर्शन दिया। सफल जनप्रतिनिधि होने के लिए रामभाऊ द्वारा दिए गए तीन गुरु मंत्र आज भी मेरे ह्रदय एवं बुद्धि में जस के तस कायम हैं।

पहला मंत्र “जनप्रतिनिधि यदि यह चाहता है कि वह पुनः चुनकर आए तो उसे अपने मतदान क्षेत्र के सभी लोगों, जिन्होंने मत दिया वे भी, मत नहीं दिया वे भी, जिन्हें मतदान का अधिकार होते हुए भी जिन्होंने मत नहीं दिया वे भी तथा जिन्हें मतदान का अधिकार नहीं है ऐसे बच्चों के काम भी करने चाहिए। इतना ही नहीं तो अपने मतदाता क्षेत्र तक सीमित ना रहते हुए संपूर्ण राज्य की समस्याओं की ओर ध्यान देना चाहिए।“ रामभाऊ का यह मंत्र अक्षरश: पालन करने के कारण मैं लगातार आठ बार चुनाव जीतने का कीर्तिमान स्थापित कर सका।

दूसरा मंत्र “किए गए कार्य का ब्यौरा मतदाताओं को देना। लोकतंत्र में जनप्रतिनिधि मतदाताओं के प्रति उत्तरदायी होता है। उसके लिए जनप्रतिनिधि द्वारा किए गए कार्यों का विवरण उन्हें प्रतिवेदन के माध्यम से देना ही चाहिए, ऐसा उनका आग्रह था।“ उनके उस मंत्र का मैंने सन 1978 से, जब मैं पहली बार विधायक बना तब से, सन 2019 में मेरी राज्यपाल पद से निवृत्ति तक लगातार पालन किया। लगातार 41 वर्ष कार्यवृत्त प्रकाशित किया। जनता का विश्वास संपादन करने में मैं जो सफल रहा उसमें इस प्रतिवेदन का भी निश्चित ही सहभाग है।

उनका तीसरा मंत्र न केवल जनप्रतिनिधियों के लिए है वरन वह सभी कार्यकर्ताओं के लिए है। सभी कार्यकर्ताओं ने ‘व्रत’ समझ कर उसका अंगीकार करना चाहिए। वह मंत्र है, राजनीतिक/ सामाजिक कार्य करते समय कार्यकर्ता/ जनप्रतिनिधि के पैरों में चकरी, मुंह में शक्कर एवं सिर पर बर्फ होना चाहिए। इस गुरु मंत्र को जो भी अंगीकार करता है वह नेता, कार्यकर्ता एवं समाज दोनों में लोकप्रिय होकर देश हित में कार्य करता है।यह मै अनुभव के आधार पर कह सकता हूं।

अच्छे कार्यकर्ताओं/ नेताओं का निर्माण, यह आज की आवश्यकता है इसे समझ कर नेता पद का भार बाजू में रखते हुए शिक्षक की भूमिका का निर्वाह करने का रामभाऊ का मानस था। 9 जुलाई 1981 को रामभाऊ  60 वर्ष पूर्ण करने वाले थे। भाजपा के प्रदेश पदाधिकारी उनका सार्वजनिक अभिनंदन करने का एवं दल के लिए निधि संकलन की दृष्टि से उन्हें थैली भेंट करने का कार्यक्रम बना रहे थे। इस बाबत जब हमने उनसे प्राथमिक चर्चा की उन्होंने कार्यक्रम के लिए पूर्णत: मना कर दिया। उन्होंने कहा कि वे तो सन 1985 का चुनाव न लड़ने की घोषणा करने वाले हैं। ‘मेरा वर्तमान 5 साल का कार्यकाल समाप्त होने के बाद मैं स्वयं को कार्यकर्ताओं के प्रशिक्षण हेतु समर्पित करने वाला हूं’ इस तरह के संवाद के बाद उनका सार्वजनिक अभिनंदन तो नहीं किया जा सका परंतु प्रदेश के लगभग सभी समाचार पत्रों ने उनके साठवें जन्मदिन पर उन पर विशेष लेख प्रकाशित किए। उन लेखों के माध्यम से दिखने वाले रामभाऊ को हमेशा के लिए जतन किया जाना चाहिए। सभी लेख इस प्रकार के थे कि उन्हें अधिकतम लोगों के पास पहुंचाया जाना चाहिए। भारतीय जनता पार्टी मुंबई के अध्यक्ष के नाते मैंने उन सभी लेखों को संग्रहित कर एक पुस्तक भी प्रकाशित की थी।

दुर्भाग्य से इसके 6 माह बाद उन्हें कैंसर हो गया।उनका संपूर्ण शरीर अक्षरश: खोखला हो गया था। असह्य वेदना होने के कारण कई बार वे अर्ध बेहोशी की हालत में चले जाते थे। उस स्थिति में भी साफ खनखनाती आवाज में विविध विषयों पर, पूर्ण जानकारी के साथ उन्हें बोलता देखकर आसपास के लोग विस्मय से उनकी और देखने लगते थे। एक बार तो उन्होंने उस स्थिति में ‘समर्थ रामदास’ इस विषय पर  35 मिनट तक व्याख्यान दिया। परंतु अंततः 6 मार्च 1982 को मृत्यु के साथ लड़ाई मे वे हार गए।

रामभाऊ का स्वतः का कार्यकर्ता प्रशिक्षण का संकल्प आकार नहीं ले पाया परंतु रामभाऊ के सान्निध्य में निर्मित कार्यकर्ताओं को उनका संकल्प अधूरा रहना अच्छा नहीं लगा। रामभाऊ के साथ ही अपना राजनीतिक जीवन प्रारंभ करने वाले उत्तम राव पाटिल उस समय भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष थे। उनके साथ कोषाध्यक्ष वसंतराव पटवर्धन, संगठन मंत्री वसंत राव भागवत,उदयोन्मुख प्रमोद महाजन आदि गणमान्य नेताओं ने स्वर्गीय रामभाऊ म्हालगी के संकल्प को  मूर्त रूप देने का निश्चय किया। दिनांक 19 अक्टूबर को ‘रामभाऊ म्हालगी प्रबोधिनी’ की स्थापना की गई। प्राचीन गुरुकुल के समान प्रकृति के सान्निध्य में भाईंदर-उत्तन में स्थापित इस प्रबोधिनी में अब विविध प्रशिक्षण कार्यक्रम आयोजित किए जाते हैं। नेतृत्व प्रशिक्षण के लिए तो वहां विशेष  पोस्ट ग्रेजुएट पाठ्यक्रम है।रामभाऊ की जन्म शताब्दी निकट ही है। उनका कार्य भी लगातार चल रहा है। नेतृत्व निर्माण करने वाला ऐसा नेता बिरला ही मिलेगा! उनके पवित्र एवं प्रेरणादायी व्यक्तित्व को शत-शत प्रणाम!

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