प्लास्टिक का विकल्प संभव – विक्रम भानुशाली

प्लास्टिक का एक बेहतरीन विकल्प है, कम्पोस्टेबल पालिमर। स्टॉर्च (कार्न, शुगर) से उत्पादित लैक्टिक एसिड से पॉली लैक्टिक एसिड व अन्य नैसर्गिक पदार्थों को मिलाकर स्काय आई इनोवेशन यह पदार्थ प्लास्टिक के विकल्प के रूफ में लाया है। यह न केवल कई बार इस्तेमाल किया जा सकता है बल्कि बाद में इससे कम्पोस्ट(खाद) भी बनता है। प्रस्तुत है कम्पनी के निदेशक श्री विक्रम भानुशाली से प्लास्टिक उद्योग, प्लास्टिक से उत्पन्न पर्यावरण समस्याओं, वैकल्पिक उत्पाद, सरकार से प्रोत्साहन आदि के बारे में हुई बातचीत के महत्वपूर्ण अंशः-

ज हम दैनंदिन जीवन के हर क्षेत्र में प्लास्टिक का उपयोग कर रहे हैं। इसमें से कितने प्रकार के प्लास्टिक खतरनाक हैं?

हम प्लास्टिक के खिलाफ नहीं हैं। वास्तव में प्लास्टिक एक लाजवाब उत्पाद है। हमारे विकास में प्लास्टिक का एक महत्वपूर्ण योगदान है। आज हमारे उपयोग की हर वस्तु में प्लास्टिक का इस्तेमाल हो रहा है। मूल समस्या है, इसका व्यवस्थापन एवं निष्पादन। जबकि इस उत्पाद की तासीर कुछ ऐसी है कि इसे पुनर्चक्र्रित कर दूसरे उत्पाद बनाए जा सकते हैं। प्लास्टिक एक प्रकार का ‘पॉलीमर‘ है। पॉलीमर के अंतर्गत रबर, आधुनिक फायबर कुर्सिया तथा कारों में लगने वाला प्लास्टिक कम्पोनेंट वगैरह आता है। प्लास्टिक मटिरियल खराब नहीं है बल्कि इसके उपयोग के तरीकों को अच्छे और बुरे के हिसाब से देखना चाहिए। उदाहरण के तौर पर-  प्लास्टिक के थैलियां। प्लास्टिक के थैलियां वाटरप्रूफ होती हैं, दोबारा इस्तेमाल की जा सकती हैं। लेकिन मुख्य समस्या उसके कचरे के निपटारे के समय आती है। आम लोगों के काम की चीज है पर उसकी वैल्यू कुछ भी नहीं है। लोग फेंकने के लिए तैयार हैं। यह उस पदार्थ मात्र के नहीं बल्कि उपयोग के प्रकार को लेकर समस्याएं हैं। इनका समाधान किया जा सकता है। पर वह समाधान उस पदार्थ तथा उसके उपयोग के तौर-तरीकों, दोनों के स्तर पर होना चाहिए। कुछ समाधान सामाजिक जागरुकता को लेकर भी किए जाने चाहिए। इसके लिए हमें विकसित देशों के साथ ही साथ तीसरी दुनिया अर्थात् दक्षिण अफ्रीका के रवांडा को भी उदाहरण के तौर पर ले सकते हैं। वहां पर पूरी तरह प्रतिबंध लगा दिया गया है। जैसे कि सरकार ने महाराष्ट्र में किया। यहां तक कि वहां एयरपोर्ट पर बाकी चीजों की ही तरह स्कैनर में प्लास्टिक भी चेक करते हैं। पश्चिमी देशों में काफी जागरुकता होने के कारण अलग करने का सिस्टम तथा उसे नष्ट करने का सिस्टम भी काफी अच्छा है। अपने यहां भी यह कार्य शुरू किया गया है पर लोगों को बाध्यता नहीं है तथा जागरुकता की भी काफी कमी है।

आपने प्लास्टिक के प्रति जागरुकता लाने की बजाय उसका विकल्प देने की बात क्यों सोची?

हम दोनों बातों को सामने रख रहे हैं जैसे शीतल पेय की बोतल पाली एथिलीन टेरेफ्थलेट से बनी होती है जो रिसाइक्लेबल है। पर अब धीरे-धीरे उसकी मशीनें उपलब्ध हो रही हैं। इस पदार्थ का विकल्प कांच हो सकता है पर वह लाने व ले जाने में सुविधाजनक नहीं है। प्लास्टिक खाद्य पदार्थ से मिश्रित हो तो उसे साफकर रिसाइकल करना व्यवहार में सम्भव नहीं है। प्लास्टिक क्रूड आयल से बनता है पर नए विकल्प बायो कम्पोस्टेबल हैं। हम घर का डिग्रेडेबल कचरा प्लास्टिक की थैली में भरकर फेंकते हैं। कचरा तो सड़कर जमीन में मिल जाएगा पर जिस थैली में रखकर हम फेंकते हैं वह नॉन डिग्रेडेबल होता है। हम उसी का विकल्प लेकर आए हैं जो पूरी तरह नष्ट होने योग्य है।

आप द्वारा लाया गया प्लास्टिक का विकल्प किस चीज से बना है?

हम कई चीजों जैसे कि पॉली लैक्टिक एसिड, कार्न स्टॉर्च आदि को मिलाकर कम्पोस्टेबल पालिमर बनाते हैं। यह पूरी तरह नष्ट होकर कम्पोस्ट(खाद) बन जाता है।

आपका मुख्य व्यवसाय प्लास्टिक का ही है?

हां, मैं इसी इंडस्ट्री से जुड़ा हुआ हूं।

आपको कब लगा कि इस तरह का विकल्प लाए जाने की आवश्यकता है?

पहली बात, हम इस दिशा में प्लास्टिक बंदी के काफी पहले से जुड़े हुए हैं। 2014 में हमने जर्मनी की एक प्रसिद्ध मल्टीनेशनल कम्पनी के साथ अनुबंध किया जो इस दिशा में काफी सालों से काम कर रही है। कोयंबटूर स्मार्ट सिटी में वहां के कमिश्नर के सान्निध्य में हमने कार्य किया। कई राज्य इस दिशा में महत्वपूर्ण कदम उठा रहे हैं।

चूंकि प्लास्टिक हमारी जीवनशैली का एक हिस्सा बन चुका है। क्या यह पूरी तरह समाप्त हो पाएगा?

बिलकुल नहीं। आप लोगों को पूरी तरह पीछे लौटने के लिए नहीं कह सकते। पर इतना तो है कि हमें अपनी जीवनशैली में बदलाव लाने ही होंगे। जिन चीजों को हम पूरी तरह समाप्त नहीं कर सकते उनकी रिसाइक्लिंग इत्यादि के लिए हमें पूरे इंतजाम करने पड़ेंगे।

कुछ उदाहरण दे सकते हैं?

पश्चिमी देशों की तरह हमें प्लास्टिक थैलियों के मटिेरियल पर ध्यान देना होगा। हमें ऐसी थैलियां लानी होंगी जो कई बार उपयोग में लाई जा सकें। हमारे यहां नियमों को लेकर जो ढिलाई है, उस पर काम किए जाने की आवश्यकता है।

महाराष्ट्र समेत अन्य राज्यों में प्लास्टिक पर अलग-अलग तरह के प्रतिबंध लगाए गए हैं। इनका प्लास्टिक उद्योग पर क्या असर पड़ने की संभावना है?

दोनों तरफ से असर पड़ा है। सबसे पहले केंद्र सरकार ने कहा कि प्रदूषण पर नियंत्रण किया जाना चाहिए इसलिए प्लास्टिक थैली की न्यूनतम मोटाई 50 माइक्रोन करिए। पर इसका पालन कितना किया गया? सबको तो नहीं कर सकता पर बहुत सारे लोग 20 और 24 माइक्रोन भी इस्तेमाल कर रहे थे। सरकार ने नए मानकों के इस्तेमाल करने के लिए समय भी दिया पर इंडस्ट्री ने उस पर अमल नहीं किया। सरकार ने पिछले साल ही सुनिश्चित कर दिया था कि इस साल ‘गुढ़ी पाड़वा’ से इस पर प्रतिबंध लगाया जाएगा। पर लोगों ने उसे उतनी गंभीरता से नहीं लिया। अब एकाएक तमाम विकल्पों की बात की जा रही है। इस पाबंदी का एक अच्छा परिणाम यह निकला कि प्लास्टिक के इतर कई सारे अन्य विकल्प सामने आए जिन्हें उन्हीं मशीनों पर तैयार किया जा सकता है। बस हमें अपना मटिेरियल बदलने की आवश्यकता है।

आपके द्वारा लाए गए प्लास्टिक के विकल्प के लिए कच्चा माल के तौर पर क्या उपयोग किया जाता है और वह कहां से उपलब्ध होता है?

सामान्यतः इसमें वे मटिरियल आयात किए जाते हैं जो बाद में नष्ट किए जा सकते हैं। सबसे बड़ी बात, इसकी खपत यदि काफी बढ़ी तो ये सारे मटिरियल यहां भी बनाए जा सकते हैं। इस प्रकार इसकी कीमत भी कम हो जाएगी। इसे पीएलए आधारित प्लास्टिक कहा जाता है। यह बायो बेस तथा इको फ्रेंडली है साथ ही मिट्टी में मिलकर खाद बन जाता है। इसे आप सामान्य प्लास्टिक की ही भांति उपयोग में ला सकते हैं।

अर्थात् यह प्रोडक्ट प्लास्टिक बनाने वाले उद्यमियों तक पहुंचा दिया जाए तो वे इसके द्वारा कम्पोस्टेबल प्लास्टिक की उपयोगी चीजें बना सकते हैं?

जी बिलकुल। साथ ही, उद्यमियों को सबसे बड़ा डर हो सकता कि उनका कैपिटल इन्वेस्टमेंट बढ़ जाएगा; क्योंकि नई मशीन लगानी पड़ेगी। उन्हें ऐसा कुछ भी नहीं करना है। मशीन वही रखनी है। बस जो आप एलडीपी या एसडीपी का दाना उपयोग में लाते हैं, उसके स्थान पर इसका प्रयोग करना है। बस निर्माण प्रक्रिया में थोड़ा बहुत अंतर हो जाता है। वर्तमान प्लास्टिक के लिए कम से कम 50 माइक्रोन की मोटाई आवश्यक है, जबकि इसके साथ ऐसा नहीं है। यह महंगा है पर मोटाई कम कर उसकी लागत को कम किया जा सकता है। वर्तमान परिस्थितियों में यदि कागज की बैग की बात करें तो वह भी महंगा है साथ ही उसमें तरल पदार्थ नहीं ले जा सकते। केंद्र सरकार की चेन्नई स्थित लैब ने ही यह बात कही है कि, ‘बायो डिग्रेडेबल की बजाय बायो कम्पोस्टेबल तकनीक पर जोर दिया जाना चाहिए।‘

आप द्वारा लाए गए मटिरियल को प्लास्टिक उद्योग तक पहुंचाने के लिए सरकार की किन नियमावलियों के अंतर्गत आना पड़ा है तथा यह कार्य किस मोड़ तक पहुंचा है?

मेरे पासा सरकार का गैजेट है। उसमें पूरी तरह से साफ-साफ शब्दों में प्लास्टिक और कम्पोस्टेबल प्लास्टिक की परिभाषा लिखी गई है और महाराष्ट्र के गजट में भी साफ शब्दों में लिखा है, ’प्लास्टिक बैन किया है।‘ केंद्र के सीपीसीबी के नियमानुसार कम्पोस्टेबल प्लास्टिक नार्मल प्लास्टिक का एक विकल्प है। पर कम्पोस्टेबल के उत्पादों को लेकर भी नियम साफ नहीं है। जिस प्रकार नार्मल प्लास्टिक को रिसाइकल करने के लिए प्लांट की आवश्यकता पड़ती है उसी प्रकार इसे कम्पोस्ट करने के लिए भी इंडस्ट्रियल प्लांट की आवश्यकता पड़ती है। रिसाइकल करने की एक सीमा होती है। उसके बाद वह मटिरियल जमीन में चला जाता है। पर कम्पोस्टेबल प्लास्टिक 6 महीने से सालभर में खाद बन जाता है जिसे हम निकाल भी सकते हैं।

वर्तमान गैजेट में कुछ कमियां रही हैं। उसके लिए  सरकार से आपकी क्या अपेक्षाएं रही हैं?

सबसे पहले तो सरकार से मेरा यह कहना है कि जैसे आपने कम्पोस्टेबल मटिरियल की बात की है, उसी प्रकार उसके एप्लीकेशन भी निर्धारित कर दीजिए। कम्पोस्टेबल मटिरियल को विकल्प के तौर पर प्रयोग करने के लिए कम्पोस्टेबल प्लास्टिक का केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड में रजिस्ट्रेशन होना आवश्यक है। बोर्ड के टेस्टिंग लैबों की संख्या बढ़ाई जाए। इस समय केवल चेन्नई में टेस्टिंग होती है जिसमें 8 महीने से एक साल लग जाते हैं। उदाहरण के तौर पर महाराष्ट्र में संगठनात्मक तौर पर 500 तथा गैर संगठनात्मक स्तर पर 5 हजार से भी अधिक कम्पनियां हैं। आप अनुमान लगा सकते हैं कि उनका व्यापार किस तरह प्रभावित होगा इसलिए एक एफटीआईआर टेस्ट कर अंतरिम स्वीकृति दे दी जाए ताकि बिजनेस चलता रहे। जब मुख्य परीक्षण में फेल पाया जाए तो उसका लाइसेंस रद्द करने या जुर्माना करने का विकल्प खुला है।

आपकी गुहार पर सरकार की क्या प्रतिक्रिया रही है?

निर्णय विचाराधीन है। हम केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के पास भी जाने वाले हैं कि आप कच्चा माल बनाने वाली कम्पनियों को और ज्यादा संख्या में लाइसेंस दें ताकि बाजार में कच्चे माल की उपलब्धता हो सके। बैग बनाने वालों के लिए एक प्रारंभिक टेस्ट करते हुए भी अंतरिम लाइसेंस दे सकते हैं। इससे कच्चा माल बाजार में उपलब्ध कराने में समस्या नहीं आएगी।

आपके उत्पाद को मिट्टी में मिलने में लगभग 180 दिन लगते हैं। इस प्रकार इसका भी पहाड़ हो जाएगा।

देखिए, जो प्लास्टिक पदार्थ जमीन पर पड़े हुए हैं वे हजारों सालों तक पड़े रहेंगे जबकि कम्पोस्टेबल प्लास्टिक ज्यादा से ज्यादा 180 दिनों में कम्पोस्ट होकर हमारे खेतों के लिए खाद का निर्माण भी करेगा।

इसे कम्पोस्ट करने के लिए किस प्रकार का तंत्र स्थापित किए जाने की आवश्यकता है?

जिस प्रकार सरकार रिसाइकल करने के तंत्र स्थापित कर रही है, उसी प्रकार उसे इसे कम्पोस्ट करने का भी तंत्र विकसित करना होगा। इस समय निकलने वाले कचरे में 45% प्लास्टिक होता है। अगर मुंबई की ही बात करें तो प्लास्टिक कचरे को डम्प करने के लिए जगह ही नहीं बची है। आग लगने तथा प्रदूषण का भी खतरा है। हमें एक बात ध्यान रखनी होगी कि अगले 10 सालों में स्थिति काफी भयंकर हो जाएगी।

प्लास्टिक इंडस्ट्री के साथ छोटे-छोटे अन्य उद्योग भी विकसित हुए हैं, जैसे कि प्लास्टिक के सामानों को पहुंचाने वाले या छोटे दुकानदार। इस नए विकल्प से क्या उनका धंधा पूरी तरह चौपट हो जाएगा?

बिलकुल नहीं। बल्कि कुछ अलग फायदे भी होंगे। भारत की कृषि व्यवस्था काफी सुदृढ़ है जो कि इस उद्योग को काफी मात्रा में कच्चा माल उपलब्ध कराएगी। भारत में इस उद्योग को विकसित करने के लिए केवल इंडस्ट्री खड़ी करने तथा उनके लिए बाजार उपलब्ध कराए जाने की आवश्यकता है। कच्चा माल बहुतायत में मिल जाएगा तथा किसानों के लिए काफी फायदेमंद रहेगा।

बीच-बीच में किसानों द्वारा फसल के अनुपयोगी हिस्से जैसे कि पराली जला देने की खबरें आती रहती हैं। क्या उनका उपयोग यहां किया जा सकता है?

पूरी तरह तो नहीं पर काफी हद तक किया जा सकता है। बांस और गन्ने के कचरे का सदुपयोग किया जा सकता है। किसानों को इस तरह की फसलें उगाने के लिए प्रोत्साहित किया जा सकता है।

प्लास्टिक के इस पर्याय को बाजार में पूरी तरह उतारने के लिए आपने कोई समय सीमा तय की है?

अभी तक तो ऐसा कुछ तय नहीं किया है। विदेशों में तो कम्पोस्टेबल बैग की बाध्यता के कारण यहां से बनाकर चीजें भेजी जा रही हैं क्योंकि यह सस्ता पड़ता है पर हमें लगता है कि कुछ बाधाओं से पार पाया जाए तो इस मामले में भारत भी मुख्य धारा में आ सकता है। इसमें सरकार का सहयोग मिलना बहुत आवश्यक है। साथ ही लोगों में जागरुकता लाए जाने की आवश्यकता है कि उपयोग के बाद इन्हें इधर-उधर न फेकें। अगर अंतरराष्ट्रीय मानकों का पालन किया जाए तो बेहतर है क्योंकि यह एक सामाजिक आर्थिक विषय है। इसके लिए जो कम्पोस्टेबल इंडस्ट्री तैयार की जाए ताकि वह रिसाइकल की अपेक्षा सस्ता हो।

यह तकनीक दुनिया के किन अन्य महत्वपूर्ण देशों में अपनाई जा रही है?

यूरोप, आस्ट्रेलिया, न्यूजीलैंड, अमेरिका, जर्मनी, फ्रांस जैसे कई देश इस तकनीक को अपनाए हैं। वहां पर प्लास्टिक की चीजों को अलग करने की तकनीक भी हमारी अपेक्षा काफी उन्नत है। खासकर जिन देशों की कृषि प्रणाली उन्नत है उन्होंने इस दिशा में काफी अच्छा कार्य किया है। उनके यहां एक बेहतरीन इको प्रणाली विकसित कर ली गई है।

यदि एक चक्र पर ध्यान दें तो आप अपने विकल्प, प्लास्टिक के वर्तमान उपयोग तथा उसको आपके उत्पाद में बदलने को किस प्रकार परिभाषित करेंगे?

यह काफी चुनौतीपूर्ण कार्य है। पूरे तंत्र में जागरुकता लाए जाने की आवश्यकता है। हम व्यवसाय तो करना चाहते हैं पर जागरुकता के साथ। इसलिए हम पूरी पारदर्शिकता लाना चाहते हैं। हमारी ‘इंडियन कम्पोस्टेबल पालिमर एसोसिएशन’  प्लास्टिक निर्माण की संस्थाओं की अपेक्षा काफी छोटी संस्था है। हर व्यवसायी अपने काम को आगे बढ़ाने के लिए लॉबिंग करता है। हम उसके खिलाफ नहीं हैं पर पारदर्शिकता जरूरी है। रेलवे आक्सो डिग्रेडेबल मटिेरियल प्रयोग में लाता है वहीं सरकार की लैब उसे नॉन बायो डिग्रेडेबल घोषित कर रखा है। अगर हम पेपर की भी बात करें तो वह बेहतरीन कम्पोस्टेबल उत्पाद है पर उसे रिसाइकल करने में काफी मात्रा में केमिकल लगता है तथा उसके लिए काफी अधिक मात्रा में पेड़ों की भी आवश्यकता पड़ेगी। इसलिए पदार्थ, एप्लीकेशन, रिसाइक्लिंग प्रणाली, कम्पोस्टिंग प्रणाली के बीच सामंजस्य होना ही चाहिए। इसके लिए राजनीतिक दृढ़ता की भी आवश्यकता है।

वर्तमान परिस्थिति

हाल ही में आए महाराष्ट्र सरकार निर्णय के अनुसार केवल 50 माइक्रॉन से कम की थैलियां ही प्रतिबंधित हैं। केंद्र सरकार और राज्य सरकारों के बीच सही तालमेल न होने के कारण प्लास्टिक प्रतिबंध की दिशा में कोई ठोस निर्णय नहीं हो पा

रहा है। हर प्लास्टिक वस्तु पर बैन से लेकर केवल 50 माइक्रॉन की थैलियों तक इसका स्तर जा चुका है। साथ ही भ्रष्टाचार और जांच की कोई व्यवस्था न होने के कारण 50 माइक्रॉन से कम के भी उत्पाद धड़ल्ले से बाजार में उपलब्ध हैं तथा प्रयोग किए जा रहे हैं। जिस गति से प्लास्टिक की समस्या मुंह बाए खड़ी है, उसे देखकर निश्चित ही आने वाले समय में प्लास्टिक के विकल्प पर ध्यान देना आवश्यक होगा। इस संदर्भ में प्लास्टिक के विकल्प देने वाली कुछ कंपनियों तथा सरकार के बीच बातचीत भी जारी है।

अपने प्रोडक्ट के लिए आपको सरकार एवं समाज से क्या अपेक्षा है?

सबसे पहले इसकी राह में आने वाली बाधाएं दूर होनी चाहिए। बैन को लेकर बहुत सारी कम्पनियां बंद हो चुकी हैं। यदि आप किसी भी पदार्थ को बैन करते हैं तो उसका विकल्प सामने लाएं। हम वैश्विक स्तर पर पहल की बात कर रहे हैं। कम्पोस्टेबल उत्पाद की कंपनियां क्यों नहीं आ रही हैं? कारण साफ है। आपके नियमों में काफी दिक्कतें हैं। कम्पनियों को सर्टिफिकेट देने में ही बहुत अधिक समय लग जाता है। जब तक रजिस्ट्रेशन नहीं होगा तब तक आपकी कंपनी प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड में रजिस्टर्ड नहीं हो पाएगी। अर्थात तब तक कोई भी आपका आपका माल लेकर बैग नहीं बना पाएगा। इन सारी प्रक्रियाओं में लगभग चार साल तक का समय लग जाएगा। 15-1-2018 के तहत कितने लोगों को कम्पोस्टेबल मटिरियल प्रयोग करने का सर्टिफिकेट मिला है? 2017 में दो-चार लोगों को मिला है पर वह लिस्ट अभी तक अपडेट नहीं हो पाई है। क्या इतने कम लोग पूरे बाजार को माल उपलब्ध करा पाएंगे?

सरकार उद्यमियों के हित के बारे में सोच रही है या नहीं?

सोच तो रही है पर लगता है कि उनके सलाहकारों को इस विषय की पूरी जानकारी ही नहीं है। उनका कहना है कि उनके पास मानव बल की कमी है। वे कहां से पता लगा पाएंगे कि वह उत्पाद कम्पोस्टेबल है या नहीं। इसके दो उपाय हैं। पहला, जिसके पास माल की सप्लाई की गई है उनका भी ऑडिट किया जाना चाहिए कि यदि एक टन माल लिया तो ज्यादा उत्पाद कैसे हुआ? दूसरा, तात्कालिक तौर पर भी उसकी जांच की जा सकती है। हमने एक किट बनाया है जिसमें एक प्रकार का साल्वेंट होता है जो नार्मल प्लास्टिक और कम्पोस्टेबल प्लास्टिक की 10 सेकेंड में पहचान कर लेता है। यदि उस लिक्विड में  मटिरियल घुल जाता है तो वह उत्पाद कम्पोस्टेबल है, अन्यथा नहीं। गलत पाया जाए तो वह माल बड़े लैब में भी जांच के लिए भेजा जा सकता है। हम यह भी बताने के लिए तैयार हैं कि यह किट कैसे बनाया जा सकता है? साथ ही, एक असोसिएशन के तौर पर हम खुद सरकार के साथ खड़े हैं। हम स्वयं नहीं चाहते कि कुछ लोगों की लोलुपता की वजह से इतने अच्छे उत्पाद के प्रति लोगों में गलत भाव जाए।

कोई अन्य बात जो आप हमें बताना चाहते हैं?

हमारी तकनीकी टीम के आ जाने के बाद हम एक प्रेस कांफ्रेंस करने वाले हैं। इसमें हम इससे संबंधित मिथकों पर भी बोलेंगे। लोगों का कहना है कि बाजार में कच्चा माल ही उपलब्ध नहीं है। सरकार के पर्यावरण मंत्रालय ने एक उच्च स्तरीय समिति भी बनाई है। उसके पास भी रिपोर्ट गई है। हमें उन देशों से तकनीक लेने की आवश्यकता जहां यह तकनीक इस्तेमाल की जा रही है। इस समस्या का समाधान विज्ञान में निहित है पर इसे केवल नया मटिरियल लाकर ही नहीं पाया जा सकता बल्कि इसमें सरकार, उद्योग एवं सबसे बढ़कर लोगों की सहभागिता बहुत आवश्यक है। मुझे पूर्ण विश्वास है कि यदि लोगों में जागरुकता लाई जाए तो वे इस पर्यावरण को नुकसान पहुंचाने वाले पदार्थ को नकार देंगे। उन्होंने तमाम असुविधाओं के बावजूद सरकार के ‘प्लास्कि बैन’ का स्वागत किया है।  उद्योग जगत भी नए उपायों को अपनाने के लिए तैयार है। यदि नियम साफ व पारदर्शी होंगे तो लोग व उद्योग उन्हें स्वीकार करेंगे। विकसित राष्ट्रों द्वारा इस उपाय को अपना लिए जाने के बाद लोगों के मन में पर्यावरण के बचाव के प्रति संवेदनशीलता और अधिक साहस आ गया है। भारत को नई तकनीकों को अपनाने के प्रति अपने पुराने रवैये को त्यागना पड़ेगा। यदि यह मानकों पर खरा उतरता है तो इसे अपनाने में देर नहीं करना चाहिए क्योंकि हमारा पर्यावरण इतनी तेजी से खराब हो रहा है कि समय पर कार्यवाही करना आवश्यक हो जाता है।

कोयंबटूर

कोयंबटूर स्मार्ट सिटी लि. के कमिश्नर के. विजयाकार्तिकेयन ने शहर के होटल मालिकों, भोजनालय मालिकों तथा कैटरिंग का व्यवसाय करने वालों और कोयंबटूर नागरिक जागरुकता एसोशिएशन(RAAC) के प्रतिनिधियों के साथ मीटिंग कर वर्तमान प्लास्टिक के बदले कम्पोस्टेबल प्लास्टिक का प्रयोग किए जाने की वकालत की। उस अवसर पर RAAC के आर. रवीन्द्रन ने बहस में भाग लेते हुए कहा वैकल्पिक तौर पर वहां के व्यापारी पुणे, अहमदाबाद और बैंगलुरू से बायो कम्पोस्टेबल प्लास्टिक किया जा सकता है। स्काय आई इनोवेशन ने बायो कम्पोस्टेबल प्लास्टिक बैगों के निर्माण के लिए कच्चा माल और मशीनरी उपलब्ध कराने का बीड़ा उठाया है।

इन बैगों के एक तरफ कोयंबटूर स्मार्ट सिटी का लोगो जबकि दूसरी तरफ निर्माता कम्पनी का नाम, लोगो तथा अन्य जानकारियां होंगी। इस प्लास्टिक की सबसे बड़ी खासियत होगी इसकी मोटाई, सामान्य प्लास्टिक के लिए सरकार ने कम से कम 50 माइक्रोन मोटाई रखी है जबकि यह 20 माइक्रोन तक पतला बनाया जा सकता है। इस प्रकार निर्माण लागत में 20 से 25 प्रतिशत तक कमी की जा सकती है। इस समय शहर के 400 होटलों में से लगभग 300 होटल बायो कम्पोस्टेबल प्लास्टिक का प्रयोग कर रहे हैं। कोयंबटूर में इन प्लास्टिक बैगों का निर्माण शुरू होते ही सभी होटल मालिक इनका प्रयोग प्रारंभ कर देंगे क्योंकि यह सस्ता तथा पर्यावरण के लिए सुरक्षित भी है। लोगों से यह अपील भी की गई है कि वे खरीदारी करते समय अपने साथ झोले लाएं ताकि प्लास्टिक के खपत में कमी लाई जा सके।

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