सम, मेघालय, नगालैंड, मणिपुर, मिजोरम, त्रिपुरा और अरुणाचल प्रदेश इन सात राज्यों को संयुक्त रूप से पूर्वोत्तर के नाम से जाना जाता है। यह इलाका प्रकृति की अप्रतीम सुंदरता से ओतप्रोत है। वहां के खेतों, बागानों, पर्वतों, नदियों आदि का वर्णन करने के लिए शायद शब्दों की पूंजी कम पड़ जाए। इसके लिए तो कोई महाकवि ही चाहिए। असम की ब्रह्मपुत्र नदी से सारे भारतवासी सुपरिचित हैं। इस नदी का प्रवाह कहीं-कहीं इतना विस्तीर्ण है कि एक किनारे से दूसरा किनारा बिलकुल दिखाई नहीं देता। इतना महाकाय इसका रूप बरसात के दिनों में जब रौद्र रूप धारण करता है, तब हर वर्ष इसके तटों पर बसे सैकड़ों गांव बाढ़ की चपेट में आ जाते हैं। सारा जीवन अस्तव्यस्त हो जाता है। इस महाकाय नदी को नद कहा जाता है।
इस इलाके मेंे आश्चर्यचकित करने वाली अनेक बातों में एक माजुली गांव है, जो ब्रह्मपुत्र के प्रवाह के बीचोबीच बसा हुआ है। किसी नदी के पात्र में बसा यह विश्व का एकमात्र टापू है। वहां के लोगों के सुंदर जनजीवन का उल्लेख गिनीज बुक ऑफ वर्ल्ड रेकार्ड में भी है। विश्वप्रसिद्ध अभयारण्य काजीरंगा इसी असम का हिस्सा है। ब्रह्मपुत्र का पानी जब इस काजीरंगा अभयारण्य में घुस आता है तो कई बार वहां हाथी, गेंडे और शेर जैसे जानवर चाय के बागानों में, राष्ट्रीय महामार्ग पर पनाह लेने हेतु आ जाते हैं। वहां के किसानों को बहुत बार बड़े नुकसान का सामना भी करना पड़ता है।
इसी तरह से मेघालय, अरुणाचल प्रदेश जैसे राज्यों में साल के बारह महीनों का अपना अलग-अलग सौंदर्य है। ऐसा मौसम होता है कि कब बारिश हो, कब अचानक ओले गिरे। कभी बारिश शुरू हो जाए तो दो-दो तीन-तीन दिन तक थमने का नाम नहीं लेती। बारिश की वजह से भूस्खलन होना तो आम बात है। भूस्खलन हो जाए तो हफ्तों तक उन गावों से संपर्क कटा रहता है। आज भी वहां ऐसे गांव हैं, जहां वाहन जाने के लिए रास्ता नहीं बन पाया है। वहां के लोग जीवनावश्यक सामान घंटों पैदल चल कर लाते हैं। गांव में छोटे-मोटे सामान की दुकान होती है, लेकिन वह काफी नहीं होती। इन छोटे राज्यों की राजधानी के शहरों की अपेक्षा गुवाहाटी तुलनात्मक दृष्टि से बड़ा शहर है।
कुछ छोटे मोटे कारखाने यहां हैं। साथ में नागालैंड, मणिपुर, मिजोरम और त्रिपुरा इन राज्यों के गावों मे एक दूसरे से सम्पर्क करना सहज नहीं होता। यहां तक कि तहसील स्थान से भी हफ्ते में एकाध स्थानीय बस की सुविधा होती है। चिकित्सा सुविधाओं और शिक्षा व्यवस्था की स्थिति तो बहुत ही चिंताजनक है।
पूर्वोत्तर के ज्यादातर राज्यों में चिकित्सा व शिक्षा का कार्य ईसाई मिशनरी करते हैं। इसका उपयोग वे धर्मांतरण के लिए करते हैं। अतः पूर्वांचल में धर्मांतरण जोरों से चल रहा है। जिन राज्यों में धर्मांतरण अधिक है वहां भारत से टूट कर अलग होने की मांगें उठती हैं। आतंकवादी संगठनों को अलगाववाद को बढ़ाने के लिए शत्रु राष्ट्रों से सहायता मिलती है। प्रसार-माध्यमों में इसके परिणामों को देखा व सुना जा सकता है। विस्फोट आदि होना नित्य की बात है।
लेकिन निराश होने की कोई बात नहीं है। इस विपरीत परिस्थिति में भी राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की राष्ट्रीय विचारधारा से प्रेरित वनवासी कल्याण आश्रम, विद्या भारती, सेवा भारती, अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद, पूर्व सीमा विकास परिषद, विवेकानंद केंद्र, जन कल्याण समिति और रामकृष्ण मिशन जैसे संगठन शिक्षा, स्वास्थ्य, सेवा क्षेत्र में कार्य के जरिए पूर्वोत्तर को शेष भारतवर्ष से जोड़ने में सफल हो रहे हैं।
सन १९९६ में पूर्णकालीन कार्यकर्ता के रूप में मेरा सम्पर्क मेघालय से हुआ। दो सालों के बाद पूर्वोत्तर के अन्य क्षेत्रों से सम्पर्क होना शुरू हुआ। इस क्षेत्र में प्रवास करते समय कुछ बातें प्रखरता से सामने आईं। खेती का मौसम खत्म होने के बाद यहां के किसानों के पास दूसरा कोई काम नहीं होता। जो युवक सामान्य शिक्षा पूरी होने की राह पर है, उन्हें आतंकवादी संगठन बहला- फुसला कर अपने गिरोह में शामिल करने का प्रयास करते हैं। कुछ युवक पैसों की लालच में, कुछ बेरोजगारी के कारण से, कुछ अन्य मजबूरी में उन आतंकवादी संगठनों में शामिल हो जाते हैं। मेरी राय में, युवकों के आतंकवादी संगठन में शामिल होने का प्रमुख कारण बेरोजगारी है। एक कहावत है खाली दिमाग शैतान का घर होता है। यदि इन युवकों को रोजगार या स्वयं-रोजगार दिलाकर हम उनकी बेरोजगारी की समस्या का समाधान कर सके तो ये युवक आतंकवादी संगठनों के जाल से हट कर मुख्य राष्ट्रधारा में शामिल हो सकते हैं।
पूर्वांचल के सारे राज्यों में स्वयं-रोजगार की बहुत सारी संभावनाएं हैं। वहां के राज्यों की अधिकांश जनजातियों और स्थानों की अपनी एक पहचान किसी अद्भुत कलाकृति से होती है। उन पारंपारिक कलाकृतियों को विश्व में एक अलग पहचान दी जा सकती है। इसी तरह पूर्वांचल की प्राकृतिक सुंदरता वर्णन हमने बहुत सारे माध्यमों से सुना ही होगा। असम में अनिरुद्ध-उषा की प्रेम कहानी सारे भारत वर्ष ने पढ़ी होगी। उन दोनों का पूर्णाकृति पुतला ब्रह्मपुत्र नद के किनारे स्थापित करना सैलानियों के लिए बड़ा आकर्षण साबित होगा। चाय के बागानों का विहंगम दृश्य हमने तो अनेक फिल्मों में देखा होगा, वह प्रत्यक्ष देखने का आनंद तो कुछ और ही है। विश्व प्रसिद्ध अभयारण्य काजीरंगा असम की पहचान है। अभयारण्य में हाथी, गेंड़े, शेर आदि वन्य प्राणियों को नजदीक से देखने का मजा, हाथी की सवारी का अनुभव कभी भी भूल नहीं सकेंगे। कामाख्या देवी का पुरातन मंदिर, ब्रह्मपुत्र में नौका का सफर, स्वालकुशी गांव में मुगापात, सिल्क की बनी कलात्मक साडियां, पोषाख निर्मिति के कारखाने में काम करते कारीगरों की कारीगरी प्रत्यक्ष देखने का अनुभव मिल सकता है।
मेघालय में खासी पहाड़ी जिलों में शिलांग शहर की रचना, एलिफंटा फॉल्स, बड़ा पानी, शिलांग पिक आदि बहुत सारी जगहों का दृश्य अवर्णनीय है। साथ ही विश्व में सब से ज्यादा वर्षा वाली जगह चेरापूंजी, वहां के जलप्रपात, थांङकरांङ पार्क, मोसमाई गुफाएं, मोसीङराम, बांग्लादेश की सीमा से लगा प्रदेश, वहां दोनों देशों के बीच बहने वाली नदी यह सारा मनमोहक नजारा कुछ और है। गारो पहाड़ी जिले में टिकरी किला, स्वातंत्र सेनानी फा थोगन संगमा की स्मृतियां यह सारी अपने भारतवर्ष की धरोहर है।
उसी तरह से अरुणाचल प्रदेश में बोमडिला, तवांग, अनीनी, चीनी सीमा से लगा प्रदेश, वैसे ही नगालेण्ड का युद्ध स्मारक, दीमापुर का किला (अभी भग्नावस्था में उसके कुछ अवशेष ही बाकी हैं), वहां के निसर्गरम्य गांवों की निर्मिति निसर्ग देवता के साक्षात् रूप हैं। मणिपुर जहां लोकटाक सरोवर, नेताजी सुभाष चंद्र बोस ने १९४७ के पहले ही जहां स्वतंत्र भारत का झंडा फहराया वह मोयराङ गांव, वहां का आज़ाद हिंद सेना का कार्यालय आज भी भारत माता के गौरवशाली इतिहास की साक्ष्य देता है। मिजोरम और त्रिपुरा इन राज्यों में भी प्रकृति ने अपना सौंदर्य दोनों हाथों से दिल खोल कर बांटा है और साक्षात् देवभूमि का नजारा खड़ा किया है। हम यदि सारी जनजातियों के पारंपारिक पोशाखों का भी अध्ययन करेंगे तो उसमें असाधारण कलात्मक दृष्टिकोण के साथ पूर्वोत्तरवासियों की सुजलाम् सुफलाम् भूमि का पता चल सकता है।
वहां के युवकों को हम पर्यटन की दृष्टि से विशेष प्रशिक्षण देकर तैयार कर पूर्वांचल की पहचान सारे विश्व को दें तो दुनिया भर से पर्यटकों को पूर्वांचल में आकर्षित कर सकते है। साथ ही पर्यटकों के लिए वाहन, उपहार गृह, होटल आदि मुहैया करने वाले अनेक व्यवसायों को प्रोत्साहन दे सकते हैं। वहां के विशेष खाद्य पदार्थों के जायके सिखाने के विद्यालय भी शुरू हो सकते हैं। पर्यटकों को वहां की जानकारी देने हेतु अंग्रेजी के साथ भारत वर्ष की सारी भाषाएं भी सिखाने के एक स्तुत्य उपक्रम की शुरुआत हो सकती है। अपने सारे देश में आयुर्वेद ईश्वर की देन है। पूर्वोत्तर में भी इस आयुर्वेद की दृष्टि से अनेक वनौषधियां उपलब्ध हैं। इस दृष्टि से वनौषधियों के अध्ययन हेतु पर्यटन का आयोजन हो सकता है। इससे मानव जाति का कल्याण होगा।
पूर्वांचल के राज्यों में शीत के मौसम के अलावा कुछ जगहों पर बारह माह ठण्ड होती है और गर्म कपडों का उपयोग सहजता से होता है। अतः परंपरागत व्यवसायों के अंतर्गत जैसे कि शाल के उत्पादन करने के छोटे हथकरघे घर-घर में चलाए जाते हैं। इस शाल के रूप में हर राज्य या जाति की अपनी अलग अप्रतिम कलाकृतियां देखने को मिलती है। हर एक जाति के पेहराव की अपनी अलग पहचान है। साथ ही कंधों पर लटकाने वाला झोला, जिसे हम शबनम बैग कहते हैं, उसके भी जाति के अनुसार अनेक सुंदर कलात्मक नमूने होते हैं।
हम घर के कचरे की सफाई के लिए जिस झाडू का उपयोग करते हैं, उसके तृण सारे मेघालय के जंगलों में बड़े पैमाने में सहजता से मिलते हैं। उस तृण (घास) को काट कर व्यापारियों को बेचा जाता है। व्यापारी उन राज्यों के बाहर उस तृण को झाडू निर्माताओं को बेच देते हैं। यदि झाडू बनाने की कला इन किसानों को सिखा कर वहां पर ही उसके छोटे छोटे कारखानों का निर्माण हो तो बड़ी रोजगार निर्मिति होगी। साथ ही कटहल, संत्रा, सुपारी, जैसे अनेक फलों की खेती वहां पर होती है। उन पर प्रक्रिया करके फलों का रस, जॅम, चॉकलेट जैसे उत्पादन करने के उद्योग स्थापित किए जा सकते हैं।
असम चाय के बागानों के लिए विश्व प्रसिद्ध है। इस चाय का स्वाद भारतवर्ष के साथ विश्व में भी पहुंच गया है। चाय के कारण अनेक नए व्यवसाय उपलब्ध हो रहे हैं। टी बैग का उत्पादन या शहरों में जगह-जगह पर निर्माण हो रहे कॉफी शॉप जैसी होटल इस दृष्टि में रख कर असम में व्यावसायिक विचार किया जा सकता है। कॉफी कॅफे डे, बरीस्ता, मॅकडोनाल्ड जैसी अनेक अंतरराष्ट्रीय कंपनियों ने अपने देश भर में चाय कॉफी को लेकर व्यवसाय का बड़ा सफल जाल बिछा दिया है। क्या हम असम की चाय लेकर साथ में पूर्वोत्तर के व्यंजनों का स्वाद देकर कुछ अलग तरह के होटल स्थापित करने की सोच सकते हैं? सिर्फ ‘चाय पे चर्चा’ करके अपने माननीय प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी ने क्या करिश्मा कर दिखाया यह हम भलीभांति जानते हैं। यदि इसका सकारात्मक दृष्टि से विचार होगा तो पूर्वोत्तरवासियों का भी आत्मसम्मान जागृत हो सकता है।
वहां बांस का भी उत्पादन भारी मात्रा में होता है। बांस से अनेक परंपरागत कलाकृतियों के साथ बैठने के साधनों की (कुर्सी, टेबल) निर्मिति पुरातन काल से चली आ रही है। लकड़ी से बने घरेलू सामानों को यदि हम बांस से बने फर्नीचर का विकल्प दे सके तो बड़ी मात्रा में वृक्ष कटाई पर रोक लग सकती है। खेतों में काम करते समय धूप, बारिश से बचने के लिए बांस को छील कर उसकी पतली पट्टियों से टोपियां भी बनाई जाती हैं। वहां भी राज्यों के अनुसार अलग-अलग कलाकृतियों का दर्शन होता है। शेष भारत में शायद उसका उपयोग नहीं होगा, लेकिन हमारे घरों में दीवारों पर उसे सजाकर लगाने से दीवारों की भी सुंदरता बढ़ती है। कलात्मक दृष्टि से उसे देखा जाए तो सारे विश्व में उसकी मांग बढ़ सकती है। बांस से बनी अन्य वस्तुएं नित्य उपयोग में लाई जा सकती हैं, जैसे चम्मच, चाय पीने का कप, फूलों को सजाने का फूलदान आदि अनेक कलात्मक और उपयोग में आने वाली वस्तुओं के उत्पादन को बढ़ावा दिया जाए तो अनेक लोगों को रोजगार मिल सकता है। निष्कर्ष यह कि पूर्वोत्तरवासियों का आर्थिक स्तर ऊंचा करने के लिए लघु उद्योग महत्वपूर्ण भूमिका निभाएंगे। खादी ग्रामोद्योग की सहायता से उन किसान युवकों को, विद्यार्थियों को शिक्षा देने हेतु प्रशिक्षण शिविरों का आयोजन करने से उन्हें लाभ होगा। मुंबई आईआईटी में भी बांबू पर प्रक्रिया को लेकर संशोधन शुरू होने की जानकारी मिली है।
देवभूमि पूर्वोत्तर में भरपूर खनिज सम्पदा है। कोयला, तेल, चूने के पत्थर, यूरेनियम जैसे अन्य खनिजों के साथ प्रकृति द्वारा दी गई आयुर्वेद की संपत्ति भी अमाप है। भारत सरकार को दूरदृष्टि पूर्वक विचार कर इस सारे खजाने का विचार करके इन पर प्रक्रिया करने या शोधन करने के उद्यम इसी प्रदेश में लगाने चाहिए। सारे पूर्वोत्तरवासियों के रोजगार के आधार पर दिल, दिमाग को देशप्रेम से जोड़ने की योजनाएं बनानी चाहिए।
सुंदर पोषक वातावरण, पहाड़ी इलाका इस ईश्वरीय देन के कारण वहां के युवकों में शारीरिक क्षमता, तत्परता असाधारण है। विद्यार्थी दशा से इन छात्रों को विभिन्न खेलकूद का प्रशिक्षण दिया जाने पर वे विश्व में विशेष करके एथलेटिक्स जैसे खेलों में नाम ऊंचा कर सकते हैं। लेकिन सरकार की ओर से बैंक, शासकीय सेवा जैसे विभागों में इन खिलाडियों को नौकरी मिलने की आश्वस्ति हो तो उनमें ज्यादा परिश्रम करने की इच्छा निर्माण होगी। जिससेउनके समक्ष एक लक्ष्य होगा और वे अन्य गलत दिशाओं में गुमराह नहीं होंगे। साल में तीन-चार बार विविध खेलों की स्पर्धाओं के आयोजन की आवश्यकता है। इसे ध्यान में रख कर व्यावसायिक क्रीड़ा संकुलों का निर्माण होना चाहिए, जिसके साथ ही अनेक नौकरियां निर्माण होने की संभावना पैदा होगी।
उल्लेखित कुछ व्यवसायों और नौकरियों के माध्यम से पूर्वोत्तर को शेष भारत से जोड़ने का विचार भी होना चाहिए। आज भी वहां के लोगों को चीनी, नेपाली या जापानी के रूप में पहचाना जाता है। क्योंकि उनके चेहरे की पहचान कुछ वैसी है। फिर भी किसी न किसी माध्यम से उनका संपर्क सारे भारत वर्ष से होते रहेगा तो हमें भी उनके निकट जाने का मौका मिलेगा, हमारी मित्रता उनसे बढ़ने लगेगी। एक दूसरे के प्रति स्नेह और विश्वास जागृत होगा। वहां के रहन-सहन, खानपान, भाषा और संस्कृति इत्यादी की निकटता से पहचान होगी, अपनापन बढ़ेगा। पर्यटन से हमारे और पूर्वोेत्तर का पूर्वांचल का पौराणिक नाता हमें पता चलेगा। हम विविध त्यौहार देशभर में पुरातन काल से मनाते आ रहे हैं। उन त्यौहारों के शुरू होने के बारे में एक दूसरों को जानकारी मिलेगी। जैसे कि दीवाली का त्यौहार देश के कोने-कोने में मनाया जाता है। उसकी पृष्ठभूमिमें असम के शोनीतपुर की है। नरकासुर ने वहां के सारे समाज को त्राही-त्राही कर रखा था। अनेक महिलाओं का अपहरण कर उन्हें बंदी बना लिया था। भगवान कृष्ण ने नरकासुर से युद्ध कर उसे पराजित करके सारी महिलाओं को सुरक्षित कराया था। उसी की याद में हम दीवाली के पहले दिन अपने बांए अंगूठे से ‘कारीट’ नामक फल को तोड़ कर उसका तिलक अपने माथे पर लगाकर विजयोत्सव का स्मरण करते हैं। विवेक के इस दीपावली अंक के अवसर पर यह स्मरण होना अत्यावश्यक है। सेनानी लाचित बरफूकन, उ किमांग नाङबा, उ तिरत सिंह, फा थोगन संङमा, रानी मां गायदिनल्यू जैसे अनेक देशभक्तों को लेकर फिल्में बननी चाहिए, जिससे उनके बलिदान व कार्य की गाथा लोगों तक पहुंचेगी। साथ ही फिल्म इंडस्ट्री को बढ़ावा देने हेतु अनेक रोजगार निर्माण होंगे। सहकार तत्व के आधार पर लोगों को संगठित करके व्यवसाय मार्गदर्शन की शिविरों का आयोजन होना चाहिए। राज्य, केंद्र सरकार की ओर से सहकारिता संगठनों को प्रोत्साहन देने की नितांत आवश्यकता है।
सारे पूर्वांचल में खास कर असम, त्रिपुरा इन राज्यों में बांबू क्राफ्ट, बांबू फेन्सींग, हैंडलूम कपड़ा, शाल, पारंपारिक बांबू के उत्पादन हर राज्य और जनजाति के अनुसार उनकी अलग पहचान है। अरुणाचल प्रदेश की आदी जनजाति लोहे से विविध प्रकार के शस्त्र बनाने में माहिर है। वैसे ही मिशीमी जनजाति तीर के नोक और छुरियां बनाने के लिए प्रसिद्ध है। सिंगफो, नॉकटे, वांचो, तेंङसास ये जनजातियां बुनाई काम, कुम्हार काम, लुहार काम जैसे पारंपारिक व्यवसाय करते हैं। अरुणाचल की महिलाओं का प्राथमिक व्यवसाय हथकरघा चलाना है। मेघालय में खासी, वार, पनार, जयंतिया इन क्षेत्र में झाडू व्यवसाय को प्रोत्साहन दिया जा सकता है। मणिपुर के प्रसिद्ध इमा मार्केट का सारा व्यापार सिर्फ महिलाओं के माध्यम से ही चलता है। स्थानीय उत्पादनों की खरीदी बिक्री यहां पर होती है।
वैसे ही मिजोरम में दाल, मिरची, अदरक, हल्दी, आलू, केले, अनानस, गन्ने आदि की खेती कुछ पैमाने में होती है, उन पर प्रक्रिया करके खाद्य उत्पादन को बढ़ावा दिया जा सकता है। नगालैण्ड में ७० से ८० प्रतिशत लोग खेती पर निर्भर है। ज्यादातर प्रदेश पहाड़ी होने के कारण वहां की प्रकृति के अनुसार फलों की खेती करके उस पर प्रक्रिया करने के उद्योग की शुरुआत हो सकेगी। कुछ संस्थाएं पूर्वोत्तर में रोजगार निर्मिति हेतु व्यवसाय मार्गदर्शन, उद्योजकता विषयों को लेकर कार्य कर रही है। संघ के माध्यम से मेघालय में अपने महाराष्ट्र की कार्यकर्ता श्रीमती शैलाताई देशपांडे ने कुछ साल वहां की महिलाओं को सिलाई, बुनाई का काम सिखाने का भी प्रयास किया था। वैसे ही श्री सुरेंद्र बेलवलकरी ने वहां की बनाई कुछ सामग्री को शेष भारत के बाजार मे लाने का भी महत्वपूर्ण प्रयास किया है।
हमारे क्षेत्र के वातावरण अनुसार वहां की कलाकृतियों के साथ नई कपडों की फैशन, पर्यटन के लिए एकाध बार पूर्वांचल हो आना, बांबू से बने फर्नीचर का उपयोग, सिनेमा निर्माण करते समय वहां के कलाकारों का सहभाग इत्यादी मुद्दों को हमें व्यावसायिक दृष्टि से भी देखना जरूरी है। भारत सरकार को पूर्वांचल से जुड़े व्यवसायों को लेकर कुछ नीतियां बनानी चाहिए। जैसे कि पूर्वांचल में युवकों को शेष भारत के लोगों से जुड़कर व्यवसाय करने के लिए प्रेरित करना चाहिए। उनकी सुरक्षा की दृष्टि से व्यावसायिकों के मन में विश्वास निर्माण करना होगा। शेष भारत में पूर्वांचल में उत्पादित वस्तुओं का आयात-निर्यात करने के लिए शुरुआत में विशेष व्यवस्था का नियोजन करने की आवश्यकता है। उन्हें व्यवसाय शुरुआत करने के लिए प्रशिक्षण के साथ उत्पादन करने के लिए बैंकों से ऋण देने में सहायता करनी होगी। साथ ही व्यवसाय हेतु नवनिर्मित कल्पनाओं को राज्य और केंद्र सरकार की ओर से प्रोत्साहन मिलने की नितांत आवश्यकता है। साल में एक बार शेष भारत के प्रमुख शहरों में व्यावसायिक दृष्टि से पूर्वांचल महोत्सव का आयोजन भारत सरकार की ओर से होना चाहिए। अपने पूर्वांचलवासियों को स्वाभिमान के साथ, उनके जीवन का आर्थिक स्तर बढ़ाने के लिए अन्यान्य व्यवसाय के माध्यम से हम प्रेरित कए तो सारी समस्या का समाधान जरूर मिलेगा। इन सारे प्रयासों को आपके जैसे देशभक्तों का भी साथ मिलना जरूरी है।